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होम्‍योपैथिक चिकित्‍सा का उदभव

29 अक्टूबर 2022

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 होम्‍योपैथिक चिकित्‍सा का उदभव

  किसी ने सत्‍य ही कहॉ है, आवश्‍यकता आविष्‍कार की जननी होती है । अपने समय के सफल एलोपैथिक चिकित्‍सक डॉ0क्रिश्चियन फेडरिक सैमुअल हैनिमन ने महसूस किया कि एलोपैथिक चिकित्‍सा जो विपरीत चिकित्‍सा विधान एंव अनुमान पर रह कर रोग उपचार किये जाने के सिद्धान्‍त पर आधारित है , इससे जो रोग है वह तो ठीक हो जाता है, परन्‍तु रोगी औषधियजन्‍य रोगों की चपेट में आ जाता है, और यही उसकी मौत का कारण बनती है, उनका मन  दु:ख से भर गया, उन्‍हे कई भाषाओं का ज्ञान था इसलिये उन्‍होने चिकित्‍सा विज्ञान की पुस्‍तकों के अनुवाद के कार्य को अपने जीवकापार्जन का साधन बना लिया था , चिकित्‍सा विज्ञान की पुस्‍तकों के अनुवाद करते समय एलोपैथिक मेटेरिया मेडिका में पढा कि सिनकोना कम्‍पन्‍न ज्‍वर अर्थात ठण्‍ड लग कर आने वाले बुखार को दूर करती है , और इसी के सेवन से कम्‍पन्‍न ज्‍वर उत्‍पन्‍न हो जाता है, अर्थात एक ही औषधि से दो प्रकार के विपरीत परिणमों ने उन्‍हे विचार करने पर मजबूर कर दिया, एक ही औषधि के दो विपरीत परिणमों ने एक नई चिकित्‍सा होम्‍योपैथिक के आविष्‍कार का सूत्रपात किया । हैनिमन सहाब ने सिनकोना के परिणामों का परिक्षण करने के उद्धेश्‍य से स्‍वयं सिनकोना का सेवन किया, इससे उन्‍हे कम्‍पन्‍न ज्‍वर उत्‍पन्‍न हो गया , और यही औषधि जब कम्‍पन्‍न ज्‍वर से ग्रसित मरीज को दिया गया तो वह ठीक हो गया, बस यही एक ऐसा सूत्र था, जिसने एक नई चिकित्‍सा पद्धति का श्री गणेश किया । चूंकि एक ही औषधि के सेवन से दो विपरीत परिणाम प्राप्‍त किये जा सकते थे ,जैसाकि अपने परिक्षण में हैनिमैन सहाब ने देखा कि सिनकोना देने से एक स्‍वस्‍थ्‍य व्‍यक्ति को कम्‍पन्‍न ज्‍वर हो जाता है और वही दवा एक कम्‍पन्‍न ज्‍वर से ग्रसित रोगी को दी जाती है तो उसका कम्‍पन्‍न ज्‍वर ठीक हो जाता है,  अर्थात एक स्‍वस्‍थ्‍य व्‍यक्ति को जो दवा दी जाती है उससे उसमें जो रोग के लक्षण उत्‍पन्‍न होते है, यदि वैसे ही लक्षण रोगी में उत्‍पन्‍न हो रहे हो तो वही उस रोग की दवा होगी । इसी परिक्षण क्रम में उन्‍होन बहुत सी औषधियों को स्‍वस्‍थ्‍य व्‍याक्तियों को दिया एंव जो लक्षण उत्‍पन्‍न हुऐ उसे लिपिवृद्ध करते गये, इस लिपिवृद्ध संगृह को मेटेरिया मेडिका कहॉ गया , तथा उसी प्रकार के लक्षणों के रोगी पर उसी प्रकार के मिलते जुलते लक्षणों की दवा देकर परिणामों का परिक्षण किया जो आशानुरूप थे । चूंकि जैसे रोगी में रोग के जैसे लक्षण हो यदि वैसे ही लक्षण स्‍वस्‍थ्‍य व्‍यक्तियों को दवा देने पर उभरते हो, तो वही उस रोगी की दवा होगी , अर्थात सम से सम की चिकित्‍सा का प्रथम सिद्धान्‍त का उन्‍होने प्रतिपादन किया एंव इस नई चिकित्‍सा का नाम होम्‍योपैथिक इसी सिद्धान्‍त के आधार पर रखा ।

होम्‍योपैथी शब्‍द दो शब्‍दों से मिलकर बना है, होमियोज और पैथी ,होमियोज ग्रीक भाषा का शब्‍द है जिसका अर्थ है सदृश या समान । पैथी का अर्थ विधान ,अर्थात होमियोपैथी से तात्‍पर्य उस उपचार विद्या से है जो सदृश विधान पर आधारित हो , अर्थात होमियोपैथक चिकित्‍सा को सदृश विधान चिकित्‍सा ,सम से सम कि चिकित्‍सा आदि नामों से भी पुकारा जाता है । होम्‍योपैथिक में किसी रोग का उपचार न कर रोग लक्षणों का उपचार किया जाता है । इसलिये इस चिकित्‍सा पद्धति से कई ऐसे रोग जिन्‍हे आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान असाध्‍य कह कर छोड देता है, उन्‍हे एक सफल होम्‍योपैथिक चिकित्‍सक अपनी औषधियों से आसानी से ठीक कर देता है । हैनिमैन सहाब को प्रथम सूत्र प्राप्‍त हो गया था,  अब इसका दूसरा सूत्र, जो रोग उपचार या रोगी के शरीर में उत्‍पन्‍न लक्षणों को पूरी तरह से शमन कर सकती है वह औषधि की कैसी मात्रा या कौन सी शक्ति होगी । प्रारम्‍भ में उन्‍होने मूल अर्क (मदर टिचर ) का प्रयोग किया ,इसके सेवन से औषधि अपने गुणधर्म के अनुसार रोगी के शारीर में लक्षण सीमित समय में उत्‍पन्‍न कर देती थी , इसलिये उन्‍होन उसे तनुकृत कर शक्तिकृत करने के लिये प्रारम्‍भ में एक भाग मूल औषधि में नौ भाग अनौषधिकृत वस्‍तु (व्‍हीकल) को मिलाकर उसमें सौ झटके देने से 1एक्‍स शक्ति की दवा प्राप्‍त हुई इसी 1एक्‍स शक्ति में पुन: 9 भाग अनौषधिकृत (व्‍हीकल) को मिला कर आगे की शक्तिकृत दवाओं का आविष्‍कार करते गये, उन्‍होने महसूस किया कि मूल अर्क से शक्तिकृत दवाओं के परिणाम काफी संतोषप्रद एंव आशानुरूप थे , इस दशमिक क्रम के बाद उन्‍होने महसूस किया कि इससे भी उच्‍च शक्ति की औषधियों के परिणाम और भी अच्‍छे मिल सकते है अर्थात उन्‍होने शतमिक्रम शक्ति की दवाओं को बनाने के लिये एक भाग मूल औषधि में 99 भाग अनौषधिकृत वस्‍तु को मिला कर सौ झटके दिये ,इस शक्ति को उन्‍होने 1सी पोटेशि कहा इसी 1सी शक्ति की एक भाग में 99 भाग अनौषधिकृत वस्‍तु को मिलाकर सौ झटके देने से आगे के क्रम तैयार होते गये, उन्‍होने प्रारम्‍भ में 30 शक्ति फिर 200 एंव 500 शाक्ति की औषधियॉ तैयार की जिसके परिणाम काफी उत्‍साहवद्धर्क प्राप्‍त होते गये, इन्‍ही परिणामों ने आगे चलकर उन्‍हे 50 मिलेसिमल शक्ति के लिये प्रेरित किया ।

