मेरा जन्म होना और संसार में मेरा प्रथम रुदन हादसे की एक शुरुआत थी, दाई की नाक पे मेरे पैर की पहली चोट मेरे आक्रोश का जैसे ज्वलंत उदाहरण थी।
मां की छाती का प्रथम दिवस दुग्धपान मेरे जीवन की सबसे अनमोल पेट पूजा थी जो कि अगले दिवस उनकी मृत्यु ने सर्वदा के लिए ये पूजा तिरोहित कर दी, बस ये रस्म भर रह गयी आजीवन।
बडे़ होने पर धाय मां सुनके ऐसी मां होने का पता चला जो मेरे जीवन में नहीं थी, मजे की बात तो ये है कि मैं चाय पी कर बड़ा हुआ।दरअसल वो दूसरा दिन ही मेरे जीवन के सफर की शुरुआत हो गई जब मेरा शराबी मामा मुझे लेकर एक दूसरी जगह अपनी झोपड़ी जो नाम की कोठरी थी में ले गया।
विदित हो कि पिता नाम की परछाई तक भी मुझ पर नहीं पड़ी कभी।
मामा शराब पीता था और मैं चाय, पता नहीं वो नहाता था या नहीं पर मैं अक्सर मूत के उसको नहला दिया करता था।ये सिलसिला यूं ही चलता रहता अगर मामा को पुलिस पकड़ कर ना ले गयी होती।
मैं फिर एक दूसरे हाथों में दयावश शायद पहुंच गया जो एक अधेड़ औरत थी जो अक्सर मामा के साथ उस झोपडी में हमबिस्तरी करती थी।
मेरी शैशव अवस्था उनको निहारते, समझते बीती जो युवकों की जानने और देखने की ख्वाहिश हुआ करती थी। जीवन की पढ़ाई लिखाई मेरी अपनी समझ से विकसित हो रही थी।
एक दिन पता चला कि मामा जेल में ही मर गया।उस औरत का रूप, व्यवहार उसी दिन से मेरे लिये बदलने लगा।अक्सर अब वो अकेले होने पर मुझे समझने, टटोलने लगती और मैं सांस रोके वस्तुस्थिति को समझने की कोशिश करता रहता और अपने शरीर में एक अकड़ सी महसूस करता।शरीर के बढ़ते जाने और मजबूत होने में मेरा कोई योगदान नहीं था ,यह कुदरती था। एक दिन नशें में धुत्त संसर्ग की उसकी कठोर चाह ने मुझे आंदोलित कर वो ठिकाना छोड़ देने पर मजबूर कर दिया जो अब तक मेरी पनाहगाह थी, मेरी उम्र तब १० वर्ष की थी।
सुबह चुपके से उसकी बाहों के बीच से सरक कर अंधेरे में अपनी तुडी़ मुड़ी सलवटों से भरी शर्ट और आगे से बिना बटन की खुली पैंट अपने नंगे बदन पर डाल कर मैं निकल पड़ा तीसरे सफर की शुरुआत पर। जीवन में दो कामों के अलावा मैने सब जाना ,एक तो रोना और दूसरा डरना।
हंसते हुए अगर कोई पैदा हो सकता है तो वो सिर्फ मैं ही था। मैं हर उस चीज में शामिल था जो मेरे साथ हो रही थी और मैं वैसे ही बहता गया जैसे जीवन की धारा मुझे बहाती गई।मेरा रूख सुबह के हल्के उजाले में सीधा स्टेशन की तरफ था जहां से मुझे कहीं की भी रेल मिल जाती।
छोटा सा स्टेशन,बिना चहल पहल का प्लेटफार्म और दो ही लाइन जिसके एक नं० पर कोई ट्रेन खड़ी थी और शायद चलने को तैयार थी क्योंकि कई डिब्बों में यात्री सवार थे।
मैं सामने वाले जनरल डिब्बे में चढ़ गया और उस खाली डिब्बे के एक कोने में सरक के सिमट गया, उस डिब्बे में लाइट नहीं थी।
कब ट्रेन चली कब मैं सो गया मुझे कोई खबर नहीं।खबर तो तब हुई जब गाड़ी अपने गंतव्य पर पहुंच गयी और खाली ट्रेन के सफाई कर्मचारी ने झकझोर कर मुझे जगाया और प्रश्नों भरी नजर से मेरी तरफ देखते हुए बोला...कहां जाना था तेरे को , कोई साथ नहीं?
मैंने ना में सर हिलाया तो बोला कुछ खाया - वाया है?
मैंने फिर सर ना में हिलाया तो बोला चल उठ आ मेरे साथ।
वो मुझे सामने स्टाॅल पर ले गया और बोला 'रे झुमरू , इस लौडे को कुछ खिला पिला मैं अभी आया" कहकर वो फिर सफाई करने चला गया।