हमारा वतन - भारत
हमको प्यारा है भारत, हमारा वतन
सारी दुनियां का सबसे सुहाना चमन।
हम है पंछी, ये गुलषन यहॉ बैठ मन
चैन पाता, सजाता नये नित सपन ।।
इसकी माटी में खुषबू है, एक आब है
जैसा कष्मीर दो-आब, पंजाब है।
सारी धरती उगलती है सोना रतन
सब भरे खेत-खलिहान, मैदान वन।।
आदमी में मोहब्बल है, इन्साफ है
खुली बातें है, जजबा है, दिल साफ है।
मन हिमालय से ऊंचा, जो छूता गगन
चाहते दिल से सब अंजुमन में अमन।।
पंछियों की भले हों कई टोलियॉं
रूप रंग मिलते-जुलते है औं बोलियॉं
फितरतों में फरक फिर भी है एक मन
सबको प्यारा है खुद से भी ज्यादा चमन।।
क्यारियॉं भी यहॉं है कई रंग की
जिनमें किसमें है फूलों के हर रंग की
एकता ममता समता की ले पर चलन
सबमें बहता मलय का सुगंधित पवन।।
इसकी तहजीब का कोई सानी नहीं
जो पुरानी है फिर भी पुरानी नहीं
मुबारिक यहॉं का ईद-होली मिलन
इसकी शोभा यही है ये गंगोजमन।।
भारत विश्व गुरू
भारत के जो सर्वश्रेष्ठ विचारक थे, उनके पास किसी प्रकार का अभाव नहीं था। उत्कृष्ट भोग, व्यवस्थाएँ थी। इन सबके बावजूद जीवन में दुख था। दुख का कारण एवं उपाय खोजने के लिए, श्रेष्ठ विचारकों ने उपलब्ध वैभव एवं सुविधा व्यवस्था को छोड़कर, एकान्त चिन्तन में लगे। और अनेक समस्याओं एवं कठिनाईयों को सहन करते हुए एक दिन वह अपने उद्देश्य में सफल हुए अपनी इस सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि से तत्वदर्शियों ने संसार के सभी लोगों को अवगत कराया। तथा संसार की समस्त मानव जाति को दुखों से छुटकारा पाने के लिए सबका आह्वान किया। भारत के सभी श्रेष्ठ विचारकों ने जिन्हें सर्वोत्कृष्ट भोगों में कहीं भी सुख शान्ती के दर्शन नहीं हुए। उन्होने पूर्ण संयम, त्याग अनुराग, वैराग्य एवं पूर्ण अनुशासन के द्वारा संसार संबंधी विचारों एवं विकारों पर विजय प्राप्त कर सृष्टि की सर्वोपरि सत्ता के दर्शन और स्पर्श के साथ विलय प्राप्त किया। उन महापुरूषों ने विचार किया कि संयम एवं अनुशासन के द्वारा मुनष्य सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि को प्राप्त कर सकता है। तो संसार में रहकर भी संयम एवं अनुशासन द्वारा बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है। इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम समाज के प्रमुख प्रतिनिधियों को अनुशासन संयम एवं त्याग की शिक्षा दी। क्योंकि प्रतिनिधि के आचरण से उनके पीछे जुडा हुआ समाज स्वतः अनुशासित हो जाएगा, यह महापुरूषों की सोच थी कि जब संयम एवं अनुशासन से सृष्टि की सर्वोपरि सत्ता को प्राप्त किया जा सकता है। तो सांसारिक उपलब्धि तो एक साधारण सी बात है। आज जहाँ भी थोडा बहुत अनुशासन एवं संयम दिखाई देता है, यह पूर्व ऋषियों के दिये हुए संस्कारों का ही परिणाम है।
आज भौतिक जगत में एवं अध्यात्मिक जगत में कहीं भी किसी के पास किसी प्रकार की उपलब्धि है तो वह संयम एवं अनुशासन का ही परिणाम है। संयम एवं अनुशासन की कसौटी में खरे उतरने वाले चिन्तनशील ऋषियों ने संसार को बहुत कुछ दिया है। ईश्वर से लेकर सांसारिक उपलब्धि का आधार एक मात्र अनुशासन है। जिस देश समाज एवं जीवन में अनुशासन होगा वह सुदृढ एवं विकसित होगा।