  होम्‍योपैथिक के दो मूल सिद्धान्‍त जो इस चिकित्‍सा पद्धति का मूल आधार है डॉ0 हैनिमैन सहाब को प्राप्‍त हो चुके थे जो निम्‍नानुसार है ।

1-सम से सम कि चिकित्‍सा का सिद्धान्‍त

2-औधियों के शक्तिकरण का सिद्धान्‍त

1-सम से सम कि चिकित्‍सा का सिद्धान्‍त :- होम्‍योपैथिक चिकित्‍सा का मूल सिद्धान्‍त है सम: सम शमयति [Similia Similibus Curenture] अर्थात रोगी के शरीर में जैसे लक्षण हो उसी प्रकार के लक्षणों को उत्‍पन्‍न करने वाली दवा ही उसके रोग की मूल औषधि होगी । यहॉ पर हम कुछ उदाहरणों से कुछ रोग लक्षणों एंव औषधियों की स्थिति को समक्षने का प्रयास करेगे । यहॉ पर एक वस्‍तु है मिर्ची जिसे होम्‍योपैथिक में केप्‍सिकम दवा के नाम से जानते है । इसके मूल रूप में सेवन करने पर मुंह में जलन होने लगती है , यह इस वस्‍तु का अपना धर्म गुण है ,परन्‍तु इसका दुसरा प्रभाव यह होता है कि सीने में जलन होने लगती है ,इसी प्रकार के लक्षणों में यदि रोगी को सीने में जलन हो तो उसकी दवा मिर्ची से बनी दवा कैप्‍सिकम होगी । इसी प्रकार दूसरी वस्‍तु है प्‍याज, होम्‍योपैथिक में प्‍याज से बनी दवा को एलियम सीपिया कहते है । प्‍याज को काटने पर या इसके मूल रूप में सेवन करने पर इसका भौतिक प्रभाव यह होता है कि ऑखों, व नॉक  से पानी आने लगता है ,कुछ जलन जैसी स्थिति भी उत्‍पन्‍न होने लगती है ,इस प्रकार के लक्षणों पर प्‍याज से बनी दवा एलियम सीपियॉ दवा का प्रयोग करना चाहिये , तम्‍बाखू भी एक वस्‍तु है एंव इससे भी होम्‍योपैथिक दवा टोबेकम बनाई जाती है । इसका प्रयोग यदि एक स्‍वस्‍थ्‍य व्‍यक्ति करे तो उसे घबराहट ,चक्‍कर तथा शरीर में पसीना आने लगता है यहॉ तक कि उसे उल्‍टी भी हो सकती है इसी प्रकार के मिलते जुलते लक्षणों पर टोबेकम दवा का प्रयोग किया जा सकता है चूंकि उक्‍त वनस्‍पतियों से बनी दवाओं या वस्‍तुओं के उदाहरण आप को होम्‍योपैथिक दवाओं के लक्षणों को समक्षने की सुविधा के अनुसार दिये गये है ,  चूंकि होम्‍योपैथिक में इसी प्रकार की बहुत सी वस्‍तुऐ है जिसे पोटेंशराईड कर होम्‍योपैथिक दवाये बनाई जाती है । होम्‍योपै‍थिक दवाओं की संख्‍या हजारों की संख्‍या में है जिसमें वनस्‍पतियों से लेकर धातु ,जान्‍विक ,किटाणुओं यहॉ तक कि प्राणीयों के शरीर के तत्‍वों, एलोपैथिक दवाओं,आयुर्वेदिक दवाओं,तथा रस रसायनों आदि से भी होम्‍योपैथिक दवाओं का निर्माण किया जा रहा है । भविष्‍य में होम्‍योपैथिक दवाओं की संख्‍या और भी बढ सकती है । यहॉ पर यह कहने में किसी प्रकार की अतिश्‍योक्ति नही होगी की भविष्‍य में इस बृहमाण्‍ड में जितनी भी वस्‍तुये है उनके प्राणी शरीर में उत्‍पन्‍न भौतिक लक्षणों के आधार पर रोग निवारण हेतु होम्‍योपैथिक दवाये बनाई जायेगी एंव जो रोग निवारण हेतु एक मील का पत्‍थर साबित होगे । 

2-औधियों के शक्तिकरण का सिद्धान्‍त :- होम्‍योपैथिक  औधियों को शक्तिकरण के लिये मूलत: दो सिद्धान्‍त प्रचलन में है , परन्‍तु डॉ0 हैनिमैन ने अपने अन्तिम समय में पचारस हजारवी शक्तिक्रम का सिद्धान्‍त प्रतिपादित किया था जिसका प्रयोग बहुत ही कम चिकित्‍सकों द्वारा किया जा रहा है ।

