पहाड़ों पर चमकती धूप फिसलती है, तो तराई का लिहाफ गर्म होता है। सुबह पेड़ों पर नामाकूल खगों को देखिए, तो कहां पता चलता है वे बीती रात कितनी, किससे दगाबाजी कर आये हैं। शाम को रात से कभी मिलना नहीं होता, तो वह गोधूलि की आड़ लेकर झट से गुम हो जाती है। गंवई मनई अपनी रौ में जीता है। बाजरे की रोटी खाकर मस्त, मूंज की बीनी खटिया पर सो जाता है, अलमस्त, जहां सरसराती पछुवा उसे नींद के आगोश में ले जाती है। झूठे सपने नहीं दिखाती। ताजा होकर जब वह उठता है, तो जीवन की स्फूर्ति पाता है और लग जाता है अपने काम पर। जाने-अनजाने जीवन के फलसफों में उलझा आदमी खुद के और दुनिया के बीच एक दीवार खड़ी कर लेता है। बांसुरी की तरह अपने अंतर में देखो, तो सब खाली है। इसमें सिर्फ बजानेवाले के स्वर ही गूंजते हैं। इसी गुण के कारण बांसुरी वासुदेव के होंठों से लगने का सौभाग्य हासिल कर पायी। प्यार, समर्पण और त्याग-ये वास्तविक जीवन मूल्य हैं। नदी, पेड़, धूप, रौशनी, संत और प्रकृति देते हैं, इसीलिए इन्हें हमेशा सहेज कर रखने की सीख दी गयी है। कभी मुक्ताकाश देखें, मन को रमा कर। उस अनंत में आशाओं का विस्तार है, झरने को देखें, आगे बढ़ने की ललक है, धूप को देखें, रग-रग में समा जाने की जीजिविषा है, खग को देखें, तो सुदूर ऊंचाइयों में खो जाने का बावरापन है, जल को देखें, तो अतल गहराइयों में समा जाने की चाहत है। इन सबको किसी फलसफे से कोई मतलब नहीं। ये अपने प्राकृतिक स्वभाव के अनुरूप आचरण करते हैं और हमेशा सुखी रहते हैं। संपृक्त रहते हैं। फिर हम, आप बार-बार जीवन से, जीवन में उलझ क्यों जाते हैं। छोटी सी आस का पालना बनाकर बड़ी आशाएं खड़ी कर लेना हमारा स्वभाव है। हम नदी से समुद्र, आकाश से ब्रह्मांड, जीवन से मुक्ति, घर से संसार, रिश्तों से स्वार्थ, ईश्वर से सृष्टि और खुद से अपनी पहचान ही मांग बैठते हैं। शायद इसीलिए हम कहीं न कहीं हम नहीं रह जाते। खुद का वजूद सामने होते हुए भी खो जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं।