पृथ्वी अपनी स्वर्ग बनेगी, यदि हम इसे बनाएंगे l
समझ-बूझ कर भोग करेंगे, तो मानव कहलायेंगे ll
इच्छाओं को प्रबल बनाकर, दोहन इसका करते हैं l
नित-नित अपने अहंकार में, विष से इसको भरते हैं ll
माता जैसी पालन करती, अंक सभी को भरती है l
पीड़ा में चाहे हो जितनी, स्नेह सभी से करती है ll
वसुंधरा है रत्न गर्भ है, क्या हम इसे सतायेंगे?
समझ-बूझ कर भोग करेंगे, तो मानव कहलायेंगे ll
वृक्षों से जीवन है जग का, वृक्षों का संसार निराला l
वृक्ष धरा के आभूषण हैं, वृक्षों को धरती ने पाला ll
नष्ट कर रहे वन-वैभव को, स्वार्थ पूर्ति की आशा में l
यही कदाचित रोग-व्याधि है जीवन की अभिलाषा में ll
आने वाले समय-चक्र में, क्या-क्या दिन दिखलायेंगे l
समझ-बूझ कर भोग करेंगे, तो मानव कहलायेंगे ll
सुन्दर अनुपम छटा निराली, हरियाली धरती के रंग l
जल वैभव का स्रोत निराला, बहते हैं धरती के सँग ll
बनी रहे सम्पति धरा की, मानव बुद्धि अपार बने l
जहाँ रहे अधिकार हमारा, वहीं कर्म का हार बने ll
लोभ-लालसा के जीवन में क्या हम इसे बचाएंगे l
समझ-बूझ कर भोग करेंगे, तो मानव कहलायेंगे ll
✍️स्वरचित
अजय श्रीवास्तव 'विकल'