(अ)दशमिक क्रम प्रणाली :- दशमिक क्रम प्रणाली की शक्तिकृत दवा वैसे तो विचूण के रूप में बनाई जाती है जिसमें एक भाग मूल औषधि में नौ भाग शुगर आफ मिल्‍क (अनौषधिकृत वस्‍तु, व्‍हीकल) को मिलाकर उस सौ बार खरल करने से 1-एक्‍स शक्ति की दवा बनती है , प्राप्‍त हुई इसी 1-एक्‍स शक्ति के एक भाग में पुन: 9 भाग अनौषधिकृत (व्‍हीकल) को मिला कर उसे सौ बार खरल करने से 2-एक्‍स शक्ति (पोटेंशि) की दवा तैयार की जाती है । इसी प्रकार 2-एक्‍स शक्ति की दवा के एक भाग को लेकर उसमें 9 भाग अनौषधिकृत वस्‍तु को मिलाकर सौ बार खरल करने पर 3-एक्‍स पोटेंशी की दवा तैयार होती है ,इसी प्रकार प्रत्‍येक आगे की शक्तिकृत दवाओं को बनाया जा सकता है । इस शक्तिकृम की दवाओं को दिन में तीन बार प्रयोग किया जा सकता है । 

(ब)  शतमिक क्रम प्रणाली :- शतमिकक्रम शक्ति की दवाओं को बनाने के लिये एक भाग मूल औषधि में 99 भाग अनौषधिकृत वस्‍तु को मिला कर सौ झटके देने से 1-सी पोटेशी की दवा तैयार होती है , इस 1-सी शक्ति की दवा के एक भाग में 99 भाग अनौषधिकृत वस्‍तु को मिलाकर सौ झटके देने से 2-सी शक्ति की दवा तैयार होती है ,अब इस 2-सी के एक भाग में पुन: 99 भाग अनौषधिकृत वस्‍तु को मिला कर सौ झटके देने पर 3-एक्‍स शक्ति की दवा तैयार होगी , इसके आगे की पोटेंशी को बनाने के लिये उसके एक भाग को लेकर उसमें 99 भाग अनौषधिकृत वस्‍तु को मिलाकर सौ झटके देते जाने से आगे के क्रम तैयार होते जायेगे, इसे आप 30 शक्ति से लेकर  200 एंव 500 एंव सी0 एम0 एंव एम0 एम0 शक्ति की औषधियॉ तैयार कर सकते है । शतमिक क्रम की शक्तिकृत दवाओं का प्रयोग 30 पोटेंशी में दिन में तीन बार किया जाता है । 200 पोटेंशी की दवा का प्रयोग सप्‍ताह में एक बार तथा 500 (1-एम) शक्ति की दवा का प्रयोग पन्‍द्रह दिन में एक मात्र ,तथा इससे उच्‍च शक्ति का प्रयोग माह में एक बार एक मात्रा का प्रयोग किये जाने का विधान है, परन्‍तु यह चिकित्‍सकों के अनुभव व रोग स्थिति पर निर्भर करता कभी कभी हमने अपने अनुभवों में यह महसूस किया जिसमें कई रोगीयों को 200 या 1-एम शक्ति की दवा दो  या तीन तीन दिनों के अन्‍तर से एक मात्रा देने की आवश्‍यकता पडी । कई प्रकरणों में हमने रोगी के लक्षणों के अनुसार सुनिर्वाचित औषधिय की 200 पोटेंशी की दवा रोगी को दी और यह कहॉ कि जब तक आराम हो इस 200 शक्ति की दवा का प्रयोग न करे कुछ रोगीयों को दो दिन तो कुछ रोगीयों को तीन या चार दिन बाद रोग का पुन: आक्रमण हुआ, अत: उस रोगी को जिसके रोग का  आक्रमण जितने अंतराल से हुआ वही उस दवा की शक्ति उस रोगी के लिये उपयुक्‍त होगी । चिकित्‍सा कार्य अवधी में मैने महसूस किया कि उच्‍च से उच्‍चतम शक्तिक्रम की दवाओं का जो अन्‍तराल रोगी के औषधिय देने के बाद रोग दुबारा आक्रमण पर निर्भर करता है । इस अन्‍तराल व औषधिय की शक्ति के प्रयोग से यह बात तो स्‍पष्‍ट हो जाती है कि अलग अलग बीमारीयों में व रोगीयों में उच्‍च से उच्‍चतम शक्ति के अन्‍तराल का निधारण रोग व रोगी की स्थिति पर र्निभर करता है । यहॉ पर आप के मन में एक बात आ रही होगी कि इस तरह से उच्‍च से उच्‍चतम शक्ति की दवाओं को कब तक दोहराना चाहिये । तो यहॉ पर मै एक बात और भी स्‍पष्‍ट कर देना उचित समक्षता हूं जो चिकित्‍सा कार्य के दरबयान मैने महसूस किया है जैसे मैने किसी मरीज को र्दद की कोई दवा उच्‍च से उच्‍चतम शक्ति की दवा दिया उसका र्दद पहले दो दिन तक ठीक रहा दो दिन बाद उसे वही शक्ति की दवा दोहराई गयी इसका परिणाम यह हुआ कि उसने बतलाया कि उसका र्दद चार दिन बाद पुन: चालू हुआ पुन: उसी वही पोटेशी की दवा दोहराई गयी , इसके बाद वही रोगी कहता है कि इस बार उसका र्दद सात दिनों तक ठीक रहा ,पुन: वही दवा वही पोटेंशी में देने पर उसने कहॉ कि उसका र्दद एक माह तक ठीक रहा अर्थात दवा देने का अंतराल बढता चला गया और एक समय ऐसा आता है कि रोगी कहता है कि उसका र्दद तो पूरी तरह से ठीक हो गया यहॉ पर दो स्थिति स्‍पष्‍ट हो जाती है, एक तो दवा की शक्ति व अन्‍तराल, दुसरा उसी शक्तिक्रम की दवा को उसके द्वारा रोग आक्रमण के पुन: लौटने के अन्‍तराल को बढाते जाने से एक समय ऐसा आया जब रोग पूरी तरह से ठीक हो गया । अर्थात चिकित्‍सक को उच्‍च या उच्‍चतम शक्ति की दवा को देने के बाद रोग आक्रमण के अन्‍तराल को गंभीरता से समक्षना चाहिये बार बार दवा बदलने या पोटेंशी बदलते जाने से कभी कभी उचित परिणाम नही मिलते । 

