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श्राद्ध ( कहानी अंतिम क़िश्त)

10 मार्च 2022

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(  श्राद्ध--अंतिम किश्त )

( अब तक - बाबुलाल जी आश्रम में सेवा करते करते प्रवचन कर्ता बनने की राह पे अग्रसर होने लगे)

 लोग उनकी बातों से उनकी तर्क शक्ति से प्रभावित होने लगे । स्वामी उपेन्द्र नाथ क्षीरसागर ने भी ताड़ लिया कि  बाबूलाल  एक अच्छे धार्मिक प्रवचनकर्ता हो सकते हैं । अतः उन्हें भी सभागार में प्रवचन का मौक़ा भी  देने लगे । स्वामी जी जब भी प्रवचन देने हेतु दूसरे शहर जाते " बाबूलाल " को जरूर • ले जाते उन्हें लगने लगा कि मेरे बाद इस आश्रम की बागडोर संभालने के लिये सबसे सक्षम स्वयं सेवक बाबूलाल ही होगा । उन्होंने बाबूलाल जी को " दीक्षा " देकर " स्वामी नरेन्द्रनाथ क्षीरसागर " बना दिया । देखते ही देखते पच्चीस बरस गुज़र गये , " नरेन्द्रनाथ "। उन्होंने अपने लोगों से कभी भी संपर्क करने का प्रयास नहीं किया । एक दिन " उपेन्द्रनाथ " जी ने उन्हें बुलाकर कहा कि " नरेन्द्र " तुम्हें अगले सप्ताह भोपाल जाना है । वहाँ हमारे एक बहुत पुराने भक्त के रिश्तेदार के यहाँ भागवत सप्ताह का आयोजन है । कुछ दिनों बाद जैसे ही स्वामी नरेन्द्रनाथ अपाने एक सहायक के साथ भोपाल की सरज़मी पर अपने पाँव रखे । उनके पैर छूने वालों का तांता लग गया । लगभग पचास लोग
उनकी अगवानी हेतु रेल्वे स्टेशन आये थे और उन्हें बाजे - गाजे के साथ जजमान के घर ले जाया गया । जजमान कोई अग्रवाल साहब थे जो शहर के नामी गिरामी इंडस्ट्रियलिस्ट थे ।  घर पहुॅचकर " नरेन्द्रजी महाराज " और उनके सहायक को अलग अलग सुसज्जित कमरे में ठहराया गया। अगले दिन प्रातः दस बजे से " भगवत कथा सप्ताह पूरे विधि विधान से प्रारंभ हुआ । आंगन में एक बड़ा सा  मंच बनाया गया था। मंच के मध्य एक बैनर लगा था जिसमें लिखा था " अग्रवाल परिवार आपका स्वागत करता है । मंच के ठीक नीचे जजमान के परिवार के स्वर्गीय पूर्वजों की फ्रेम से जड़ित “ तैलचित्र " रखे थे । जिनमें उनके नामों का उल्लेख था । समूचा पंडाल श्रद्धालुओं से खचाखच भरा था । स्वामी नरेन्द्र नाथ क्षीरसागर जैसे ही सभा स्थल में प्रवेश किये सभी लोग उनके स्वागत में खड़े हो गये और स्वामी जी के नाम का जयकारा लगभग दस मिनट तक गूंजता रहा ।

