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रियूनियन

31 जुलाई 2022

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"आज एक नई सुबह है, और इस नई सुबह की नई शुरुआत",खता- खत सिया अपने पुराने टाइपराइटर पर अपनी नई कहानी लिखे जा रही थी। महीने भर की कड़कती धूप के बाद दिल्ली में आज आखिरकार बारिश हुई थी। पूरा शहर उसी तरह तृप्त होता दिख रहा था जैसे किसी दर्द देते ज़ख़्म पे किसी ने बर्फ लगा दी हो, एक अलग सी धूलि हुई लग रही थी हर गली , हर चौराहा और अपने घर के बालकनी में बैठ के खूब मज़े से चाय की चुस्की भरते हुए कहानी लिखती जा रही थी सिया। कहते हैं न की बारिश और ठंढक भरी हवा बड़ी से बड़ी रचनात्मक रोड़े हटा फेंकती है, बस कुछ ऐसा ही हाल था यहाँ भी। ये सिलसिला चल ही रहा था की अचानक से सिया के फ़ोन में एक छोटी-सी आवाज़ हुई , जिसे की इस ज़माने में शायद एस. एम. एस. कहते है। जब खोल के देखा तो एक मेल था, और बड़े-बड़े अंग्रेजी के अक्षरों में लिखा था , " रीयूनियन"। दरअसल ये मेल सिया के पुराने स्कूल से आया था जिसे वो पांच साल पहले पीछे छोड आयी थी। " क्या हुआ? ऐसा क्या है जो पढ़कर इतना मुसकुरा रही हो ?" सिया की माँ ने टांग खींचते हुए पूछा, " माँ मेरे पुराने स्कूल से मेल आया है, बस वही पढ़ रही थी । उन्होंने मुझे रीयूनियन पार्टी में बुलाया है अगले हफ्ते, शायद सभी लोगों को बुलाया होगा। मैं अभी प्रिया से भी पूछती हूँ।" सिया ने खिलखिलाते हुए माँ को जवाब दिया। बुलावा अगले हफ्ते का था और लाज़िमी है की मेल बाकायदा सभी को गया था और शायद आने वाले भी सब ही थे या फिर शायद कुछ ना भी आते तो सिया को उनसे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता , फर्क पड़ता था तो बस अपनी एक पुरानी और सबसे करीबी सहेली प्रिया से जो आज तक उसके साथ ही थी। दोनों सहेलियों ने फ़ोन पर बातें की और अगले हफ्ते सीधा स्कूल में ही मिलने का मन बना लिया और साथ ही लग गयीं कपडे और सजने-सँवारने की बातें करने में, "आखिर इतने सालों बाद सबसे वापस मलेंगे, मालूम नहीं सब की प्रतिक्रिया कैसी होगी। मगर इस बात की ख़ुशी भी है की एक बार फिर उसी जगह साथ जाने का मौका मिलेगा जहाँ हमने इतने साल बिताए और इतनी यादें बनाई। " प्रिया ने भी इसी तरह बातों का काफिला आगे बढ़ा दिया और छेड़ दीं पुराने दिनों के क़िस्सों की तार , और बस यूँ ही शाम गुज़री और आने वाला हफ्ता भी पर फैलाये उड़ गया और आ गया रीयूनियन की पार्टी का दिन, जहाँ प्रिया और सिया दोनों ही ख़ुशी ख़ुशी सज-धज के गयीं थीं। हाथों में फूलों का गुलदस्ता थामे सिया ने अपने कदम प्रधानाचार्य के तरफ बढ़ाये और उनके हाथों में थमाते हुए उनके पैर छू लिए। प्रधानाचार्य ने अपनी गुफ्तुगू से अचानक से ध्यान हटा कर देखा तो वही सिया उनके सामने कड़ी थी जिसने कभी उनके विद्यालय का नाम खूब रौशन किया था। सिया हमेशा ही शांत स्वभाव की और काम लोगों से घुलने- मिलने वालों में से रही थी और यही कारण था की उसके बहुत ज़्यादा कुछ दोस्त कभी रहे ही नहीं थे, बस एक प्रिया ही थी उसके सुख- दुःख की साथी आज तक भी। प्रधानाचार्य ने सिया को देखते ही उसके सिर पर हाथ रखते हुए उसे आशीर्वाद से नवाज़ा और और उसका हाल चाल पूछते हुए उसी के साथ चलने लगे। " इतने दिनों बाद तुम सब को फिर यहाँ देख कर बहुत अच्छा लग रहा है, मानो की जैसे ये कल की ही बात हो जब तुमने पुरे शहर में सबसे ज़्यादा अंक हासिल कर के हमारा नाम उंचाईयों तक पहुंचा दिया था। " प्रधानाचार्य