(स) 50 मिलेसिमल पद्धति :- डॉ0 हैनिमैन सहाब ने अपने अन्तिम समय में 50 हजारवी शक्तिकृम की दवाओं के उपयोग का सिद्धान्‍त का प्रतिपादन किया था । 50 हजारवी शक्तिक्रम सिद्धान्‍त वह पद्धति है जिसमें होमियोपैथीक की दशमिक व शतमिकक्रम प्रणाली से भी अधिक कार्य करने की क्षमता होती है । होम्‍योपैथिक के आविष्‍कारक डॉ0हैनिमैन ने स्‍वयं जब होमियोपैथी का आविष्‍कार किया था ,तब इस बात की खोज की थी की मूल औषधियों की अपेक्षा शक्तिकृत दवाये तेजी से कार्य करती है बाद में अपने अन्तिम समय में उन्‍होने स्‍वयं आर्गेनन में इस 50 हजारवी शक्ति का उल्‍लेख किया था , चिकित्‍सकों के समक्ष कभी कभी कई ऐसी परिस्थितियॉ आ जाती है जब वे होमियोपैथिक के विधान के अनुसार रोग निदान हेतु सुनिर्वाचित औषधियों का प्रयोग करते है परन्‍तु अपेक्षित परिणाम नही मिलते , ऐसी स्थितियों में कभी कभी वे शतमिक क्रम प्रणाली की उच्‍चतम शक्ति 10 या सी0 एम0 , एम0 एम0 का भी प्रयोग करते है परन्‍तु लाभ नही होता । फिर इन उच्‍च से उच्‍चतम शक्तियों के साथ एक समस्‍या भी उत्‍पन्‍न हो जाती है कि इन शक्तियों को बार बार व जल्‍दी जल्‍दी दोहराया नही जा सकता ऐसी परिस्थितियों में चिकित्‍सक के समक्‍क्ष एक बडी समस्‍या खडी हो जाया करती थी । पचास हजार शक्ति क्रम की औषधियोंके साथ प्राय: यह समस्‍या उत्‍पन्‍न नही होती और इन औषधियों को आवश्‍यकता अनुसार व रोग स्थिति के अनुसार दोहराया जा सकता है इन दवाओं को दिन में दो या तीन बार अथवा कुछ मिनटों के अन्‍तर से भी दिया जा सकता है जबकि इस स्‍केल की दवाओं की शक्ति होमियोपैथी की शतमिक क्रम प्रणाली की शक्ति से 50 हजारवे क्रम में होती है व उच्‍चतम शक्ति होने के कारण इनमें द्रुत गति से कार्य करने की शक्ति होती है । इस पद्धति की दवाओं की शक्ति के संकेत 0/1, 0/2, 0/3 आदि स्‍केल में लिखी जाती है ।

 

 

 

 

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       डॉ0 सत्‍यम सिंह चन्‍देल (बी0 एच0 एम0 एस0,एम0डी)

जन जागरण चैरीटेबिल चिकित्‍सालय

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  औषधियों का निर्वाचन

  होम्‍योपैथिक में हजारों की संख्‍या में औषधियॉ है, इनमें से कौन सी औषधि रोगी को दी जाये यह एक बडी समस्‍या है । दूसरी समस्‍या औषधि निर्वाचन के बाद रोग के अनुसार औषधिय की शक्ति का है । तीसरी समस्‍या गलत औषधि या शक्ति के निर्वाचन से रोगी को क्‍या समस्‍या उत्‍पन्‍न हो सकती है ।

  1-जीवन शक्ति :- होम्‍योपैथिक में एलोपैथिक चिकित्‍सा की तरह किसी रोग का उपचार नही किया जाता इसमें औषधि के लक्षणों का मिलान रोगी के लक्षणो से कर औषधि का निर्वाचन किया जाता है जिसका प्रभाव जीवन शक्ति पर होता है । अब यहॉ पर प्रश्‍न उठता है कि जीवन शक्ति है क्‍या । तो इसे समक्षने के लिये आप को पहले समझना होगा कि रोग का भौतिक आक्रमण के पहले सूक्ष्‍म आक्रमण (जो जीवन शक्ति में) होता है । सूक्ष्‍म आक्रमण हमे दिखलाई नही देता यह मन पर या जीवन शक्ति पर होता है । जैसे हमारा शरीर भौतिक शरीर है जिसे हम देख सकते है छू सकते है रोग आक्रमण को देख सकते है,उसका परिक्षण भौतिक संसाधनों से कर सकते है , परन्‍तु जब कभी जीवन शक्ति पर प्रहार या रोग होता है तो वह हमे दिखलाई नही देता किसी भौतिक यंत्र या भौतिक परिक्षण से उसे पहचाना नही जाता । भौतिक शरीर जिसे हम जीवित अवस्‍था क्रिया कलाप करते में देख रहे है परन्‍तु वही शरीर मृत्‍यु के पश्‍चात शान्‍त अवस्‍था में पडा रहता है उसमें किसी भी प्रकार की क्रिया कलाप नही होती । अत: जीवित अवस्‍था में इस भौतिक शरीर का संचालन कैसे होता है कौन सी वह ऊर्जा या शक्ति है जो इसे संचालित करती है , जो न तो दिखलाई देती है न ही जिसका स्‍पर्श किया जा सकता है , यह वह ऊर्जा व शक्ति है जिसे होम्‍योपैथिक में जीवन शक्ति कहते है इसे चाईनीज एक्‍युपंचर चिकित्‍सा में ची अर्थात प्राण ऊजा कहॉ जाता है ।

 जीवन शक्ति ,जीवन ऊर्जा , या प्राण शक्ति से ही शरीर का संचालन होता है सर्व प्रथम रोग का आक्रमण इसी जीवन शक्ति पर होता है इसके बाद रोग के लक्षण भौतिक शरीर में परिलक्ष्ति होने लगते है जब तक आक्रमण जीवन शक्ति में होता है वह दिखलाई नही देता ,जैसे कुछ उदहरणों से शायद यह बात स्‍पष्‍ट हो जायेगी , भौतिक शरीर से भौतिक कार्य करने की उत्‍पत्‍ती जीवन शक्ति के आदेश से होती है जिसे हम सामान्‍य तरीके इसे इस प्रकार भी समक्ष सकते है हमे कोई कार्य करना है तो पहले उस कार्य का  विचार हमारे अन्‍दर मन में उत्‍पनन होगा जैसे हमे बाजार जाना चाहिये तो यह विचार पहले हमारे मन में उत्‍पनन होगा इसके बाद हम शरीर से उस कार्य को करेगे अर्थात बजार जायेगे । यह तो एक उदाहरण है जिससे यह बात स्पिष्‍ट हों जाती है कि किसी भी कार्य को करने की भूमिका पहले हमारे अन्‍दर बनी या हमारे मन में बनी , इसके बाद उस विचार को हमने कार्य में परिणित किया यह विचार हमारी जीवन शक्ति की वजह से आया है । यदि हमारी जीवन शक्ति कमजोर होती तो बाजार जाने का विचार हमे हमारी जीवन शक्ति कदापी नही देती । जीवन शक्ति वह ऊर्जा है जिसके आदेश से हमार सम्‍पूर्ण शरीर संचालित होता है यह उदहरण तो मात्र बाजार जाने का था, इसी प्रकार के और भी कई उदाहरण हो सकते है जैसे कभी कभी कमजोर मनुष्‍य या वृद्ध व्‍यक्तियों से कहॉ जाता है कि किसी यात्रा में चलो तो वह अपनी शारीरिक कमजोरी की वहज से मना कर देता है क्‍योकि । यह शारीरिक कमजोरी उसके जीवन शक्ति की मांग है । जीवन ऊर्जा जिसे हम जीवन शक्ति कहते है, शरीर में रोग का आक्रमण भी जीवन शक्ति के कारण ही होता है इसीलिये होम्‍योपैथिक में माना जाता है कि रोग का आक्रमण पहले जीवन शक्ति में होता है इसके बाद भौतिक शरीर में परिलक्ष्ति होता है ,इसीलिये होम्‍योपैथिक चिकित्‍सा में सबसे पहले मन या प्रबल मानसिक लक्षणों को प्रधानता दी जाती है । जो जीवन शक्ति की मांग है एक कुशल होम्‍योपैथ शारीरिक अन्‍य लक्षणों को बाद में प्राथमिकता देता है, पहले वह मानसिक लक्षणों पर विचार कर औषधियों का चयन करता है । इसका कारण है कि जीवन शक्ति अपने को मानसिक लक्षणों से अभिव्‍यक्‍त करती है ।