स्वामी जी ने हाथ जोड़कर श्रद्धालुओं का अभिवादन स्वीकार कर मंचासीन हो गये । कथा प्रारंभ करने के पूर्व उन्होंने भागवत पुराण की पूजा अर्चना की और माँ भगवती की आरती का गान किया । स्वामी जी की कथा का प्रारंभ महाराजा परीक्षित को मिले श्राप पर आधारित था , कि ठीक दस दिन बाद उनकी मृत्यु " तक्षत " साँप के काटने से होगी । अगले 4 दिनों तक ये सिलसिला अबाध गति से चलता रहा । कथा के विभिन्न अध्याय जैसे महिसासुर वध , नरसिंह अवतार , कृष्ण जन्म , रुख्मणी विवाह और सुदामा मिलन अलग - अलग दिन के विषय रहे । श्रोताओं की प्रथम पंक्ति में एक पैंतीस साल का युवक अपनी धर्मपत्नी के साथ बैठा था । वे दोनों इस कार्यक्रम के आयोजक थे या यूँ कहे कि जजमान थे । आयोजन का  सारा प्रबंध उच्चस्तरीय था । जजमान द्वय हर दिन " कथा " के बाद " स्वामी " जी के कमरे में जाकर उनकी सेवा करते थे और स्वामी जी से अगले दिन की तैयारी के बारे में पूछते भी थे । भगवत कथा समाप्ति के दो दिन पूर्व जजमान दंपति स्वामी जी के कमरे में  जब उनकी सेवा कर रहे थे तब जजमान अग्रवाल जी ने स्वामी जी से पूछा । मेरे दिमाग में एक उलझन है हो सके तो इसके निवारण का रस्ता बतायें स्वामी जी । स्वामी जी ने कहा- " पूछो बेटे , तुम्हारी उलझन क्या है ? जजमान ने कहा " महाराज" हम लोग रायपुर के हैं , मेरे पिता वहाँ के बहुत बड़े व्यापारी थे । एक बार उन्हें अपने व्यापार में अचानक इतना घाटा हुआ कि उनकी बीस साल में अर्जित सारी  संपत्ति नीलाम होने के कगार पर आ गई । वे ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाये और एक दिन बिना किसी को कहे " घर " से अज्ञात स्थान को चले गये । हम लोगों ने ढूँढ़ने की हर मुमकिन कोशिश की पर उनका कहीं पता नहीं चला । इस बात को हुवे पच्चीस वर्ष गुज़र गये है , पर आज भी हमें तनिक भी जानकारी नहीं है कि वे कहाँ है , किस हाल में हैं और वे इस दुनिया में हैं भी या नहीं । " उनके जाने के बाद हमने बेहद कष्ट झेला है । निर्धनता के अतिरेक को हमने देखा है । मेरी उम्र जब अट्ठारह की हुई तो मैंने गल्ले का छोटा - मोटा व्यापार कर अपनी आर्थिक स्थिति संभालने का प्रयास प्रारंभ किया । धीरे - धीरे मेरा काम बढ़ने लगा और सफलता कदमों को चूमने लगी । आज मेरे पास दस से ज्यादा छोटी बड़ी स्टील फैक्ट्रियाँ है । रायपुर के अलावा मेरा कारोबार देश के हर कोने में फैला है । आज कल मैं भोपाल में रहता हूँ और यहाँ से ही अपने सारे कारोबार को संचालित करता हूँ । पूछना ये है कि आज से दो वर्ष पूर्व मेरी माता जी का हृदयघात से स्वर्गवास हो गया । उनकी ही याद में मैंने ये " भागवत सप्ताह " आयोजित किया है । मेरे मन में इक गाँठ है मुझे अपने पिताजी के बारे में कोई जानकारी नहीं है । मुझे सदा माताजी के श्राद्ध संबंधित विधि विधानों में हमेशा उलझन रहती है कि मैं अपने पिताजी को किस रूप में देखू । एक जिन्दा इंसान के रूप में या स्वर्गवासी आत्मा के रूप में । इससे भी बड़ी उलझन ये है कि अगर मेरे " पिताजी " का स्वर्गवास हो चुका है । तो उनकी आत्मा की शान्ति के लिये क्या क्या उपाय करूँ और उनके " श्राद्ध " के कार्यक्रम को सम्पन्न किये बिना " माताश्री " के कार्यक्रम को करूं या ना करूं । नरेन्द्र जी महाराज ने बड़ी गंभीर मुद्रा में बैठे - बैठे कुछ सोचते हुवे जजमान से पूछा - " बेटा तुम्हारा नाम क्या है और तुम्हारी माताजी का नाम क्या था ?  