ग़ज़ल
माना तुम्हारे प्यार के हक़दार हम नहीं ।
कैसे कहें वफ़ा में गिरफ़्तार हम नहीं ।
कश्ती से उतरिये नहीं जी बात मानिए,
दरिया के हैं किनारे कि मंझधार हम नहीं।
दिल में बनाया घर है कुसूर इतना ही हुआ,
हैं इश्क़ की नज़र में गुनहगार हम नहीं।
तेरे शह्र को छोड़कर ख़ुद जा रहे हैं हम ,
हैं अब किसी ख़ुशी के तलबगार हम नहीं।
मुमकिन नहीं कि टूट के दिल बद्दुआ न दे,
इंसान एक आम हैं अवतार हम नहीं ।
…….. सतीश मापतपुरी