कुछ लोग को मजाक बनने और बनाने में अत्यंत सुख की प्राप्ति होती है। चाहे मसला अपने देश या अपने परिवार संबंधित ही क्यों न हो! तर्कहीन बातों से लगाव उनकी आदत होती है, उन्हें अपने कुटुम्ब या अपने देश से लेना-देना नहीं। यह किस्सा हर वर्ग के लोगों पे लागू होता है चाहे वह एक आम आदमी हो, चाहे कोई जिम्मेदार राजनीतिक पार्टी या फिर कोई प्रशासनिक संवैधानिक पीठ पर बैठा हुआ अधिकारी हो। भारत एक विविधता वाला देश है। यह हम सब जानते है हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, भिन्न-भिन्न होते हुए भी हम संयुक्त है। पर यहां बात भारत की संस्कृति, सभ्यता से जुड़ा हुआ नहीं, बल्कि यहां बात भारत नाम के पक्ष और विपक्ष पर केन्द्रित है।
भारत कह लें या इंडिया दोनों एक ही नाम हैं, जैसे एक ही व्यक्ति का दो नाम होता है। देश के नाम पर अनावश्यक विवाद जायज नहीं है, खास तौर से भारत और इंडिया नाम को लेकर। हमारी संस्कृति, सभ्यता व पौराणिक ग्रंथों के आधार पर भारत का अनेकों नाम है- भारतवर्ष, हिम वर्ष, जंबूद्वीप, हिन्दुस्तान, भारत, आर्यावर्त, भरतखण्ड आदि लेकिन चलन में भारत और इंडिया है, जिसे हिंदुस्तान भी कहा जाता है। यह अवशेष बहुत पहले ही खत्म करने पर आम सहमति बन जानी चाहिए थी। लेकिन दुर्भाग्य से हमारी शिक्षा प्रणाली और राजनीति ने इस स्वाभाविक स्थिति को उत्पन्न होने ही नहीं दिया। अंग्रेज यह नहीं मानते थे कि भारत भी कोई राष्ट्र है वे भारत को एक खिलौने की तरह अपने खेलने का संसाधन समझते थे लेकिन सत्य यह है कि अंग्रेज नहीं थे तब भी भारत एक राष्ट्र था और नहीं है तब भी भारत एक राष्ट्र रहेगा। मतलब राष्ट्र का आधार हमारी संस्कृति को मान लेना अति उत्तम होगा।
हिंद स्वराज में एक पाठक के प्रश्न के उत्तर पर कि भारत एक राष्ट्र था ही नहीं के उत्तर में गांधी जी ने लिखा था कि गुलामी के लिए हम अंग्रेजों को दोष दें या अपने पढ़े-लिखे लोगों को? पढ़े-लिखे लोग तो अंग्रेजी सभ्यता के ही गुलाम हो गए हैं। स्वतंत्रता के संघर्ष में भी ऐसे पढ़े-लिखे लोगों की बड़ी संख्या थी, जो अंग्रेजों को भगाना तो चाहते थे, लेकिन अंग्रेजियत यानी अंग्रेजी व्यवस्था और सोच से उन्हें समस्या नहीं थी। गांधी जी ने इसलिए कहा था कि राजनीतिक स्वतंत्रता हमें प्राप्त हो गई है, पर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, स्वतंत्रता के लिए इससे ज्यादा कठिन संघर्ष करना पड़ेगा।
किसी देश या राष्ट्र का नाम अर्थहीन नहीं होता। यह इतिहास और सभ्यता का बोध कराने वाला होता है। लाखों वर्ष पूर्व संस्कृत ग्रंथों में भारत का उल्लेख मिलता है। इंडिया नाम से किस इतिहास और सभ्यता का बोध होता है? भारत केवल भूखंड नहीं, ऐसी सभ्यता-संस्कृति और जीवन दर्शन का नाम था, इस क्षेत्र के लोगों ने जिसे अपनी जीवन शैली के रूप में अपनाया था। यही भारत की पहचान है जो संपूर्ण सृष्टि के कल्याण का रास्ता दिखाता है। राजनीतिक दलों को आपसी मतभेद भुलाकर औपनिवेशिक सोच वाले नाम इंडिया को खत्म कर केवल भारत रहने देना चाहिए। अगर आजादी के 75 वें (अमृत काल) वर्ष बाद भी जबकि हम तेजी से विकसित राष्ट्र की ओर अग्रसर हो रहे हैं, तो व्यवस्था और विचार दोनों बदलने चहिए। किसी