  अब प्रश्‍न उठता है कि जीवन शक्ति पर होने वाले प्रहार को कैसे पहचाना जाये, हमने पहले ही कहॉ है कि यदि हमे बाजार जाना है तो पहले हमारे मन में विचार आयेगा इस विचार का आना जीवन शक्ति का कार्य है, इसके बाद हम उसे कार्य में परिणीत करेते है जो शरीर का भौतिक कार्य है । इसी प्रकार कोई भी शारीरिक कार्य हो या रोग आक्रमण पहले यह कार्य जीवन शक्ति पर होता है, इसके बाद वह शरीर में दिखता है । जीवन शक्ति के कार्यो को मन या मानसिकता के रूप में देखा जाता है । किसी भी प्रकार का रोग शरीर में होने पर या रोग की स्थिति की सूचना जीवन शक्ति के कार्यो से समक्षी जा सकती है । जीवन शक्ति हर कार्यो की सूचना पहले मानसिक फिर अन्‍य प्रकार से देती है यदि सूक्ष्‍मता पूर्वक ध्‍यान दिया जाये तो जीवन शक्ति की पुकार को समक्षा जा सकता है और यही दवा के निर्वाचन में आप का सहयोग तो करती ही है साथ ही निर्वाचित दवा व शक्ति का सीधा प्रहार जीवन शक्ति एंव इस जीवन शक्ति पर उत्‍पन्‍न रोग हो पर होता है  इस प्रहार का परिणाम यह होता है कि रोग समूल नष्‍ट हो जाता है ।    

 क्‍वान्‍टम थेवरी :- जहॉ से भौतिक वस्‍तुओं का अस्तित्‍व समाप्‍त होने लगता है वहॉ से सूक्ष्‍म अर्थात क्‍वान्‍टम थैवरी का सिद्धान्‍त प्रारम्‍भ होने लगता है ।  यहॉ पर हमारे वस्‍तु शब्‍द का प्रयोग करने का तात्‍पर्य है चूंकि भौतिक वस्‍तु से है , जबकि अध्‍यात्‍म में दो प्रकार के अस्तित्‍व का विवरण है उनका मानना है कि हमारे शरीर में भौतिक शरीर तथा सूक्ष्‍म शरीर वि़द्यमान है । भौतिक वस्‍तु वह है जो दिखलाई देती है एंव समय के साथ उसका अस्तित्‍व नष्‍ट हो जाता है जबकि सूक्ष्‍म वस्‍तु का अस्तित्‍व समाप्‍त नही होता वह अपना रूप बदलती है । जिस प्रकार से भौतिक वस्‍तु का मान सख्‍यात्‍मक रूप से बढता है उसी प्रकार सूक्ष्‍म वस्‍तु की मात्रा जितनी कम होती जाती है उसका क्‍वान्‍टम मान सख्‍यात्‍मक रूप से बढता चला जाता है । जिस प्रकार से भौतिक वस्‍तुओं के सख्‍यात्‍मक मान से उसका आकलन किया जाता है ठीक उसी प्रकार से सूक्ष्‍म वस्‍तुओं के घटते क्रम के मान का संख्‍यात्‍मक आंकलन किया जाता है । भौतिक वस्‍तुओं का बढतें क्रम से उस वस्‍तु को धनात्‍मक वृद्धि के अनुसार र्दशाते है । परन्‍तु सूक्ष्‍म वस्‍तु के मान में उसकी संख्‍या को घटते क्रम के मान से दृशाते है ,परन्‍तु सूक्ष्‍म वस्‍तु के क्रम में उसकी संख्‍या को घटते क्रम के मान से दृशाते है भौतिक एंव सूक्ष्‍म एक के बढते क्रम एंव दुसरे के घटते क्रम को घनात्‍मक रूप से वृद्धि के क्रम में ही माना जायेगा ,जैसे यदि किसी बस्‍तु के भार में वृद्धि होती जाती है तो उसका संख्‍यात्‍मक मान बढता चला जाता है जैसे एक ग्राम से वह दो ग्राम फिर तीन ग्राम क्रमश: इसी प्रकार से बढती जाती है , ठीक इसी प्रकार से यदि किसी बस्‍तु का भौतिक अस्तित्‍व समाप्‍त हो कर वह जितनी सूक्ष्‍म होती जाती है, उसकी सूक्ष्‍मता का मान ठीक इसी प्रकार से कम होता जाता है ,परन्‍तु इस सूक्ष्‍म से अति सूक्ष्‍म वस्‍तु जो अब वस्‍तु नही रही बल्‍की इतनी सूक्ष्‍म हो गयी कि उसका अपना भौतिक अस्तित्‍व नही रहा परन्‍तु मात्र भौतिक अस्तित्‍व के न रहने से उसका अस्तित्‍व समाप्‍त नही हो जाता बल्‍की उसका अस्तित्‍व व उसके कार्य करने की क्षमता भौतिक वस्‍तु से कई गुना बढ जाती है । परमाणुवाद का सिद्धान्‍त एंव होम्‍योपैथिक की शक्तिकृत दवाये तथा आयुर्वेद के मर्दनम शक्ति आदि । क्‍वान्‍टम थैवरी पर अभी वैज्ञानिकों का शोध कार्य चल रहा है एंव उन्‍होने माना है कि भौतिक वस्‍तुओं को बार बार तोडने या उसे सूक्ष्‍म अति सूक्ष्‍म करने से वह अपने भौतिक शक्ति से भी अधिक शक्तिशाली हो जाती है । भविष्‍य में नाभीकिय क्‍वान्‍टम का सिद्धान्‍त रोग निवारण कि दिशा में एक नया अध्‍याय प्रारम्‍भ करेगी एंव रोग उपचार को एक नई दिशा देगी

