धारावाहिक कहानी
रेड लाइट
…. सतीश मापतपुरी
भाग - एक
रेड लाइट ….. वाहन चलाते समय सड़क पर रुकने का संकेत ….. वाहन पर लगा हो तो अति विशिष्ट व्यक्ति का प्रबोधन ….. अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर में हो तो ऑपरेशन जारी रहने की सूचना पर इन सबके अतिरिक्त एक रेड लाइट एरिया भी होता है , जिसे समाज अच्छी नज़रों से नही देखता । एक ज़माने में इस एरिया को तवायफों के घुँघुरु गुलजार रखते थे …. जहाँ शहर के जाने - माने रईस रात की कालिमा को अपनी गरिमामयी उपस्थिति से रंगीन बना दिया करते थे । रईसों के बीच शहर की नामचीन तवायफों की अच्छी खासी चर्चा रहा करती थी … जिस कोठे पर जितने बड़े बड़े रईसों का आना - जाना रहता था … उस कोठे का उतनी ही बड़ी इज़्ज़त कोठी वालों के बीच होती थी … शादी - ब्याह हो या छठी छिल्ला … इन्हें बुलाना लोग शान की बात समझते थे … समय एक सा कब रहा है … ठहरना तो इसकी फितरत में है ही नहीं ।
समय बदला …. ज़माना बदल गया , न रईस रहे न नवाब और न रही उमराव जान … समय ने इन कोठों को रेड लाइट एरिया का नाम दे दिया । यह कहानी इसी रेड लाइट एरिया की पैदाइश है ।जमुना बाई खानदानी तवायफ थीं , कहा जाता है कि इनकी नानी गुलाब जान का हुक्का लखनऊ के हर बड़े नवाब के लबों को चूम चुका था । निशा जमुना बाई की इकलौती सन्तान थी …. विशेष अवसर पर या पंच सितारा होटल में उसके डांस के प्रोग्राम आयोजित होते थे … जिसमें बड़ी बड़ी हस्तियाँ शिरकत किया करतीं थीं । इसके बावजूद वह शहर के उस डिग्री कॉलेज से स्नातक कर रही थी , जिसमें बड़े बड़े पदाधिकारी , मंत्री और बिजनेसमैन के बच्चे पढ़ते थे । बदले वक़्त और हालात में भी जमुना बाई की पहचान समाज के ऊँचे लोगों से थी ।
निशा बला की खूबसूरत तो थी ही , स्वाभिमानी और गम्भीर भी थी ।
जमुना बाई की बेटी होने के कारण कभी वह हीन भावना से ग्रसित नहीं हुई ।
कई बड़े ऑफिसर और लीडर की बेटी उसकी अच्छी सहेली थीं , फिर भी कॉलेज की अधिकांश लड़कियाँ उसे रेड लाइट कहकर ही बुलाती थीं … एक तरह से रेड लाइट उसका उपनाम बन गया था , कई बार रेड लाइट सुनकर वह रुक जाया करती थी । एक बार एक लड़की को रेड लाइट कहने पर शहर के मेयर की लड़की ने काफी झाड़ लगाई थी तो निशा ने ही यह कहकर बीच बचाव किया था कि छोड़ो यार … अपना नैटिव प्लेस यही तो है । निशा अपने जीवन से पूरी तरह खुश थी । एक दिन वह कॉलेज से घर लौटी तो माँ के कमरे से किसी पुरुष की आवाज सुनकर उसके कदम थम से गये …... यह कौन हो सकता है ? ….. जानने के लिए वह आगे बढ़ना ही चाहती थी कि उस अनदेखे व्यक्ति की आवाज़ ने फिर से उसके कदम थाम लिए ………
‘ कह देने से परायी औलाद अपनी नहीं हो जाती जमुना बाई ।’ ….. निशा के माथे पर बल पड़ गये ….. यह आदमी माँ से क्या कह रहा है ?......... यह कौन हो सकता है ? …… क्या मैंने इसे पहले कभी देखा है ? …….. जो भी हो माँ इस आदमी को जानती है , अच्छी तरह जानती है ……. तभी तो वह माँ को नाम से पुकार रहा है …. निशा के जेहन में कई सवाल उभर उठे । जमुना बाई और उस व्यक्ति की बातचीत अब और स्पष्ट सुनाई पड़ने लगी थी क्योंकि निशा दरवाजे के ठीक बगल में आकर खड़ी हो गई थी ।
जमुना बाई अपनी माली हालत का रोना रो रही थी … ‘ बात समझो संतराम , अब राजे राजवाड़े नहीं रह गये जो हर शाम दौलत की बारिश हो रही है , मेरी हालत ऐसी नहीं है कि तेरी बेटी की शादी के लिए तीन लाख निकाल सकूँ ।’
‘ राजे राजवाड़े भले नहीं रहे जमुना बाई पर आज भी कोठी की दौलत कोठे तक आ ही रही है ….. याद करो जमुना बाई , मैने इन्ही हाथो से कितनी कलियों को उनके चमन से जुदा कर तुम्हारा गुलशन आबाद किया है ….. मत भूलो कि आज हाई सोसाइटी में तुम्हारा उठना - बैठना जिस निशा की वजह से है उसे सात साल की उम्र में मैने ही तुम्हारी गोद में डाला था ।’
यह सुनते जमुना बाई शेरनी की तरह दहाड़ उठी ….. ‘ चुप मुए , दीवार के भी कान होते हैं ।’ …. फिक से हँस पड़ा संतराम …. ‘ परछाई पर पैर पड़ा तो ये हाल ? …. सोचो यदि निशा जान गयी …..।’
‘ तो तुम मुझे ब्लैक मेल कर रहे हो ? ‘
‘ नहीं जमुना बाई , अंग्रेजी तो मुझे आती नहीं …. बेटी की शादी के लिए जेवर की मदद तुम नहीं करोगी तो कौन करेगा ?’