आज विश्व में जितने भी सम्प्रदाय संगठन हैं। यदि उनसे पूछा जाय कि आपका सिद्धांत कितना पुराना है, यह सिद्धांत आपने कहाँ से लिया है,तो उत्तर पाएगें कि सभी सिछाना तीन चार हजार वर्ष पुराने ही होंगें। भारतीय दर्शन से पुराना सिद्धांत विश्व में कहीं नहीं है। इसीलिए विश्व में कहीं भी कोई नया या पुराना सिद्धांत दिखाई देता है। उसमें भारतीय दर्शन की झलक आपको अवश्य मिलेगी। अप्रत्यक्ष रूप से सभी भारतीय दर्शन के अनुयायी हैं। यह बात अलग है कि जलवायु के आधार पर सामाजिक नियमों के समावेश से उस सिद्धांत में भिन्नता एवं नयापन दिखाई देता है। जलवायु के कारण निर्मित नियम, रीति-रिवाज का कल्याण से कोई संबंध नहीं रहता। विश्व में कहीं भी धार्मिक संगठन है। उन सबका उद्गम एवं केन्द्र बिन्दु एक परमात्मा है। परमात्मा की खोज तथा ग्रह उपग्रह औषधियों एवं वनस्पतियों के गुणों की खोज-सर्वप्रथम भारतीय ऋषियों ने की। मनुष्य के लिए उपयोगी प्रत्येक वस्तु की खोज भारतीय मनीषा की देन है। विश्व के किसी भी शास्त्र में वायुयान का एवं अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्र का कहीं उल्लेख नहीं है। इनकी चर्चा भारतीय शास्त्रों में मिल जायेगी, भारत के अन्दर कई बार, बाहरी लोगों ने लूटपाट की जिसमें अपार वैभव भण्डार के साथ ऋषियों की अमूल्य धरोहर शास्त्र भी आक्रमणकारियों के हाथ लग गये। उनका अनुवाद कराकर निर्माण कराने लगे, अभी कर ही रहे हैं और आगे करते भी रहेंगें। क्योंकि भारतीय ऋषियों ने इतना कुछ उन शास्त्रों में समावेश कर दिया है, कि मनुष्य को वहाँ तक पहुंचने में हजारों साल लग जायेगें। फिर भी उतना प्राप्त नहीं कर पाता जितना उन भारतीय शास्त्रों में लिखा है।
इतनी बड़ी उपलब्धि तथा भारत का विश्व में गौरव बढाने वाले ऋषि आज भी भारत सरकार द्वारा उपेक्षित हैं। बाहर से कोई भी किसी संस्था का धर्माध्यक्ष या धर्मोपदेशक यदि भारत आता है। तो उसकी सुरक्षा व्यवस्था में करोंडों रूपये पानी की तरह बहा दिये जाते हैं। जबकि विश्व को दिशा देने वाले भारत को भला कोई कूटनीति, फूटनीति, भेद नीति के अतिरिक्त सिखायेगा ही क्या? आज भारत की स्थिति बडी दयनीय एवं सोचनीय है। समाज के पथ प्रदर्शकों के अधारहीन एवं खोखले जीवन को देखकर इसके परिणाम के भयावह दृश्य की कल्पना मात्र से किसका दिल नहीं कांपेगा। आज मनुष्य के अन्दर न श्रृद्धा है, न संयम है, न अनुशासन है। इसलिए उसे अपने व्यक्तित्व पर विश्वास नहीं रहता और वह अनेकों प्रकार के छल-छद्म जैसे अमानवीय घिनौने कार्यो के माध्यम से सफलता पाने के लिए प्रयास करता रहता है। जिसके फलस्वरूप उसका व्यक्तित्व पहले की अपेक्षा और अधिक गिर जाता है। मनुष्य एक दूसरे के प्रति आकर्षित नहीं होता। बल्कि मनुष्य के व्यक्तित्व की तरफ आकर्षित होता है।