जजमान ने कहा - " स्वामी जी मेरा निशान्त अग्रवाल है और मेरी माताजी का नाम " लक्ष्मी देवी अग्रवाल " । इतना सुनते ही स्वामी जी अचानक एकदम बेचैन हो गये , उनके चेहरे पर कुछ पलों में सैकड़ों भाव आते गये और ऐसा लगा, शायद उनकी आँखों से आँसुओं का सैलाब फूट जायेगा । स्वामी जी ने किसी तरह अपने भावनाओं को जब्त किया और निशान्त से कहा " पुत्र इसका हल मैं बहुत ज़ल्द तुम्हें दूँगा । इस संदर्भ में तुम्हारी हर परेशानी का समाधान करके मैं जाऊँगा ।  जज्मान के जाते ही नरेन्द्र स्वामी जी ने अपने सहायक को पास बैठाया और कहा- अगले दो दिनों का कार्यक्रम तुम्हें संपन्न करना है , साथ ही उन्हें एक बंद लिफाफा देते हुए कहा इस लिफाफे में " पुत्र निशान्त अग्रवाल " द्वारा उठाये गये सभी प्रश्नों के उत्तर निहित हैं । उन्हें यह लिफाफा कल मेरी अनुपस्थिति में सौंपना । अब जाओ तुम भी अपने कमरे में आराम करो । अगली सुबह , जब ‘ ‘ नरेन्द्र स्वामी जी " के कमरे में 8 बजे
तक कोई हलचल नहीं हुई तो उनके शिष्य उन्हें कमरे के बाहर से आवाज़ देने लगे पर नतीजा सिफर ही रहा । घबड़ा कर उन्होंने " जज्मान " को बुलाया । इतने में घर के अन्य सदस्य और कर्मचारीगण भी आ गये । दरवाज़े को खटखटाने और पीटने से भी जब कोई जवाब नहीं मिला तो  तुरन्त ही दरवाज़े को तोड़ने का फ़ैसला लिया गया । दरवाज़ा तोड़कर जब वे कमरे में प्रवेश किये तो उन्होंने देखा " स्वामी नरेन्द्रजी महाराज " बेहद शान्त भाव से अपने बिस्तर में चिर - निद्रा में पड़े थे । उनके दायें हाथ में एक फोटोग्राफ था जिसको उन्होंने सीने से लगा रखा था । शरीर में कोई हलचल नहीं थी न ही सांसों की रवानगी के लक्षण दिखे । कमरे में मौजूद हर शख़्स कुछ क्षणों के लिये " सन्नीपात " के दायरे में आ गया । उन्हें समझ में आ गया स्वामी जी परलोक सिधार गये । उनके हाथों से लिपटे " फोटोग्राफ को जब उनके शिष्य ने अवलोकन किया तो पाया , एक ग्रुप फोटोग्राफ " है । उस फोटोग्राफ के सारे चेहरे स्वामी जी के शिष्य को अन्जाने लगे । उन्होंने उस फोटोग्राफ को जजमान " निशान्त जी अग्रवाल " को सौंपा दिया । निशान्त ने जैसे ही " ग्रुप फ़ोटोग्राफ " को देखा तो वे दहाड़ मार कर रोने लगे और अपनी पत्नी से कहा ये फोटोग्राफ तो मेरे समूचे परिवार का है । इसमें मेरे पिताजी , माताजी , मैं और मेरी दोनों बहनें है । इस फोटो की एक प्रति तो हमारे घर में भी है । लेकिन ये " फ़ोटो " स्वामी जी के पास कैसे आया , माजरा कुछ समझ में नहीं आया । मन में शंका बलवति होने लगी । इतने में ही " स्वामी " जी के सहायक ने उन्हें " स्वामीजी दिया लिफाफा सौंपते हुये कहा द्वारा मुझे दे दिया था . आज आपको प्रदान करने के लिए । " " कल रात्रि " स्वामीजी " ने इसमें आपके नाम पाती लिख