……. निशा का चेहरा बर्फ की तरह सफेद पड़ चुका था …. पाँव बेजान हो चुके थे …. किसी तरह खुद को घसीटते हुए अपने कमरे तक ले आई ….. क्षण भर सोचा और फटाक से अपनी आलमारी खोल दी ।आलमारी में से ज़ेवरों का डिब्बा निकाला … खोल कर देखा और घर के बाहर मोड़ पर आकर खड़ी हो गई ।अपने घर से एक आदमी को निकलते देख कर निशा ने अनुमान लगाया कि यही संतराम है पर वह उसे चेहरे से पहचानती नहीं थी । वह आदमी निशा को देखकर ठिठक गया , अब उसे पक्का यक़ीन हो गया कि यही संतराम है । निशा ने उसे अपने पास आने का इशारा किया ……. और वह यंत्रवत उसके सामने आकर खड़ा हो गया …… निशा ने गौर से संतराम का चेहरा देखा …. उसके चेहरे पर पर्याप्त मात्रा में कुटिलता पसरी हुई थी …… घृणा के साथ निशा ने संतराम के चेहरे पर जमी अपनी नज़रें हटा ली और जेवरों का डिब्बा उसके सामने खोल दी । ….. एक साथ इतना ज़ेवर देखकर संतराम की छोटी आँखों की पुतलियों में बड़ी चमक आ गई थी ….. वह ललचाई नज़रों से ज़ेवरों को निहार रहा था ….. निशा सूक्ष्म निगाहों से उसके चेहरे पर आ - जा रहे भावों का निरीक्षण कर रही थी । संतराम ज़ेवरों को निहारने में तल्लीन था …. उसकी तन्द्रा निशा की आवाज़ से भंग हो गयी ….. ‘ माँ के साथ हुई तुम्हारी सारी बातें मैनें सुन ली है …… यह सारा ज़ेवर तुम्हारा हो सकता है ….. तुम्हें सिर्फ ये बताना है कि मैं कहाँ की रहने वाली हूँ और मेरे माता - पिता कौन हैं ? ‘
संतराम ज़ेवरों की तरफ हसरत भरी निगाहों से देखते हुए बोला …. ‘ तुम्हारे माता - पिता कौन हैं , ये तो मैं नहीं जानता …. अलबत्ता जिस जगह से तुम्हे उठाया था , उस जगह के बारे में बता सकता हूँ ।’ संतराम की बातें सुनकर निशा की आँखों में चमक सी आ गई । संतराम ने निशा को बताया कि यहाँ से करीब साठ किलोमीटर दूर नवाबगढ़ है , वहाँ एक मिलन चौक है , तुम वहीं बच्चों के साथ खेल रही थी जब मैंने तुम्हें उठाया था ….. अनायास निशा पूछ बैठी …. ‘ जब तुम मुझे उठा रहे थे तो मैं रोई नहीं थी ?.... शोर नहीं मचाया था ? कोई मुझे बचाने नहीं आया था ? ‘ निशा की बातें सुनकर संतराम बुरी तरह सकपका गया …. सोचा …. कहीं अभी न शोर मचा दे ……. आज तो इस मामले में पुलिस भी काफी सख़्त हो गई है …. निशा को लगा आज इन सवालों का कोई मायने नहीं है , उसने संतराम से कहा ….’ डरो नहीं … इस बारे में मुझे कुछ नहीं जानना है ।’
संतराम को ज़ेवरों का डिब्बा देकर निशा चुपचाप अपने कमरे में लौट आई । …. उसे यह जानकर एक आत्मिक सुख की अनुभूति हो रही थी कि वह कोठे का नहीं …. किसी कोठी का अनमोल हीरा है । ….. उसने सोचा ,...... मेरा भी एक घर है ….. मेरे भी माता - पिता हैं … भाई - बहन हैं ….मैं भी उसी समाज का हिस्सा हूँ , जहाँ के लोग इज़्ज़तदार एवम शरीफ समझे जाते हैं …. कैसा होता होगा वो घर ? ….. ऐसे सैकड़ों सवाल निशा के दिमाग में कौंध गये । वह जल्दी से एक बैग में कुछ जरूरी कपड़े भरने लगी …… आलमारी में से अपने बचपन की फ्रेमजड़ित तस्वीर उठा कर देखा फूट फूट कर रो पड़ी।
क्रमशः