भी राजनीतिक पार्टी को इंडिया शब्द से इतनी प्यार है, तो भारत शब्द से क्यों नहीं? इंडिया शब्द लिखने पर कभी विवाद क्यों नहीं हुआ? इसका मक़सद राजनीति से प्रेरित स्वार्थ पूर्ण आवश्य हो सकता है। किन्तु देशहित में नहीं। जी 20 के नेताओं के सम्मान में राष्ट्रपति द्वारा भोज के आमंत्रण पत्र पर "प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया" की जगह "प्रेसिडेंट ऑफ भारत" लिखने में क्या बुराई है? "प्रेसिडें ऑफ इंडिया" लिखने में तो कभी किसी ने नहीं आपत्ति की यह दुखद स्थिति है कि प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया तो हम लिख सकते हैं, तो प्रेसिडेंट ऑफ भारत क्यों नहीं लिख सकते? जबकि भारत के संविधान के अनुच्छेद एक में "इंडिया दैट इज भारत" स्पष्ट रूप से वर्णित है। यानी इंडिया जो भारत है संविधान ने दोनों नाम को सामान तौर पर मान्यता दिया है। तो इंडिया की जगह भारत कहने में क्यों आपत्ति और किसे आपत्ति है? और जिन्हें आपत्ति है उनका देश के विकास में क्या योगदान है? अगर होता तो ऐसा गैरजिम्मेदाराना बयान देता! यह दुर्भावना पूर्ण है ऐसे विचारों का नित्य आलोचना होना चाहिए। जिन्हें ज्ञान नहीं है उन्हें इतिहास पढ़ लेना चाहिए।बहुत सारे देशों के नाम बदलें है, किसी देश का नाम बदलना उसके पहचान संप्रभुता या ऐतिहासिक वजहों से प्रेरित हो सकता है। अक्सर राजनीतिक, सांस्कृतिक या सामाजिक गतिविधियों के वजह से ऐसा हुआ है। 1923 से पहले तुर्किये- तुर्की के नाम से जाना जाता था। इसी तरह 1939 में सियाम का ना बदलकर थाईलैंड कर दिया गया,1972 में सीलोन- श्रीलंका बना, तो 1980 में रोडेशिया का नाम बदलकर जिम्बाब्वे कर दिया गया।1989 में बर्मा से म्यांमार बना, तो 2016 में चेक गणराज्य से चेकिया बन गया और 2020 में हालैंड का भी बदलकर नीदरलैंड हो गया। भारत नाम हमारे सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा हुआ है। धार्मिक ग्रंथों में भी जगह-जगह इसका वर्णन मिलता है। आजादी पूर्व हमारे पांवों में जो बेड़ियां लगी हुई थी, उस पर के अनुसरण से हमारे आजाद भारत की क्षवि धुमिल होती है। लेकिन गुलाम मानसिकता के चलते आज तक किसी सरकारों ने ये जहमत उठाने की चेष्टा नहीं की। संविधान सभा का पास उठाकर देखना चाहिए तब हमें ज्ञात होगा कि संविधान निर्माताओं के सद्भावना ने इंडिया शब्द पर आपत्ति उठाई थी। जिसमें विष्णु कामथ सेठ, गोविंद दास कमलापति त्रिपाठी, केवी रोव, श्री राम गुप्ता, हरगोविंद पेंट, आरती ने आग्रह किया था कि भारत नाम हमारे होने का अर्थ स्पष्ट करता है। कभी हिंदी भाषा को लेकर तो कभी भारत के नाम पर विवाद दुर्भाग्य पूर्ण है। इसके प्रति विपरीत रवैया रखने वाला व्यक्ति क्षीण मानसिकता का द्योतक है। जिसे भारत कहने या हिंदी भाषा से शक्त नफ़रत है उसे भारत में रहने का अधिकार नहीं है। भारत कहने से किसी को आपत्ति क्यों है? हमारे देश के प्रतिक चिन्ह पर तो आम सहमति बन गई, हमारे राष्ट्र गान पर आम सहमति बन गई, इसे गाने के लिए 52 सेकेंड के समय सीमा पर भी सहमति बन गई, इसी तरह और भी कई बिन्दु थे जहां आपत्ति हो सकती थी पर नहीं हुई तो भारत और हिंदी भाषा लेकर समय-समय पर बहस करने का क्या औचित्य है।