1-भौतिक- भौतिक वस्‍तु व भौतिक क्रियाये वे है जो भौतिक रूप में होती है अर्थात जो दिखलाई देती है जिन्‍हे स्‍पर्श किया जा सकता है एंव भौतिक वस्‍तु एक निश्चित समय में समाप्‍त हो जाती है ।

2-सूक्ष्‍म वस्‍तु :- सूक्ष्‍म वस्‍तु या सूक्ष्‍म क्रियाये वे है जो सूक्ष्‍म होती है इतनी सूक्ष्‍म होती है जिन्‍हे देखा नही जा सकता अर्थात अभौतिक होती है ,इन्‍हे स्‍पर्श नही किया जा सकता अर्थात ये भौतिक न होकर सूक्ष्‍म अतिसूक्ष्‍म होती है । जैसे परमाणु विखण्‍डन का सिद्धान्‍त ।

  क्‍वान्‍टम थैवरी का सिद्धान्‍त ही सूक्ष्‍मता पर आधारित है अर्थात जब भौतिक रूप सूक्ष्‍म रूप में परिवर्तित होने लगती है वहॉ से क्‍वान्‍टम थैवरी का सिद्धान्‍त प्रारम्‍भ होता है । वस्‍तु जितनी सूक्ष्‍म होती जायेगी उसकी सूक्ष्‍म गणना उतनी आगे बढती जायेगी एंव उसमें मूल बस्‍तु की अपेक्षा कार्य करने की क्षमता अधिक होती जायेगी । सूक्ष्‍म वस्‍तु में भौतिक रूप न होते हुऐ भी वह कार्य की दृष्टि  से अतितीब्र होती है ।

 

 

 

 

 

 

 

 

  औषधिय निर्वाचन का सिद्धान्‍त

औषधिय निर्वाचन का सिद्धान्‍त:- होम्‍योपैथिक में आज हजारों की संख्‍या में औषधियॉ उपलब्‍ध है तथा कई नई नई औषधियों की प्रुविंग का कार्य चल रहा है, आने वाले समय में रोग स्थिति के अनुसार और भी कई नयी औषधियॉ इसमें जुड सकती है , ऐसी स्थिति में चिकित्‍सक को औषधियों के निर्वाचन में कठनाई हो सकती है, परन्‍तु यदि होम्‍योपैथिक चिकित्‍सक अपने विवेक से औषधियों के निर्वाचन के सूत्र का पालन करता है तो उसे औषधिय निर्वाचन में काफी सहूलियत हो जायेगी एंव सही औषधियों का निर्वाचन रोग लक्षणों के अनुसार जल्‍दी हो जायेगा । जैसा कि हम सभी इस बात को अच्‍छी तरह से जानते है कि होम्‍योपैथिक में किसी रोग का उपचार नही होता , होम्‍योपैथिक में लक्षणों का उपचार किया जाता है इसलिये होम्‍योपैथिक औषधियों के निर्वाचन में हमे रोग के नही बल्‍की रोगी के लक्षणों को प्रमुखता से समक्षना होता है इस उपचार प्रक्रिया में हम रोग का उपचार न कर जीवन शक्ति को सम: सम शमयति [Similia Similibus Curenture] के सिद्धन्‍त पर एंव औषधिय की शक्तिकरण के अनुसार छेडते है , जीवन शक्ति वह ऊर्जा है जो हमारे भौतिक शरीर का संचालन करती है । कोई भी रोग भौतिक शरीर मे पहले नही आता वह पहले जीवन शक्ति पर प्रहार करता है , इसके बाद वह भौतिक शरीर में परिलक्ष्ति होता है , जैसा कि हमने एक उदाहरण में पहले ही लिखा है कि यदि हमे कही जाना है या कोई कार्य करना है तो उसकी भूमिका पहले मन में बनती है अर्थात जीवन शक्ति या जीवन ऊर्जा उसे पूरी भूमिका जमाता है इसके बाद भौतिक रूप से वह कार्य में परिणित होती है, यह उदाहरण तो मात्र किसी कार्य को करने का था इसी प्रकार जब किसी रोग का आक्रमण होता है तो वह पहले जीवन शक्ति पर प्रहार करता है जीवन शाक्ति इस प्रहार को अपने प्रबल मानसिक लक्षणों के अनुसार एंव व्‍यापक लक्षणों के अनुसार व्‍यक्ति करती है , इन्‍ही लक्षणों को चिकित्‍सक होम्‍योपैथिक की औषधियों के निर्वाचन सूत्र में उपययोग करता है ।  म 

