घनाक्षरी
भींगें बदन तरुणी तरणी चढ़ ताल में ,
केश को झटक रही चाँद छिप जात है।
रात का तिमिर भी निराश होय सिर धुने ,
पूर्णिमा का चाँद है कि अप्सरा की गात है।
अंग प्रति अंग से जो रौशनी छिटक रही ,
मानो कि अँजोर जर्रे - जर्रे में समात है ।
चलती जो थम- थम पैजन बाजे झनन ,
हिय में हिलोर उठे ठुमरी सुनात है ।
….. सतीश मापतपुरी