पृथ्वी अपनी स्वर्ग बनेगी, यदि हम इसे बनाएंगे l समझ-बूझ कर भोग करेंगे, तो मानव कहलायेंगे ll इच्छाओं को प्रबल बनाकर, दोहन इसका करते हैं l नित-नित अपने अहंकार में, विष से इसको भरते हैं ll माता जैसी प
जीवन है अनमोल निरंतर इसकी रक्षा करनी है l प्रश्न जटिल है मानव सम्मुख, इसकी विपदा हरनी है ll हैं असभ्य नादान वही सब, जो अस्वच्छ रह जाते हैं l ईश्वर का आवास स्वच्छता, संत यही कह जाते हैं ll रो