1-प्रबल मानसिक लक्षण :- जीवन शक्ति पर सर्वप्रथम प्रबल मानसिक लक्षणों का प्रहार होता है , इसके बाद वही प्रबल मानसिक लक्षण रोग लक्षणों में परिवर्तित होते है ,प्रबल मानसिक लक्षण ऐसे होते है जो प्रथम दृष्‍या ही रोगी से वार्तालाप करने पर समझ में आ जाते है । जीवन शक्ति अपने को मानसिक लक्षणों के द्वारा व्‍यक्ति करती है । अत: औषधियों के निर्वाचन में हमे सर्वप्रथम मानसिक लक्षणों पर ध्‍यान देना चाहिये । जैसे भय भय याने डर कई प्रकार का होता है यदि मृत्‍यु का भय है तो इसमें एकोनाईट तथा अर्जेन्‍टम नाईट्रिकम दवाये है परन्‍तु दोनो में अन्‍तर यह है कि परन्‍तु अर्जेन्‍टम नाईट्रिकम में उसे कोई काम करना हो तो उससे पहले उसे का मन घबराने लगता है । आने वाली घटना का विचार कर वह घबराता है इससे उसे पसीना व दस्‍त आ जाते है नीद नही आती इसके साथ इसका एक प्रमुख लक्षण है कि वह ऊचे मकानों को देखता है तो उसे चक्‍कर आ जाते है । जबकि एकोनाईट में भय एंव मृत्‍यु का भय प्रमुख है इसकी सम्‍पूर्ण बीमारीयॉ भय से होती है इसके रोगी को खुली हवा से रोग में कमी होती है जबकि अर्जेन्‍टम नाईट्रिकम ठंडी को पसंद करता है । भय से यदि कोई रोग उत्‍पन्‍न हुआ है तो उसकी दवा एकोनाईट तथा ओपियम है , परन्‍तु भय से उत्‍पन्‍न रोग की प्रारम्भिक अवस्‍था में एकोनाईट परन्‍तु जब भय रोगी के मन में जम जाता है दूर नही होता तब ओपियम दवा काम करती है ओपियम में जब से वह डर गया है तभी से उसे बीमारी उत्‍पन्‍न होती ओपियम के रोगी में संवेदना का अभाव होता है , परन्‍तु यदि भय से कोई रोग उत्‍पन्‍न हुआ है तो उसमें एकोनाईट दवा है । ठंड से रोगी को अच्‍छा लगता है । इसी प्रकार के और भी कई प्रबल मानसिक लक्षण है जैसे कई व्‍यक्ति आत्‍म हत्‍या करना चाहते है एंव मौका मिलने पर आत्‍म हत्‍या कर भी ले परन्‍तु कुछ व्‍यक्ति आत्‍म हत्‍या करने का विचार तो करता है परन्‍तु मरने से डरता है । कुछ व्‍यक्ति दूसरों की हत्‍या करना चाहते है ,कुछ व्‍यक्ति अत्‍यन्‍त क्रोधी स्‍वाभाव के होते है ,यह क्रोधी मानसिकता ही उनकी बीमारी का कारण होता है परन्‍तु क्रोध में भी अन्‍तर है एक व्‍यक्ति यदि उसे छेडो तो क्रोधित होता है दुसरा इतना क्रोधी कि वह हमेशा हाथ में डंडा लिये दुसरो से उलझता फिरता , तीसरा क्रोध ऐसा होता है जिसमें वह अपनपान के क्रोध को मन में छिपाये रखा है इससे उत्‍पन्‍न जो विकार है वह उसकी भौतिक बीमारी का करण होते है जैसे क्रोध को मन में बिठा लेने से उसे नीद न आये या अन्‍य प्रकार की बीमारी मानसिक या शारीरिक बीमारी क्‍यो न हो जाये यदि उसे क्रोध को दबाने से रोग उत्‍पन्‍न हुआ है तो उसे स्‍टेफिसैग्रिया होगी ,इसी प्रकार के और भी कई प्रबल मानसिक लक्षण है जिन्‍हे ध्‍यान में रखते हुऐ औषधियों का निर्वाचन करना होता है क्‍यो कि यह जीवन शक्ति की मांग है , इसी प्रकार किसी रोगी को बार बार एक सा स्‍वप्‍न आता है तो इसे भी ध्‍यान में रखना चाहिये । प्रबल मानसिक लक्षणों के आधार पर चुनी गयी दवाओं को सबसे पहले प्राथमिकता दी जाना चाहिये,इससे शरीर में उत्‍पन्‍न अन्‍य रोग अपने आप ठीक हो जाते है ।  इसके बाद व्‍यापक हमे व्‍यापक लक्षणो पर ध्‍यान देना आवश्‍यक है 

(2) स्‍वप्‍न :- मानसिक लक्षणों में बार बार एक सा स्‍वप्‍न आना

(3) सर्वाग्‍डीण या व्‍यापक लक्षण

(4) इक्‍च्‍छा उत्‍कट घृणा

 (6)रोगी की शारीरिक संरचना :- औषधियों के निर्वाचन में रोगी की शारीरिक संरचना जैसे रोगी दुबलापतला, तन्‍दरूस्‍त मोटाताजा,उम्र से पहले ही शरीर पर झूरूरीयॉ है या उम्र से अधिक उम्र का दिखता है ,रंग गोरा या काला है ऑखों का रंग कैसा है ,उसके बाल या मूर्खो की तरह दिखता है या उसका व्‍यवहार मूर्खो की तरह है , सिर बढा है हाथ पैर दुबल है अन्‍य इसी प्रकार के शरीरिक बनावट पर भी ध्‍यान देना चाहिये ।

(7)रोगी की प्रकृति:-औषधियों के निर्वाचन में रोगी किस प्रकृति का है इस बात का ध्‍यान रखना चाहिये जैसे सर्द प्रकृति का या गर्म प्रकृति , या फिर सर्द तथा गर्म दोनों का मिश्रित प्रकृति का है । इस सिद्धान्‍त के अनुसार सर्द प्रकृति के रोगी को सर्द प्रकृति की ही दवा दी जायेगी एंव गर्म प्रकृति के रोगी को गर्म प्रकृति की दवा दी जाती है इसके साथ ही हमे यह भी ध्‍यान रखना चाहिये कि रोगी का रोग आक्रमण सर्दी खुली शीत हवा या गर्म कमरे में ,गर्म जगह पर जाने से हुआ है या ठंड से एकदम गर्म में आने से रोग आकृमण हुआ है , किस मौसम व जलवायु , बादल गरजने , आदि से  रोग वृद्धि होती है या रोग में कमी होती है इस बात का भी पूरा ध्‍यान रखते हुऐ औषधियों का निर्वाचन करना चाहिये कभी कभी रोगी का रोग जलवायु व मौसम परिवर्तन तथा उसके रहन सहन पर भी निर्भर करता है ।

(8)रोगी का पुराना इतिहास :- औषधियों के निर्वाचन में रोगी के पुराने इतिहास का अच्‍छी तरह से मालुम कर लेना चाहिये ,जैसे किसी के परिवार में तपेदिक या क्षय रोग की बीमारी पहले से थी या पीठीदर पीठी चली आ रही है या फिर उसके परिवार में पहले कैंसर जैसे बीमारीयॉ तो नही हुई है इसी प्रकार के और भी कई रोग है जिनके बारे में चिकित्‍सक को मालुम कर लेना चाहिये ,

