न जाने क्यों मुझे लगता है मैं हूँ भीड़ में तन्हा
न कोई शोर न साया, हो ऐसा घर तो अच्छा हो
यहां दो अजनबी रहते ,कोई दिन यूँ नहीं गुजरे
अकेलापन मेरा साथी जो ऐसा हो तो अच्छा हो
यहां हर मोड़ पर दुख दर्द की कितनी दुकानें हैं
किसी के पास जो ग़म की दवा भी हो तो अच्छा हो
जो गिर जाऊं तो चलना छोड़ दे,चाहत नहीं मेरी
वो दो पल ही मेरी ख़ातिर ठहर जाए तो अच्छा हो
कोई मौसम नहीं इंसान , अपना रूप क्यों बदले
हो सुख दुख एक ही रंग में नज़र आए तो अच्छा हो.
@सरोज यादव 'सरु'