महापुरूषों की शिक्षा को उपेक्षित कर अनेकों संगठनों सम्प्रदायों का निर्माण हुआ अपने जैसा वेश-भूषा वाला कहीं भी मिल जाता है तो। बड े प्रेम से मिलेंगें। जैसे कोई परिवार का ही मिल गया हो। लेकिन उससे अच्छा ज्ञान ध्यान त्याग वृत्ति वाला दूसरे वेश-भूषा में मिल जाता है तो हम उतना प्रेम से नहीं मिलते। ऐसी संकीर्णता ग्रहस्थ में नहीं पाई जाती, विदेश में यदि कोई अपने देश, प्र्रान्त अथवा जिले का मिल जाता है, तो बडे प्रेम से मिलते है। इसी संकीर्णता को मिटाने के लिए ही तो ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता होती है। हीरा, सोना, चांदी यदि गंदी जगह में भी पड़ा मिल जाय तो मनुष्य तुरंत उसे उठा लेता है, इसी तरह ईश्वरीय ज्ञान एवं हित की बात कहीं भी मिलती है। हमें ले लेना चाहियें, यह संकीर्णता नही होनी चाहिये कि हिन्दु, ईसाई, मुस्लिम, सिख, पारसी ,कबीर पंथी, दादू पंथी या नानक पंथी देगा। अथवा तुकाराम पंथी देगा। तभी हम लेगें। कोई अत्यधिक बिमार पड जाय अथवा जंगल में भटक जाय तो क्या बीमार एवं भटका हुआ व्यक्ति यह प्रतिक्षा करेगा, कि कोई मेरे समुदाय का मिलें जिससे मैं इलाज कराऊँगा, या मार्ग पूछूँगा। उसका हर पल खतरों से गुजर रहा है वह कदापि प्रतिक्षा नहीं करेगा। यदि ऐसा है तो ऐसी संकीर्ण मानसिकता व्यक्तित्व के विकास एवं आत्म कल्याण में बाधक है। मनुष्य संकीर्णता वश अपने जैसे वेश एवं रहन-सहन की तरफ आकर्षित होता है। यह संकीर्णता विकास में बाधक है।
इसी प्रकार की संकीर्णता सामाजिक प्रतिनिधयों में पाई जाती है। व्यर्थ की नुकताचीनी में समय एवं धन का अपव्यय करके क्या हम देश को विकास की तरफ ले जा रहे हैं? ईसामसीह ने एक बार अपने ऊपर दोष लगाने वालों से कहा कि लोगों को दूसरे के आँख का तिनका दिखाई देता है। लेकिन अपनी आँख का सहतीर (मकान में लगाने वाली लकडी की एक बडी बल्ली) नहीं दिखाई देता। यदि हमारे प्रतिनिधियों में ऋषियों का दिया हुआ त्याग मिल जाय तो चुनाव में खर्च होने वाले अरबो-खरबों रूपयों को बचाकर देश में एक आदर्श समाज स्थापित करके उसे विकसित बनाया जा सकता है। अधिवेशनों में जो एक दूसरे पर दोषारोपण होता रहता है। घटनाओं एवं दुर्घटनाओं पर समाज को दिखाने लिए हम घटना स्थल तक जाते हैं। लेकिन देश का पैसा बचाकर उसे दुर्घटनाग्रस्त लोगों को अच्छी चिकित्सा व्यवस्था देकर बिना घटनास्थल में गये ही हम उनके सच्चे हम दर्द बन सकते हैं।
कोई प्रतिनिधि जब किसी पर दोष लगाता है। अथवा उसकी नीतियों पर, व्यवस्था पर उंगली उठाता है तो उसे त्याग भावना से वह पद सौंप देना चाहिये। ऐसा कोई भी करें उसे पद सौंपकर उसकी क्षमता की परख करनी चाहिये। फिर अधिवेशनों में सभाओं में कोई दोषारोपण नहीं करेगा। नुक्ता चीनी नही करेगा। आपस में मिलकर विकास करने की भावना जाग्रत होगी। क्योंकि दोषारोपण करने वाला भली प्रकार जानता है। कि इससे अच्छी व्यवस्था मैं नहीं दे सकता हूँ, लेकिन कोई गरीबों का पक्ष लेकर, कोई अल्पसंखयकों का पक्ष लेकर, सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का प्रयास करते ही रहते है। लेकिन तुरंत पद सौंपने की त्याग भावना से चाहे परिवार हो, समाज हो, या राष्ट्र हो विघटन नहीं होगा। यदि