अगर कोई जिंदगी से चले जाए तो शिकवा क्या करना लौट कर आए तो साहिल वरना मुकद्दर तक रोना लिखा है
यह कहानी है उस मासूम गोरैया जैसी एक लड़की की जो किसी के एहसान पर जिए जा रही है जैसे गोरैया अपना आशियाना बना लेता है किसी के घर के दरो दीवार पर ठीक उसी तरह वह भी अपनी परिवार में रहती थी अपना हर काम सलीके से करती थी किसी से ना कुछ कहती या किसी से ना झगड़ती बस मन ही मन एक आकृति के भांति रोज कुछ ना कुछ सपना सजाती थी कभी उस आकृति के आंख को याद करती तो कभी उसके जुलूस का दीदार करती और मन ही मन मुस्कुराया करती की एक दिन यह ख्वाब का बुत जीवंत होगा वह सताई भी जाती वह रुलाई भी जाती वह मनाई भी जाती वह मूंह बनाया करती लेकिन हर रात उस सुनहरे ख्वाब का दीदार करती साहसा दिन गुजरे महीने बीते वही पुरानी रीति रिवाज दोहराई जाति जिसमें उसे ही सबसे ज्यादा डांट सुनाई भी जाती कभी अम्मा कहती कैसे संभालेगी अपने पति का घर कैसे दवाऐगी अपने सास का पैर कैसे पालेगी अपना कृष्ण कन्हैया भैया कभी कभी कह दिया करते मुझे डर है कहीं लौट कर ना आ जाए ससुराल से कौन रखेगा इस कामचोर को कभी-कभी पलके भी साथ छोड़ कर भीग जाती लेकिन वह किसी से नहीं कहती और अभिनेत्री तो ऐसी की किसी भूमिका को जीवंत कर दें परंतु कभी-कभी कमजोर पर वह कोने में अपने भाग्य विधाता से तनातनी भी करती थी क्यों बनाया लड़की अगर बनाया तो क्यों ना हक दिया आजादी का क्यों क्यों सुनू मैं सबका क्यों करूं मैं सबका मगर वह पत्थर से कर कर खुद पत्थर बन कर आ जाती एक बार फिर किरदार निभाने बनके अनजाने जैसे कुछ हुआ ही न हो कभी-कभी पिता के सिकुरे पेशानी को देखकर कहती क्यों ना हमें इजाजत दी कि जाऊं बाहर मैं कमाऊं दो रोटी इज्जत की क्यों लाज आती तोहे इज्जत की भूख से तो अच्छी है रोटी दो वक्त इज्जत की ना जवाब होता ना कोई उपाय होता उसके लाचार पिता के पास बस कहते एक दिन हाथ मिला करदूं और गंगा नहाऊ मगर आज कल हाथ पीला करना मतलब दो जिंदगी की कमाई कम परे किसी भले मानुष का दाम इतना जितना दाम हो जोहरि के पन्ने का कहीं मिले कम में तो उम्र हो उसका हरी जपने का मगर यही तो जिंदगी का इम्तिहान है बचाना ईमान है जीना सादगी में बढ़ाना सब का मान है मगर क्यों सिर्फ लड़की को ही मान सम्मान निभाना पड़ता है क्यों लड़की को ही सबका आत्म सम्मान बचाना पड़ता है
लेखक अंकित वत्स