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सोमरी

28 जनवरी 2015

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मेरे घर के पिछवाडे गर्मियों में गुलजार होता है सुर्ख पलाश साँझ के झूटपुते में अक्सर फूल चुनने आती है सोमरी उसके जूडे में पहले से ही होते हैं सफेद झकाझक जंगली फूल फूल उसे बहुत प्रिय हैं खुद भी वह फूलों जैसी ही है नाजुक, कोमल सोमरी इधर कई दिनों से आवाज नहीं आती उसके चांदी की पायल की मेरी खिड़की से होकर सुगंध भी नहीं आती उसके जूडे के फूलों की यह क्रमभंग था में परेशां सा हुआ उसके साथ अक्सर फूल चुनने जाती अपनी बेटी से पूछा आजकल क्यों नही दिखती है सोमरी बेटी ने कंधे उचकाए सुनाया मुझे एक विद्रूप सच कहा उसने सोमरी गयी है असाम चाय के बगानों में खटने अगली होली में आयेगी अपने देश फिर उसके पास होंगे ढेर सारे रूपये घड़ी, सुगन्धित तेल कानों में झुमका नाक में नाथिया और पैरों में पायल पर मुझे पता है कभी नहीं आयेगी सोमरी वह गयी है असम जहाँ गुम गए हजारों झारखंडी बुधनी, बिगन, हलधर और सोमा जो वहाँ एक बार गया वापस कहाँ लौट पाया फिर लौटकर कैसे घर आ पायेगी सोमरी में सोचता हूँ और देखता हूँ खिड़की से उसी पलाश को जिसके नीचे छम छम करती अक्सर आया करती थी सोमरी

घनश्याम श्रीवास्तव की अन्य किताबें

शालिनी कौशिक एडवोकेट

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भावों को शब्दों का सुन्दर आकर दिया है आपने .

30 जनवरी 2015

डॉ. शिखा कौशिक

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यात्रा मन की

28 जनवरी 2015
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28 जनवरी 2015
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कोरे मन का कैनवास

28 जनवरी 2015
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कोरे मन का कैनवास खूंटी से उतारा, तो विचारों की रौशनाई उबलने लगी। इनसाइक्लोपीडिया की तरह शब्दों का संसार पसरा था, जिसे करीने से सजाकर टेक्स्ट की शक्ल देनी थी। इसी बीच छोटे-छोटे शब्द तंतु भी अपने बिल से बाहर निकल आये। अब प्रस्तावना लिखूं तो क्या। इसी दुनिया से विचारों की थाती लेकर कैनवास पर कहानी उके

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मेरे घर के पिछवाडे गर्मियों में गुलजार होता है सुर्ख पलाश साँझ के झूटपुते में अक्सर फूल चुनने आती है सोमरी उसके जूडे में पहले से ही होते हैं सफेद झकाझक जंगली फूल फूल उसे बहुत प्रिय हैं खुद भी वह फूलों जैसी ही है नाजुक, कोमल सोमरी इधर कई दिनों से आवाज नहीं आती उसके चांदी की पायल की मेरी खिड़की से होक

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