मुस्कुराते हुए बोले। " सर ! मुझे भी यकीन नहीं हो रहा की हम सब इतने आगे आ चुके हैं। स्कूल की यादें आज भी सावन में खिले गुलाब की तरह मेरी यादों में ताज़ा- तरीन है। " सिया ने भी अपने लड़कपन के दिनों को याद करते हुए जवाब दिया, और बस इसी प्रकार ये सम्मलेन यादगार रहा सभी के लिए और बातों ही बातों में दिन कब ढल भी गया मालुम ही नहीं पड़ा। जब सिया ने अपनी घडी की तरफ नज़र डाली तो शाम के चार बज चुके थे और घर जाने का भी वक़्त बस हो ही चुका था। सिया ने झट से प्रिया को फ़ोन मिलाया ये सोच कर की शायद वह अभी तक अंदर ही है और जो की सही भी था। प्रिया से दूसरी तरफ से सिया को खुद ही घर जाने को कहा और वह खुद ही अपने घर चली जाएगी, ऐसा कह कर फ़ोन काटा। सिया ने भी इतनी थकावट में ज़्यादा सवाल-जवाब करना ठीक नहीं समझा और वह अपने घर की ओर चल पड़ी। मगर चलते -चलते उसके मन में कुछ सवाल तो थे, की आखिर प्रिया इतना कैसे मशगूल हो गयी की उसके साथ घर तक भी नहीं आई जब की घर से स्कूल तक दोनों साथ ही आए थे, ऐसे में साथ वापस न आना कहीं न कहीं सिया के मन को खटका तो था , पर उसने इसे बस एक ज़ेहनी थकावट सोच कर नज़रअंदाज़ करना ही बेहतर समझा।  
अगले दिन सिया हमेशा की तरह सो कर उठी, भीनी- भीनी बारिश की आहट से उसकी सुबह और भी चहचहा रही थी। बीते हुए दिन की थकावट मानो जैसे प्रकृति के प्यार के स्पर्श से ही जाकर ख़त्म हुई हो। उसने हमेशा की तरह रसोई के तरफ अपने नंगे पाऊं बिना किसी आवाज़ के बढ़ाये और चाय की पतीली को चूल्हे पर धीमी आंच पर चढ़ाया | सिया के पिता कहा करते थे अक्सर की, चाय हमेशा तीन उबाल के बाद ही " चाय “ लगती है, वरना तो दिन गुज़ारने लायक नशा तो शराब में भी है। अपने पिता की इन्हीं बातों को याद कर मुस्कुराते हुए उसने चाय की पतीली को कपडे से पकड़ कर नीचे उतारा और शीशे के कप की तरफ हाथ बढ़ाया ही था की अचानक एक चीख से उसके हाथ से पतीली छूटी और बस जलते- जलते बची सिया, चीख उसकी माँ की थी। घबराई हुई सी सिया माँ को पुकारते हुए, " माँ, माँ !" चिल्लाते हुए घर के दरवाज़े तक पहुंची तो उसकी भी आँखें फटी की फटी रह गई। सिया का चेहरा ऐसा सफ़ेद पड़ा जैसे अगर उसे इस वक़्त काट भी दो तो शायद खून न बहे , सेहमी- सी और कांपती हुई खडी थी सिया देहलीज़ पर और माँ के आंसूं थम नहीं रहे थे और ढेर सारी भीड़ और पुलिस के एक गुट्ठ के सामने बदन पर कफ़न ओढे पड़ी थी प्रिया की लाश। बारिश की बूँदें प्रिया के चेहरे को और बेजान और सफ़ेद करती जा रही थी। सिया का हाल सदमे से ही इतना नाज़ुक हो चूका था की उसके गले से आवाज़ भी जैसे पूछ- पूछ कर निकल रही हो और प्रिया के माँ- बाप इस तरह बैठे हुए थे जैसे कोई भिखारी अपना सब कुछ खोने के बाद हताश हो कर बैठा हो, पिताजी को तो कमज़ोरी और तनाव के कारण बेहोशी के चक्कर भी आ चुके थे। इतने में ही भीड़ में से किसी ने पुलिस से पूछा, " आखिर ये सब हुआ कैसे ? कल ही तो देखा था बिटिया को हमने। " पुलिस ने संगीन आवाज़ में कहा, " इनका कल शाम ही क़त्ल हुआ है। हम आप सबका दुःख समझ सकते हैं लेकिन अगर आप सभी पुलिस की कार्रवाई में मदद करेंगे तो हम सभी के लिए बेहतर होगा और प्रिया को इन्साफ भी जल्द मिलेगा। "
