त्योहारों का जीवन में बड़ा महत्व हैं। त्योहार मतलब उत्सव, आनंद। इसके आने-जाने से जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ते है। नई उर्जा का प्रवाह होता है। इससे जुड़े विचारों की पुनरावृत्ति होती है। आजकल लोग त्योहारों को भूलते जा रहे हैं। ऐसे में यह अपने मूल पारंपरिक स्वरूप में बना रहे, इसके लिए दृढ़ निश्चय के साथ पहल करने की आवश्यकता है। हमें अपने जीवन में त्योंहारों के महत्व को समझना आवश्यक है, इसलिए कि हमारी सभ्यता और संस्कृति से इसका गहरा संबंध है।
होली का त्योहार करीब है। जिसे रंगों का पर्व भी कहते है। इसे देश में बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। हमारे देश में लगातार दो दिन चलने वाला यह त्योहार बरसाने, वृंदावन, मथुरा में दो हफ्ते पहले से ही शुरू हो जाता है। यह त्योहार जहां बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, तो वहीं हमें आपसी संबंधों को सुधारने और सद्भाव को बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है।
प्रेम के प्रतीक तथा मन भावन रंगों का पर्व होली में हमारे गांव के लोगों का उत्साह देखते ही बनता है। यहां आज भी पारंपरिक होली देखने को मिलती है। क्योंकि पूरखो के जमाने से चली आ रही परंपरा का अनुसरण होता हैं। होली से लगभग दो हफ्ते पहले ही देवालयों पर ढोल, मजीरा के साथ चौताल लगने लगते है तथा परंपरागत फाग गीत और चहका गाएं जाते हैं जिसे लोग बड़े चाव से सुनते हैं।-"यह चरन सरोज निहारी, रमा हो पति प्यारी", "हे दशरथ के कुंवर दया नीधि, दीन बंधु हितकारी", सिरहाने से कांगा उड़ भागा, मोर सईया अभागा ना जागा"जैसे अनेक। इसी में दश पांच लोगों की टोली निकलती है और हर घर के दरवाजे पर जाकर नृत्य के साथ जोगीरा गाते हैं।
होलिका दहन और धूल हड्डी के लिए सैकड़ों की संख्या में लोग जातें है, ढोल, झाल व मजीरा के साथ फगुआ गाते हुए पूरा गांव भ्रमण करते हैं। घर-घर रुक कर गोझिया, मिठाई का भरपूर आनंद लेते है। दोपहर दो बजे तक रंग खेलने के पश्चात शाम चार बजे से गुलाल की होली खेलते हैं और एक दूसरे को गुलाल लगाकर गले मिलते है, अभिवादन करते है। छोटे लोग बड़ों के पांव छूकर आशीर्वाद लेते हैं। जहां हर जगह फाग रंग फीका पड़ रहा है, तो वहीं हमारे गांव "गंभीरवन" की पारंपरिक होली आज भी सभी को आकर्षित करती है। वह भी एक नहीं तीन-तीन टोलियां आपस में स्पर्धा पैदा करके।
लेखक
युवराज राकेश चौरसिया
सिद्धार्थ मेडिकल एण्ड सर्जिकल चक्रपानपुर
आजमगढ़