दोहे
तन कोमल तो क्या हुआ,मन जो रूखा सख़्त।
उतना भी ना झुक सके,जितना झुके दरख़्त।
नरम अधर पत्थर जिगर,चाँद समान स्वरूप।कोमलता बिन व्यर्थ है,ज्यों गरमी की धूप।
नाजुक नयन प्रहार से,दिल घायल हो जाय।सुमन अंक में बंद हो,भ्रमर बने असहाय।
लाली अधरों पे सजी,नैनन कजरा धार।
नादां दिल छुप के रहो,कातिल है तैयार।
प्रेम-नदी में है कहाँ, घाट पाट या तीर।
जो उतरा वो बह चला,क्या लैला क्या हीर।
…. सतीश मापतपुरी