जब सिया ने अपना होश संभाला तो वह पुलिस इंस्पेक्टर ताम्बे के सामने बैठी थी। ताम्बे ने हल्के से पानी का गिलास मेज़ पर सिया की तरफ सरकाते हुए अपना पहला सवाल दागा , " तो देखा जाए तो सिया जी आप वो आखिरी शख्स हैं जिन्होंने प्रिया को आखिरी बार ज़िंदा देखा था? " ताम्बे के इस सवाल का जवाब सिया ने बस सर हिला कर हाँ में दिया। "कोई आपसी रंजिश या दुश्मनी थी आप दोनों के बीच ? मतलब कोई कहा- सुनी हुई हो आपकी प्रिया से या फिर कोई मसला रहा हो ?" इस सवाल पर सिया के चेहरे के भाव अचानक से बदल गए और ग़ुस्से में तिलमिलाती सिया इंस्पेक्टर पर बरस पड़ी ," एक तो मेरी सबसे करीबी , सबसे प्यारी दोस्त का क़त्ल हो चुका है, और कातिल को ढूंढने की जगह आप यहाँ बैठे मुझ पर ही शक कर रहे हैं ? प्रिया और मैं बहुत अच्छे दोस्त थे , आज से ही नहीं , सालों से, भला हमारे बीच ऐसी क्या बात होगी जो मुझे आप उसका खूनी करार कर रहे हैं ?" इस पर इंस्पेक्टर ताम्बे ने मुस्कुराते हुए चाय की एक चुस्की ली और कहा ," मैडम ! मैंने तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं की हमें आप पर शक है, ये तो आपने खुद ही अभी- अभी अपने जुबां से कहा है। हम बस अपना काम कर रहे हैं और इसलिए पूछ- ताछ करनी ज़रूरी है। आप भावनाओं में न बाहें और होश में सोच-समझ कर जवाब दें तो बेहतर होगा। " इंस्पेक्टर का लापरवाह सा बर्ताव इतने कड़क अंदाज़ में बदलते देख सिया ने भी अपने ग़ुस्से को दबा दिया। " तो आप दोनों के बीच आखिरी बात कब हुई थी ?" ताम्बे ने अगला सवाल पुछा। " यहीं कहीं कल शाम के चार बजे के आस- पास जब मैं पार्टी से वापस घर के लिए निकल रही थी। मैंने प्रिया से ये पूछने के लिए फ़ोन किया की वह मेरे साथ घर आ रही है या नहीं। " ताम्बे ने झट से अगला सवाल सामने रख दिया ," अच्छा तो आप दोनों साथ ही घर आये थे रीयूनियन पार्टी से ?", सिया ने कुछ शिकन के साथ जवाब दिया ," नहीं ! उसने कहा था की उसे आने में थोड़ा और वक़्त लगेगा इसलिए मैं अकेली ही घर चली जाऊँ। “
"मगर आप दोनो तो साथ ही गयीं थी और जैसा आपने बताया आपके ज़्यादा दोस्त नहीं रहे तो ऐसे में प्रिया आपके साथ घर वापस क्यों नहीं आई आखिर ?" 
" इंस्पेक्टर दोस्त मेरे काम रहे हैं , प्रिया के नहीं। उसके मेरे अलावा भी कई दोस्त रहे थे हमेशा से ही इसलिए ये बात खटकने के बावजूद मैंने इस पर इतना सोच- विचार नहीं किया था। " 
" हम्म... चलिए ठीक है। हमे और कुछ जानकारी चाहिए होगी तो आपसे मुलाकात करेंगे सिया जी। " 
इतना बोलते हुए इंस्पेक्टर ने अपनी वर्दी की टोपी सर पर डाली और अपने साथियों के साथ दरवाज़े की ओर चलता बना। सिया और उसकी माँ ने भी हाथ जोड़ते हुए उन्हें विदा किया। इंस्पेक्टर गिरती हुई बारिश की आवाज़ के साथ साथ अपने जूतों की टक- टक करता हुआ घर से बहार निकला। तभी एक साथी पुलिस वाले ने पूछा, " सर ! आपने ऐसे ही छोड दिया इन्हें ? मुझे तो लगा था की सारे सबूत देखने के बाद आप सीधा गिरफ्तार करेंगे !" इस पर हल्की सी कुटिल मुस्कान देते हुए ताम्बे बोला , " पाटिल ! शिकार करने का मज़ा तब दो-गुना हो जाता है जब शिकार को आपने जाल का पता ना हो। जाल ऐसा हो , जो दिखे ना। नज़र रखो इस सिया पर, मुझे यकीन है इसके साथ कोई और ज़रूर शामिल है इसमें। " इतना कह कर इंस्पेक्टर और उसके साथी जीप में बैठ पुलिस का भोंपू बजाते हुए चलते बने। मगर अब शक के घेरे में कड़ी थी सिया , ऐसा घेरा जो उसे इंस्पेक्टर के हिसाब से शायद दिखाई भी नहीं दे रहा था। आखिर ऐसा कोन- सा सबूत था जो पुलिस के हाथ लगा था ? और कौन था सिया का साथी ? और इन सब से बड़ा सवाल , आखिर क्या थी क़त्ल की वजह ? कहते हैं न , क़त्ल तब तक साबित नहीं हो सकता जब तक उसका कारण न मिले। इन सारे सवालों से जल्द ही घिरने वाली थी सिया जिसे शायद अपने दोस्त को खोने का शोक मानाने का भी मौका नहीं मिले। ग़म के आंसूं सूखने से पहले ही शायद खौफ सिया के आँखों में घर बनाने का इंतज़ार कर रहा है और दस्तक देने ही वाला है उसकी चौखट पर।   
