दिल्ली षहर में पला-बढ़ा दिनेष जोषी जो मुख्य रूप से उत्तराखण्ड के गढ़वाल जिले से था। छुट्टियों में अक्सर दादा-दादी से मिलने गांव जाया करता था, जहां उसने वहां के लोगों के द्वारा अनेकों प्रकार की कहानियां सुनी थी, जो देवी-देवताओं, भूत-प्रेत, जादू-टोना से संबंध रखती थी। जिन्हें सुनने में दिनेष को बड़ा ही मजा आता था। षाम होते ही घर के बाहर आग जलाकर सभी भाई-बहन और रिष्तेदार इकट्ठे होकर गर्म चाय के साथ अनेकों किस्से कहानियां सुनाते। बूढ़े दादाजी जिनकी उम्र 75 साल से अधिक की रही होगी लेकिन कद-काठी से एकदम चुस्त-दुरूस्त थे। छोटी दाढ़ी के साथ बड़ी-बड़ी सफेद मूछें और सिर पर काली गढ़वाली टोपी पहनना उनको खासा पसन्द था। चारपाई पर बैठे बीड़ी सुलगाते हुए नीचे बैठे सबसे कहने लगे कि आज मैं तुमको एक ऐसा भूत का किस्सा सुनाऊंगा जिसे सुनकर तुम हैरान हो जाओगे। उत्सुकतावष सभी कहने लगे कि हमें भी सुनाओ, ऐसा क्या हुआ था? दादा जी जो किस्से कहानियां सुनाने में बहुत माहिर थे। वह बड़े ही दिलचस्प तरीके से कहानी सुनाया करते थे, जिससे सुनने वाले ऐसा अनुभव करने लगते थे, मानो वह सब घटना उसके सामने ही घट रही हो। बीड़ी का कष लेते हुए दादा जी संजीदा होते हुए बोले।
बात उन दिनों की है, जब मैं 15 साल का था और अपने पिताजी के साथ खेत में उनका हाथ बटाने जाया करता था। उस दिन मैं अपने छोटे भाई रामरतन को लेकर खेत गया। रामरतन जो उस समय वहीं दादाजी के बगल में बैठे थे। जिनका एक हाथ कुछ खराब था। बड़ी दाढ़ी-मूछें और उलझे बालों के कारण खासे डरावने लगते थे। अख्खड़ स्वभाव के कारण छोटे बच्चे उनसे डरा करते थे।
कहानी को आगे बढ़ाते हुए दादाजी कहने लगे कि मैं और रामरतन खेत में गये तो पिताजी ने उस दिन वापिस घर जाने को कहा। तो हम दोनों घर जाने के बजाए खेतों के दूसरे छोर पर एक छोटा सा बगीचा था। जहां एक नदी बहा करती थी। नदी के ही किनारे गेहूं पीसने का घराट था। जो नदी के पानी के बहाव से चला करता था। वहां हाथ से पीसने वाली एक चक्की भी थी। जिस पर अक्सर गांव वाले ज्वार बाजरा आदि भी पीस लिया करते थे। वो बगीचा इतना घना था कि दिन के समय भी वहां रात जैसा ही अनुभव होता था। नदी के पानी की आवाज और हवा का पेड़ के सूखे पत्तों के टकराने के कारण जो आवाज होती थी, उससे सिहरन सी पैदा हो जाती थी। कुछ लोगों ने वहां के बारे में कुछ डरावनी बातें भी फैलाई हुई थी कि कुछ न कुछ ऐसा है, जो लोगों को दिखता है और डरावने अनुभव होते हैं क्योंकि उस बगीचे के आसपास खेतों में छोटे मृत बच्चों को दबाया जाता था। जिस कारण वहां ऐसी बातें होना स्वाभाविक ही था।
हम दोनों भाई ऐसे ही मजे के लिए उस जगह चल दिये कि देखें तो सही क्या होता है। डर का भी अपना ही रोमांच होता है। तभी तो लोग डरते भी हैं लेकिन फिर भी ऐसी जगह के आकर्शण से खुद को रोक नहीं पाते। बगीचे से होते हुए जैसे ही हम घराट के पास पहुंचे तो अंदर एक व्यक्ति हाथ की चक्की से बाजरा पीस रहा था। उसे देखकर हम उसके पास गये तो वह मुझसे बोला, थोड़ी देर तुम ये चक्की चला दो, तो बड़ी मेहरबानी होगी। यह सुनकर रामरतन ने उससे कहा, बाबा आप उठिये, मैं चला देता हूं, लेकिन थोड़ी ही देर चलाउंगा। यह कहकर रामरतन चक्की चलाने लगा और वह बूढ़ा व्यक्ति मुझे बाहर लेकर आ गया और बातें करने लगा। बातें करते हुए मैं ऐसा सम्मोहित हुआ कि समय का पता ही न चला। सुबह से षाम हो गई और घर पर न पहुंचने के कारण पिताजी कुछ गांव वालों को लेकर ढूंढने निकल गये। ढूंढते हुए वह उस बाग पर आये और घराट के बाहर अकेले खड़ा देखा तो वह जोर से मेरा नाम लेकर चिल्लाये। उनकी तेज आवाज सुनकर अचानक मुझे झटका सा लगा और वह बूढ़ा व्यक्ति न जाने कहां गायब हो गया। तभी मुझे याद आया कि रामरतन तो घराट में था। जैसे ही मैं अंदर गया तो रामरतन अभी तक चक्की चला चला कर उसका हाल बेहाल हो चुका था। उससे पूछा कि इतनी देर तक क्यों चक्की चलाई तब उसने बताया कि तुम्हारे बाहर जाते ही मैं न चाहते हुए भी चक्की चलाने को विवष हो गया था। मैं चक्की से हाथ ही नहीं हटा पा रहा था और न ही जगह छोड़कर उठ पा रहा था। मेरी आवाज भी बंद हो गई थी। इतनी भारी चक्की चला चला कर तो मेरे हाथों ने जवाब दे दिया है। उसके बाद से ही रामरतन का वह हाथ जिससे उसने चक्की चलाई थी, अभी तक सही काम नहीं करता है। यह सुनकर सभी के रौंगटे खड़े हो गये कि आखिर वो बूढ़ा व्यक्ति कौन था और ऐसा क्यों करता था। कहानी सुनकर सभी बच्चे और गांव वाले एक-एक करके अपने घरों में चले गये। अंत में दादाजी और उनका भाई रामरतन ही आग के पास बैठे रह गये। थोड़ी देर दोनों एक दूसरे को यूं ही घूरते रहे और फिर अचानक एक दूसरे को देखकर जोर-जोर से हंसने लगे।