 कर दिया है । लिफाफे को निशांत ने फाड़ा। लिफाफे का मजमून था , " पुत्र " निशान्त , सर्वप्रथम मैं तुमसे और अपने समस्त परिवार के सदस्यों से क्षमा माँगता हूँ । मैं ही तुम्हारा अभागा और पापी पिता हूँ । जो तुम लोगों को कष्ट के दिनों भगवान के सहारे असहाय छोड़कर बुजदिल सा भाग गया था । मैं शहर में होने वाले बदनामी के भय से आक्रांत होकर , संसार छोड़ने का मन बनाकर घर से निकला था । लेकिन हरिद्वार के संत उपेन्द्रनाथ क्षीरसागर महाराज ने मुझे बचा लिया । फिर मैं उनके साथ ही उनके आश्रम में रहने लगा । उन्होंने न मेरे गुज़रे दिनों के बारे में पूछा न ही मैंने उन्हें कभी अपना उचित परिचय दिया । शायद इसीलिये मुझे वहाँ एक नया नाम मिला और एक नई पहचान मिली " नरेन्द्र नाथ क्षीरसागर " । मैं तुम्हारी सफलता को देख अभीभूत हूँ और ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि तुम्हें यूँ ही सफलता की राह पर अग्रसर रखें । पुत्र एक बात का ख्याल रखना , व्यापार में तुम जो चाहो , जितना चाहो रिस्क लेना पर तेज़ी और जल्दी से पैसा कमाने के लिये कभी " तेजी - मंदी " के धंधे में हाथ न डालना । मेरी ऐसी ही एक गल्ती ने मुझे बर्बाद किया था और मुझ जैसे शेर पुरूष को " गीदड़ " की तरह सर छिपा कर भागने पर मजबूर किया । जिसके कारण मेरे समूचे परिवार को दुर्दिनों से रू - ब - रू होना पड़ा । मैं जा रहा हूँ हो सके तो मुझे माफ़ कर देना हालाकि मुझे माफ़ी माँगने का भी हक़ नहीं है । अपनी बहनों तक भी मेरा माफ़ीनामा पहुँचा देना । आज के बाद से तुम्हारे आगे अपनी माता " लक्ष्मी देवी " के श्राद्ध कार्यक्रमों में कोई भी रूकावट नहीं आयेगी । अग्रवाल परिवार द्वारा आयोजित भागवत सप्ताह का आज अंतिम दिन है । श्रद्धालुओं का आना प्रारंभ हो चुका है । आज चढ़ोतरी को रस्म भी निभायी जायेगी । व्यवस्था पूर्व के दिनों के समान चाक चौबंद है । दर्शकों व श्रोताओं को अंतिम दिन केवल दो अंतर नजर आ रहे हैं । पहला अंतर , नरेन्द्र जी आज मंच पर  उपस्थित नहीं हैं । उनकी जगह प्रवचन उनके शिष्य स्वामी आत्मानंद जी दे रहे है । दूसरा अंतर , मंच के नीचे जजमान निशान्त अग्रवाल के पितरों के तैलचित्र के समूह में उनकी माता के चित्र के ठीक बगल एक और तैलचित्र रखा है जिसमें लिखा है " स्व बाबूलाल अग्रवाल , सुपुत्र स्व . धर्मपाल अग्रवाल " ।

( समाप्त )
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श्राद्ध कहानी प्रथम क़िश्त
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बाबुलाल रायपुर शहर के बहुत धनी इंसान थे। उनके वहां कै राईस मिल व दुकानें थी। जिनका मूल्य 50 करोड़ से कम नहीं था। वे और अधिक कमाने के चक्कर मेँ शेयर मार्केट में अनाप शनाप तरीके से पैसा लगाने लगे । कुछ महीनों बाद शेयर मार्केट ढह गया तो उनके ऊपर 200 करोड़ की देनदारी खड़ी हो गई। इसके कारण उनकी सारी संपत्ति बिकने के कगार पर आ गई। वे इस समस्या से इतने परेशान हुए की सब कुछ त्याग करके बिना किसी को बताए घर छोड़ कर कहीं चले गए । इस समय उन्हें खुद नहीं मालूम था की कहां जाना है और क्या करना है? वे मानसिल रूप से टूट चुके थे।

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