अकस्मात ही सिया के घर की घंटी एक बार फिर बजती है। पहले से ही घबराई हुई सिया धीरे से दरवाज़ा थोड़ा सा ही खोलते हुए झांक कर देखती है की आखिर अब कौन आया होगा। सामने खड़ा था प्रतीक उसके स्कूल के दिनों का सहपाठी। प्रतीक, प्रिया और सिया सब एक साथ ही पढ़ा करते थे स्कूल के दिनों में और फिर आज जब इतना बड़ा हादसा हुआ तो सिया की खोज- खबर लेने तो प्रतीक को आना ही था। " कैसी हो ?" प्रतीक ने दबी आवाज़ में पूछा , " मैं कैसी ही रहूंगी। तुम्हे यहाँ नहीं आना चाहिए था , क्यों बेवजह मेरी मुश्किलें बढ़ाना चाहते हो तुम ?" सिया ने चिड़चिड़ाते हुए जवाब दिया। ये कड़वा जवाब सुन ने की जैसे प्रतीक की आदत सी थी, दरअसल प्रतीक सिया को पुराने दिनों से ही बहुत पसंद करता था मगर उसने जब अपने प्यार का इज़हार सिया से किया तो उसे उसके कटाक्ष शब्दों का सामना करना पड़ा जिसमे की गलती देखा जाए तो न सिया की थी और न प्रतीक की , दोनों ही नासमझ हुआ करते थे और फिर उम्र ही क्या थी दोनों की। सोलह- सत्रह साल में क्या ही मालुम होता है नौजवानो को, और फिर एक लाज़मी बात यह भी है की, वह प्यार ही क्या जिसमे ठोकर न मिले , बसकुच ऐसा ही हाल था यहाँ भी। सिया ने भले ही खरी-खोटी सुना दी हो सालों पहले मगर प्रतीक के ज़हन में तो आज भी सिया ही बसा करती है। इन बातों को दिमाग में न रखते हुए एक बार फिर सिया ने अपना सारा ग़ुस्सा प्रतीक पर निकाल डाला और प्रतीक बस उसके चेहरे के दर्द को भांपते हुए हाथों में सफ़ेद गुलाब लिए तब तक किसी मूर्ती की तरह दरवाज़े पर खड़ा रहा जब तक सिया ने दरवाज़ा धड़ाक से आवाज़ करते हुए बंद नहीं कर लिया। अतः निराशा और गुलाब दोनों अपने साथ ले कर लौट गया प्रतीक। प्रतीक का यहाँ इस तरह सिया से मिलना शायद उसकी सबसे बड़ी गलती साबित होने वाली थी। सिया के घर पर नज़र गड़ाए बैठा पाटिल झट से अपना प्लास्टिक की थैली में लिपटा फ़ोन निकालता है और एस एम एस लिखता है , " साथी मिल गया है साहिब !" और एस एम एस पढ़ने वाले के नाम की खाली जगह पर नाम टाइप करता है , "इंस्पेक्टर ताम्बे !"
इंस्पेक्टर ताम्बे ने तो जैसे सिया और उसके साथ जो की उनके हिसाब से प्रतीक था , दोनों की जन्म- कुंडली निकाल ही ली थी। सबूत के नाम पर ताम्बे के हाथ सिया के नाम का एक लाकेट लगा था जिस पर सिया का नाम साफ़ साफ़ तो नहीं लिखा था पर दो अंग्रेजी के अक्षर ज़रूर थे ,"पी और एस "जिसका साफ़ मतलब निकलता प्रिया और सिया मगर दोनों में से ये लाकेट किस का था ये पता लगाना भी ज़्यादा मुश्किल नहीं रहा ताम्बे के लिए। रीयूनियन की पार्टी की तसवीरें जब इंस्पेक्टर ने देखीं थी तो उसमे साफ़ साफ़ सिया के गले में यह लाकेट नज़र आ रहा था जिस से सीधा सीधा शक सिया पे ही गया। मगर कहानी में अभी भी एक बहुत ज़रूरी चीज़ बची थी जिसका कोई जवाब नहीं मिल रहा था , क़त्ल का कारण जो की सिर्फ कातिल ही बता सकता था, क्यूंकि मारने में जो हथियार इस्तेमाल हुआ था उस पर किसी के हाथ के कोई निशाँ मौजूद नहीं थे इसलिये सिर्फ ये लाकेट ही था जो इंस्पेक्टर को कातिल तक पहुंचा सकता था और जिसमे की ताम्बे कामियाब भी हुआ। प्रतीक को शक के घेरे में लिया भी गया मगर उसके खिलाफ कोई ऐसा सबूत मौजूद नहीं था जिस से उसे दोषी करार दिया जा सके इसलिए ताम्बे ने सोचा की शायद वो जाँच पड़ताल किसी गलत दिशा में तो नहीं कर रहा क्यूंकि जब सबूत ही हाथ नहीं लगा, कोई वजह ही हाथ नहीं आयी तो दोषी किसे कहा जाये ? प्रतीक कभी भी किसी किस्म के झगडे में पड़ने वालों में से नहीं रहा था और प्रिया से उसकी कोई रंजिश भी नहीं रही थी आखिरकार हार कर ताम्बे ने सिया को शक और सबूत दोनों के आधार पर गिरफ्तार किया और उससे पुलिस की भाषा में बात- चीत करनी शुरू की।  
