कोरे मन का कैनवास खूंटी से उतारा, तो विचारों की रौशनाई उबलने लगी। इनसाइक्लोपीडिया की तरह शब्दों का संसार पसरा था, जिसे करीने से सजाकर टेक्स्ट की शक्ल देनी थी। इसी बीच छोटे-छोटे शब्द तंतु भी अपने बिल से बाहर निकल आये। अब प्रस्तावना लिखूं तो क्या। इसी दुनिया से विचारों की थाती लेकर कैनवास पर कहानी उकेरने का एकमात्र आप्शन था। सन्नाटे में खुद को एक मीठी झिड़की दी, तो उनींदे खयालों ने मचलना शुरू कर दिया। इस बावरेपन पर लगाम लगाने की जुगत में छठी इंद्री जाग्रत हो गयी। खिड़की से झांकते हुए देखा, तो महुआ की मोटी पत्तियों के बीच जुगनुओं की चमक मौजूद थी। तल्ख हवा के झोंकों से कायनात की हर चीज डरावनी शक्ल ले रही थी। बाहर के वातावरण की भौतिकता का अक्स सलेटी दीवार पर जिन्नात की तरह उभरकर डरा रहा था। मैं अपनी खोल में दुबक जाना चाहता था, पर खुला पड़ा कैनवास शिद्दत से आमंत्रण को आतुर था। एक बार फिर बेचैनियों को गंभीरता से फना कर खुले आकाश की चिलमन को देखा, तो लगा कि इस ब्रह्मांड के अनंत विस्तार में जितना एकाकीपन है, उतना अकेलापन यहां तो नहीं। विचारों की पुल्टिस बांधकर कैनवास पर बिखेरने को मुट्ठी तानी ही थी कि क्षीण होती जीवन ऊर्जा ने बांह पकड़ ली। ऐसी ही मनस्थिति में ऊब-डूब ही रहा था कि झट से किसी नज्म ने एकबारगी व्योम की हवाओं की सीढ़ियों के सहारे सन्नाटे को तोड़ डाला। और यकीन मानिए, बदल गयी फिजां। कैनवास सतरंगी हो गया था। रौशनाई का पारा पिघलने लगा था। खिड़की से आती हवाओं में रातरानी की गंध घुल गयी थी, सलेटी दीवारों पर संस्कृति चित्र अवतरित हो गया था, महुआ की डाल झूंम-झूम कर गारी गाने लगी थी, जुगनओं ने एक बारात की शक्ल ले ली थी, विचारों का डोला सज गया था, शब्द सजने लगे थे यकायक। सही है, किसी नज्म की रूबाइयों में दिल खो जाये, तो जीवन का प्रवाह ही मचल उठता है। आइए, ऐसी ही किसी नज्म को इस बरसात में ढूंढ़े- ठीक वैसे ही जैसे किसी घनघोर बरसात में, आधी रात को आप जगे हुए हों, आंखों से नींद गायब हो और दूर से मीठी-मादक आवाज में यह गीत सुनाई दे- ओ सजना.............बरखा बहार आयी रे...........रस की फुहार लायी, अंखियों में प्यार लायी रे.....