(9)होम्‍योपैथिक के तीन प्रमुख दोष:- होम्‍योपैथिक के जनक हैनिमैन सहाब ने कहॉ था कि रोग होने के तीन प्रमुख कारण होते है इसे होम्‍योपैथिक का त्रिदोष कहते है । जब कभी सुनिर्वाचित औषधियों के देने पर भी रोग समूल नष्‍ट न हो तो समक्षना चाहिये कि रोगी के शरीर मे सोरा , साईकोसिस,तथा सिफिलिस दोष है और जब तक इन दोषों को दूर नही किया जायेगा रोग जड से नही जाने वाला है अत: होम्‍योपैथिक औषधियों के निर्वाचन में हमे होम्‍योपैथिक के इन तीन दोषों को भी प्रमुखता से लेना चाहिये । इन त्रिदोष को दूर करने के लिये हमे सुनिर्वाचित औषधियों से पूर्व इन औषधियों को देना पडता है तभी रोग जड मूल से नष्‍ट हो सकता है ।

(अ) सोरा दोष :- यह दोष शरीर में चर्मरोग ,खांज, खुजली ,खसरा इत्‍यादि के रूप में बाहय रूप से परिलक्षित होता है , परन्‍तु यह तो भीतर की मानसिक खुजली का प्रकट रूप है इसके रोगी की मानसिक स्थिति मैला कुचैला रहने वाला ,गदगी पसन्‍द , र्दशनिकों की भॉती व्‍यवहार कुल मिला कर इसका व्‍यवहार एक सामान्‍य व्‍यक्ति से अलग होता है सोरा के धातुगत दोष की दवा सल्‍फर,सोरिनम है । सोरिनम शीतप्रधान रोगी गर्मी में भी गर्म कपडे को सिर पर लपेटे रहता है ,सोरीनम निराशा से घिरा रहता है  । सल्‍फर को गर्मी लगा करती है वह उष्‍ण प्रधान है सल्‍फर का मरी आशावान,तथा दार्शनिक मनोवृति का होता है । इनमें भेद होते हुऐ भी जब सल्‍फर असफल हो जाये तो सोरिनम देने से लाभ होता है इस सर्न्‍दभ में गृंथकारों ने लिखा है कि इस युग में सल्‍फर की अपेक्षा सोरिनम अधिक उपयोगी है (डॉ0सत्‍यवृत) डॉ0 एलन का कहना है कि एग्‍जीमा के रोग मे पूर्ण लाभ तब तक नही होता जब तक उसे सोरिनम न दिया जाये ।  

(ब) साइकोसिस(गनोरिया) दोष :- इस दोष के प्रमुख शारीरिक लक्षणों में शरीर पर मस्‍सों का ऊभरना, तथा मूत्र नली में शोथ होना है, साइकोसिस का रूप गोनोरिया या सूजाक विष का शरीर में संचार है , परन्‍तु मानसिक लक्षणों में देखा जाये तो उसके मन मे पहले किसी स्‍त्री के पास जाने का विचार आता है फिर वह उस स्त्रि जो पहले से गनोरिया रोग से ग्रस्‍त थी जाता है एंव इस साइकोसिस रोग से ग्रषित होता है । इसके रोगी की मानसिक स्थिति भी विचित्र होती है । साइकोसिस दोष की प्रमुख एण्‍टी साइकोसिस दवा थूजा,तथा मैडोराइनम या गोनोरीनम है । मैडोराइनम या गोनोरीनम का सर्वोत्‍कृष्‍ट लक्षण है रोगी छाती व धुटनों के बल सोता है ।  

(द) सिफलिस दोष उपदंश या आतशक :- इस विष की बीमारीयॉ रतिजन्‍य कारणो वेश्‍यागमन आदि से होती है यह एक संक्रामण विष है और जननेन्द्रियों के धॉव आदि के रूप में प्रगट होती है इस विष का रोगी के शारीरिक अंगों में विकृति आ जाती  यह रोग उपदंश रोगग्रस्‍त स्‍त्री पुरूष से शारीरिक सम्‍बन्धि स्‍थापित करने से एक दूसरे को हो जाती है इसका प्रधान एण्‍टी सिफलिस दवा मक्‍युरियस सॉल है ।

 (5) रोग विशेष:- औषधिय निर्वाचन का यह अन्तिम सूत्र है जहॉ हर चिकित्‍सा पद्धति में पहले रोग को महत्‍व दिया जाता है वही होम्‍योपैथिक में कहॉ जाता है कि इसमें किसी प्रकार के रोग की चिकित्‍सा नही की जाती कहने का अर्थ है होम्‍योपैथिक चिकित्‍सा में किसी रोग का उपचार न कर चिकित्‍सक लक्षणों का उपचार करता है । परन्‍तु रोग का भी इसमें महत्‍व है यदि रोगी को नवीन रोग का आक्रमण हुआ है जैसे उसे बुखार या र्दद है तो साधरणत: हमे उसके उस रोग की दवा निर्वाचन में कुछ तो मदद मिल जाती है इसके बाद बुखर या दर्दो के लक्षणों को छॉटने में हमे परेशानी नही होती फिर कई लक्षण या रोग ऐसे होते है जिनके लिये दवा निर्वाचित करना आसान होता है जैसे किसी को धॉव हो गया तो उसे होम्‍योपैथिक की एण्‍टीसेप्‍टीक दवा कैलेन्‍डुला दी जा सकती है जलने पर कैन्‍थरीस या आर्टिका यूरेंस दे सकते है कभी कभी पैथालाजिकल बीमारीयों में जब यह निश्चित हो जाता है कि रोगी को कोई विष प्रकार की बीमारी है तो उसे हम कुछ औषधियों का अनुमान लगा लेते है बाद में होम्‍योपैथिक के सूत्रों का पालन करते हुऐ हम उसके रोग और लक्षणों के हिसाब से औषधियों का निर्वाचन कर लेते है इससे हमे औषधियों के निर्वाचन में मदद मिल जाती है । 

 

डॉ0 डनहम का कथन है कि उच्‍च शक्ति रोग पर छोडी गई पिस्‍तौल की गोली की तरह है या तो वह रोग को निशाना बनाकर उसे नष्‍ट कर देती है या रोगी के बाजू से सनसनाती निकल जाती है अगर निशाना बैठा तो सिर्फ गोली नष्‍ट होती है रोगी को कोई नुकसान नही होता ।  

 

   नि:शुल्‍क परामर्श हेतु आप सुबह 10 बजे से 4 बजे तक फोन कर सकते है । मो0 9926436304

 

       डॉ0 सत्‍यम सिंह चन्‍देल (बी0 एच0 एम0 एस0,एम0डी)

जन जागरण चैरीटेबिल चिकित्‍सालय

हीरो शो रूम के बाजू से नर्मदा बाई स्‍कूल के

 पास बण्‍डा रोड मकरोनिया सागर म0प्र0

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