" मैंने कुछ नहीं किया है , आप सभी को कोई गलत फेहमी हो गयी है , एक बार फिर से पता लगाइये। " सिया रोते- गिड़गिड़ाते हुए बोल रही थी। एक अँधेरे कमरे में हथकड़ी पहने लकड़ी की कुर्सी पर बैठे बेतहाशा आक्रोश का प्रदर्शन देख रही थी सिया। अब तो गले से आवाज़ गुहार लगाने के लिए भी निकल नहीं पा रही थी और आधी बंद होती हताश आँखों के सामने था बस इंस्पेक्टर का चेहरा और एक हल्की सी जलती हुई बल्ब की रोशिनी।  
"क्यों मारा तुमने प्रिया को ? क्या वजह थी ? देखो शराफत से बता दो , तुम्हारे लिए ही बेहतर होगा। " इंस्पेक्टर ने चिल्लाते हुए ग़ुस्से में कहा। 
"मैं कुछ नहीं जानती, आप ये साड़ी क्या बातें कर रहे हैं। " कुछ हिचकिचाते हुए धीमे से सिया का जवाब निकला। तभी एक महिला थानेदार ने सिया के नाज़ुक से गालों पर कान सुन्न कर देने वाला एक तमाचा मारा और धमकाते हुए कहा, "सीधा- सीधा बताती है या.... " महिला ने एक और थप्पड़ के लिए हाथ उठाते हुए डराया।  
"बताती हूँ , बताती हूँ , मैं सब बता रही हूँ " सिया डर से कांपते हुए बोली।   
महिला थानेदार ने ताम्बे को अकड़ते हुए नज़रें दिखाई और फिर सिया ने बोलना शुरू किया।  
"मैं और प्रिया दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे , मगर हमारा प्यार बहेनो या दोस्तों वाला नहीं था। हम एक समलैंगिक रिश्ते में थे। पर ये सब हमेशा से ऐसा नहीं हुआ करता था। हम भी स्कूल के वक़्त वैसे ही दोस्त थे जैसे की कोई आम लडकियां होती हैं। इन बातों का पता हमे दो साल पहले लगा जब हमे एहसास हुआ की हम एक दूसरे से किस तरीके का प्यार करते हैं। हम दोनों ही समाज और परिवार के तानो और बातों से डर गए थे क्यूंकि सच्चाई जान ने के बाद कोई हमे साथ रहने तो क्या चैन से जीने भी नहीं देता। ये समाज कभी नहीं समझ पाएगा की प्यार करने के लिए इस प्रकृति ने कोई कानून नहीं बनाया , ये तो इंसान हैं जिन्होंने अपने अपने तराज़ू बना रखे हैं, सही- गलत को नापने के लिए। हम दोनों साथ बहुत खुश थे और किसी को हमारे बारे में कुछ खबर भी नहीं लगी थी। हम भी किसी आम लड़के- लड़की की ही तरह हस्ते थे , झगड़ते थे , रूठना- मनाना करते थे। उस दिन दरअसल मेरी प्रिया से छोटी सी झड़प हो गई थी , मुझे उसका यूँ बेपरवाह हो कर दूसरे लड़कों इ साथ घूमना पसंद नहीं आता था। उस दिन भी यही हुआ था उसने कहा था की वह अपने दूसरे दोस्तों के साथ घूमने जाएगी पार्टी के बाद और इसलिए मेरे साथ घर वापस नहीं चलेगी। हमारी थोड़ी बहस हुई और फिर मैंने भी ग़ुस्से में आकर फ़ोन रख दिया। मगर मुझे क्या मालुम था की वो मेरी उस से आखिरी बात बन जाएगी " सिया ने फूट- फूट का रोते हुए पूरी कहानी सुनाई।“ 
पूरी बात सुनकर इंस्पेक्टर और वहां खड़े सभी थानेदारों के पैरों टेल ज़मीन खिसक गयी थी। मगर तभी ताम्बे ने फाटक से अपना विचार सामने रख दिया। 
" अच्छा.... तो इसलिए तुमने किसी पागल आशिक़ की तरह जलन में आकर उसका खून कर दिया। " 
सिया फिर से रोई और हाथ जोड़ते हुए विनतियाँ करने लगी , " मेरा यकीन करिऐ , मैंने आपको पूरा सच बता दिया है। इन सब में मेरी कोई गलती नहीं है। मैंने उस से हमेशा बस प्यार किया था , मैं उसे चोट पहुँचाने के बारे में सोच भी नहीं सकती। मुझे जाने दीजिये , मैंने कुछ नहीं किया। " सिया बिलख- बिलख कर रोई मगर तब तक इंस्पेक्टर अपना मन और कानूनी कागज़ात दोनों बना चूका था और सीधा कमरे से बाहर निकल गया। जाते जाते पाटिल रुका और मज़ाक सा उड़ाते हुए उसने कहा ," अब सलाखों के पीछे निभाते रहना अपने मैना- मैना का प्यार। " और हाथ में कुछ कागज़ात थामे आगे बढ़ गया। सिया की पूरी ज़िंदगी अब बस अंधेरों से घिर गयी थी और आज एक बार फिर उसके सामने समाज और क़ानून का वह बेरहम चेहरा आ गया था जिस से वह और प्रिया हमेशा से डरते आऐ थे , की जिस दिन उनका ये सच बाहर आएगा वो दिन कहीं उनकी ज़िन्दगी में कयामत न ले आए , और आखिर-कार आज क़यामत आ ही गई बस फर्क ये था की सिया की सोच में कम-से-काम प्रिया उसके साथ थी पर आज असल में उसने प्रिया को भी खो दिया था। दूर दूर तक जीने का न कोई सहारा बचा था न उम्मीद, बचा था तो बस दिल में पछतावा, यादें और प्रिया को आखीरी दम तक करने वाला प्यार। घुटनों में अपना चेहरा छुपाऐ उस अँधेरे कमरे में कहीं खो गई सिया और प्रिया की कहानी। अगले ही दिन खबर निकल आई की किस तरह सिया ने अपने जलनशील भावनाओं में आकर प्रिया का खून किया। इस खबर के साथ ही खुल गया था प्रिया और सिया के रिश्ते का राज़ समाज और दोनों परिवारों के सामने। कोई सिया के नाम पर उसकी माँ से शर्मनाक सवालात करता तो कोई स्वर्गवासी प्रिया पर ही लांछन लगाता पर यह सिलसिला ठीक उसी तरह बहता जा रहा था जैसे किसी बाँध के टूटने पर पानी का बहाव।  
दूसरी तरफ इंस्पेक्टर ताम्बे बढे जा रहे थे अपने जीप पर सवार हुए अपने घर की ओर। चालक सीट के बगल में बैठे हुए उन्होंने गाडी का कांच आहिस्ता- आहिस्ता नीचे किया और जैसे बरसात के बाद चलती ठंडी हवा टिकटिकी लगाए अंदर आने का ही इंतज़ार कर रही हो। सांऐ-सांऐ करते हुए हवा के झोंके ताम्बे को छूते हुए पीछे छूट ते जा रहे थे। ताम्बे ने हवा को महसूस करने के लिए अपनी आँखें बंद कर ली और अपनी कोहनी को खिड़की के सहारे टिका कर हल्के से अपना सर बाहर निकाला। एक सुकून-सा था आज ताम्बे के चेहरे पर , जैसा सुकून किसी जंग के ख़तम होने के बाद किसी योद्धा के सूरत पर होता है , ठीक वैसा ही सुकून। उसी वक़्त हवाओं की कहानिओं को चीरते हुए एक आवाज़ पड़ती है ताम्बे के कानों में , उसके फ़ोन की अवाज़। उठा कर देखता है तो कमिश्नर का फ़ोन आ रहा होता है , ताम्बे सोचता है की शायद उसे शाबाशी देने के लिए साहिब ने फ़ोन किया होगा , आखिर इतने काम वक़्त में ताम्बे ने मुजरिम को सलाखों के पीछे डाल दिया है , मगर उसका भ्रम टूट ता है फ़ोन उठानेके बाद।  
" जय हिन्द साहिब ! " ताम्बे फ़ोन उठाते ही फटाक से बोलता है। 
" हां, हाँ, जय हिन्द ! ताम्बे ये मैं क्या सुन रहा हूँ की तुमने बिना पर्याप्त सबूत के इस लड़की को जेल में डाल दिया है ?" 
" अरे नहीं, नहीं साहिब , ये सब तो इन अखबार वालों के पुराने तरीके हैं हम पुलिस वालों को बदनाम करने के,जैसे कोई संगीन मामला होता नहीं है की ये अपना राशन- पानी लेकर चढ़ आते हैं हमारे ऊपर और बना देते हैं कोई 'ब्रेकिंग- नियुज़' " 
" वो सब तो ठीक है पर तुम्हे पर्याप्त सबूत तो मिले हैं न ? कोई गलती तो नहीं हुई है ? देखो हर बार तुम्हे नहीं बचा पाउँगा मैं। "
"साहिब आप बेफिक्र रहे ऐसा कुछ नहीं है, और फिर सबूत के तौर पर वो लॉकेट मिला तो है न हमे और वो सिया का ही है हमने ये भी पता लगा लिया है। तो फिर डरना कैसा ?"  
" हम्म....ठीक है। भरोसा कर रहा हूँ तुम पर इस बार निराश मत करना। " 
"बिलकुल नहीं साहिब ! जय हिन्द। " 
ताम्बे ने फ़ोन काटा और मुस्कुराते हुए सोचा की इस बार कोई गड़बड़ नहीं होगी, आखिर पूरी पड़ताल कर ली है मैंने। दरअसल ताम्बे ने इस से पिछले कुछ मामलों में बिना जांच किये हुए ही लोगों को मुजरिम करार दे दिया था , जिसके लिए जांच ताम्बे पर ही बैठ गयी थी। उस वक़्त कमिश्नर ने मामला संभाल लिया था मगर कहते हैं न की, सूती का दुपट्टा और इज़्ज़त का रुमाल उड़ते ज़्यादा समय नहीं लगता। बस ताम्बे भी कुछ ऐसे ही हालातों से गुज़र कर आया था और इस बार पूरी ईमानदारी से वापस काम करना चाह रहा था। इन्ही सब ख्यालों में उलझा हुआ था की फ़ोन एक बार फिर बजा और इस बार फ़ोन की दूसरी तरफ पाटिल था। फोन उठाते ही पाटिल बोला , " साहिब ! शायद हमसे कोई जल्दबाज़ी हो गई है। " इतना सुनते ही ताम्बे के चेहरे का सुकून शिकन में तब्दील हो गया। 
" साफ़- साफ़ बोलो पाटिल , पहेलियाँ मत बुझाओ। "
"प्रतीक दिल्ली से बाहर निकल चूका है आज सुबह की ही ट्रैन से। "
इतनी ही बात करके फ़ोन कट गया। ताम्बे जिस कहानी को अब तक एक तरफ से देख रहा था अब उसे ये कहानी बिलकुल उलटी लगने लगी थी। या फिर यूँ कहो की कहानी वैसी कभी थी ही नहीं जैसी ताम्बे ने देखि थी। अचानक से ताम्बे ने साड़ी कड़ियाँ जोड़नी शुरू कर दी थी की आखिर जो कातिल क़त्ल के बाद चाक़ू पर से अपने उँगलियों के निशाँ मिटा सकता था उसने इतने लापरवाही से वो लॉकेट वहां क्यों छोड़ा ? और फिर किसी को ये भी कैसे मालुम था सिया के पास भी वही लॉकेट पहले से ही मौजूद है और ठीक वैसा ही लॉकेट शायद बनवाया गया? और फिर सबसे बड़ी बात जो ताम्बे के दिमाग में खटकी , जिसने अकस्मात ही बाहर की ठंडी बहती हवा को आग के भभके में बदल दिया , उस लॉकेट पर लिखे दो अक्षर ," पी और एस " , ताम्बे के हिसाब से इसका मतलब प्रिया और सिया था मगर अब उसकी सोच ये इशारा कर रही थी की क्या ये, " पी और एस " प्रतीक और सिया भी तो हो सकता था ? ताम्बे को अपनी गलती समझ आ गई थी , प्रतीक को खुला छोडने की ग़लती। कहीं न कहीं कुछ तो था जो कहानी को और उलझा रहा था, किसी पहेली के खोये हुए एक हिस्से की तरह। बिना इधर-उधर और वक़्त बर्बाद किये हुए सीधा एक तलाशी करने का आदेश दिया पाटिल को , न जाने क्या आया था उसे दिमाग में, शायद अपनी वर्दी पे लगा हुआ दाग मिटाने का एक मौका यही था ताम्बे के लिए जिसे वो खोना नहीं चाहता था। पाटिल ने ताम्बे पहले तो समझाने की कोशिश की , की यह सब इतना जल्दी करना शायद और गलत हो और मुमकिन भी नहीं ऐसे तो हमारी जांच पर और सवाल उठ सकते हैं, मगर ताम्बे ने कड़कते हुए पाटिल को उसके दर्जे का एहसास करवाते हुए बोला , " पाटिल , इंस्पेक्टर फिलहाल मैं हु , तुम नहीं।" इसके आगे न पाटिल को कोई जवाब सूझा और था ताम्बे को कुछ कहने की ज़रुरत पड़ी। 
रात तक तलाशी का कारनामा भी पसर चूका था और प्रतीक के घर के कमरे का मंज़र देखने के काबिल था। हर दीवार पर सिर्फ एक ही शख्स की तस्वीर लगी थी और हर तरफ एक ही नाम लिखा था ," सिया"। यह देखने के बाद ताम्बे के चेहरे पर १२ बज गए थे। उसे यह सोच कर ही सर दर्द उठ चूका था की जब उसकी एक और गलती पुलिस विभाग के सामने आएगी तो उसका इस बार क्या हाल होने वाला है। कुछ वक़्त के लिए ताम्बे बगल में दीवार से लगी हुई एक कुर्सी पर सर पकड़ कर आँखें मूँद कर बैठ गया और सभी हवलदार बस खड़े रहे। तभी ताम्बे के आँखों के सामने के पानी का गिलास थामे एक हाथ आगे बढ़ा , " पानी लीजिये सर। " हाथ पाटिल का था , वह समझ पा रहा था इस वक़्त ताम्बे की हालत मगर बस कुछ ज़्यादा बोल नहीं पा रहा था। ताम्बे ने आत्मग्लानि से भरी नज़रें नीचे करते हुए पानी की तरफ हाथ बढ़ाया और एक घूँट पी कर गिलास साथ में राखी मेज़ पर रख दिया। मगर ताम्बे ने भी अभी तक हार नहीं मानी थी। उसे पूरा यकीन था की चूंकि पुलिस ने सिया को कातिल ठहरा दिया है , जिसके आधार पर प्रतीक इस वक़्त बेफिक्र घूम रहा होगा और उसे इन बातों का कोई आभास भी नहीं है की वो अभी भी शक के घेरे से बाहर नहीं निकला है। इस तलाशी के बाद पाटिल को सिया से प्रतीक के बारे में बात चीत करने के लिए भेजा गया। साड़ी उमीदें खो बैठी सिया को रोशिनी की एक किरण मिली, उसने प्रतीक से जुडी कोई भी बात बताने में कोई संकोच नहीं किया और अब जा कर पहेली पूरी हो चुकी थी। असल में प्रतीक उन्ही लड़कों में से था जिन्हें किसी लड़की की " ना" बर्दाश्त नहीं हुई थी मगर उस पर सिया के नाम का जुनून तब सवार हुआ जब उसे सिया और प्रिया के रिश्ते के बार में पता चला था। वह स्वीकार नहीं कर पा रहा था की सिया किसी और के साथ उसका दिल तोड़ कर और उसके भावनाओं का मज़ाक बना कर खुश रह रही थी। पिछले पांच सालों से ये जूनून ही था जो प्रतीक को इस हद्द तक पागल कर चूका था की रीयूनियन पार्टी के दिन उसने फिर से दोनों को साथ देख मौके का पूरा पूरा फायदा उठाया। अगले चौबीस घंटों में ही प्रतीक अपने गाँव से गिरफ्तार होकर दिल्ली आपस आ चूका था और उसीके साथ सिया पर खूनी होने का दावा भी ख़तम हो चूका था और वो लॉकेट वो कभी भी सिया के लॉकेट को देख कर बनवाया नहीं गया था बल्कि वह लॉकेट सिया का ही था जो की प्रिया ने उसे तोफे में उसके जन्मदिन पर दिया था। उस लॉकेट को देखते ही सिया के कानों में प्रिया की आवाज़ गूँज उठी," हम दोनों अपने नाम के अक्षरों की तरह ही हमेशा साथ रहेंगे। देख लेना तुम ।" सिया पूरी तरह से सब हार चुकी थी अगर कुछ बची थी तो बस उसकी सांसें। प्रतीक ने अपना जुर्म कबूल किया क्यूंकि उसे एहसास हो गया था की अब वो सिया को हमेशा के लिए खो चूका था ,या फिर शायद सिया तो कभी उसकी थी ही नहीं और चाह कर भी नहीं हो सकती थी। प्रतीक ने आखिरी बार टूटी हुई सिया को देखा और फिर हथकड़ियां पेहेन ने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। आत्मग्लानि भले ही सिया को देख कर आई हो पर कहीं न कहीं वह प्रतीक को भी अंदर से अब खोखला कर चुकी थी।
आखिरकार हर जगह ये खबर फिर से फैली और पुलिस प्रशासन पर सवाल भी उठे पर ताम्बे और कमिश्नर ने बड़ी चालाकी से बातें सँभालते हुए बोल दिया," सिया को गिरफ्तार करना भी हमारे योजना का ही एक भाग था जिस से की प्रतीक को हम आसानी से पकड़ सकें और सबूत इकट्ठा कर सकें। " 
" मगर आप सीधा- सीधा भी तो प्रतीक को गिरफ्तार करके मामला ख़त्म कर सकते थे। फिर ये ही क्यों ?" एक पत्रकार ने तर्क करते हुए पुछा। 
" वो क्या है न मैडम , शिकार करने का मज़ा तब आता है जब शिकार को जाल दिखाई न दे। जैसे की आपको भी नहीं दिखा। " इतना कहते हुए ताम्बे ने व्यंग्यपूर्ण मुस्कान पाटिल को दी और अपना चश्मा पेहेनते हुए पत्रकारों की भीड़ को चीरता हुआ आगे निकल गया।
कुछ छह महीने बाद आज सिया फिर अपनी बालकनी में बैठी थी अपना वही टाइपराइटर , गरम चाय और एक कहानी लेकर। सिया ने कागज़ को समायोजित करते हुए फिर से अपनी उंगलियां एक बार फिर खटा- खट टाइपराइटर पर चलाते हुए कहानी का शीर्षक डाला , " रीयूनियन"।         

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रियूनियन
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यह कहानी है दो दोस्तों की जो अपने अतीत के सामने एक बार फिर आकर खड़े हैं और अपनी भावनाओं के वश मे कुछ इस कदर हैं की जिसका अंजाम केवल अंत था।

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