shabd-logo

श्राद्ध ( कहानी दूसरी क़िश्त )

9 मार्च 2022

35 बार देखा गया 35
(      # श्राद्ध #   ) (-कहानी दुसरी क़िश्त )

( अब तक - शेयर मार्केट में  भारी नुकसान के बाद बाबुलाल जी घर छोड़ कर अन्जानी राह को चल पड़े)

बाबूलाल जी घर से निकले तो उन्हें अहसास भी नहीं हुआ कि वे कब रेल्वे स्टेशन पहुँच गये और वहाँ प्लेटफार्म में खड़ी एक ट्रेन में बैठ गये । सुबह एक बड़े स्टेशन में  ट्रेन रुकी तो वे भर पेट इडली खाकर फिर सो गए । ट्रेन में  लगभग देड़ दिनों के सफर के बाद  वे जब प्लेटफार्म में  उतरे तो पूरी ट्रेन खाली हो चुकी थी लोग जा चुके थे और ट्रेन यार्ड पर खड़ी थी । वे स्टेशन से बाहर आये तो एक बोर्ड पर उनकी नजर पड़ी , जिस पर लिखा था " हरिद्वार" में आपका स्वागत है । स्टेशन से बाहर आकर दाईं दिशा में चलते गये घंटा भर बीत जाने के बाद उन्हें कल कल की आवाज सुनाई दी । सारा इलाका सुनसान था और सामने नदी अपने में मस्त , मदमाती चाल में दौड़ रही थी । तुरंत उन्हें ख्याल आया कि " गंगा " के किनारे पहुँच चुके हैं ।  जाने क्यूँ उन्हें लगा मेरी मंजिल आ गई है । उन्होंने दो पल अपनी पत्नी और बच्चों का स्मरण किया । शायद उनसे किसी बात के लिये माफी माँग रहे थे । अगले ही पल वे गंगा की धारा में गोते लगाते दिखे फिर क्या हुआ उन्हें होश नहीं रहा ।

 हरिद्वार से कुछ  ही दूर पश्चिम में कुछ नाविक नाव खेते हुए घर लौट रहे थे । थोड़ी ही दूर में उन्हें कोई बड़ी सी चीज़ उफलती - डूबती दिखी । उन्हें पहले अहसास हुआ कि ये मानवीय शरीर है शायद किसी मृतक की लाश , जिसे उनके परिजनों ने इसलिये बहा दिया होगा कि  शायद उनके पास अंत्येष्ठि के लिये भी धन नहीं होगा । लेकिन उनमें से एक नाविक को लगा की उस शरीर मेँ  कुछ तो अंदरूनी हरकत हुइ  है तो वे उस शरीर को नाव में लादकर किनारे ले आये व पाट पर स्थित पत्थर पर उल्टा लिटा दिये । कुछ देर बाद उन्हें लगा कि शरीर में कुछ और हरकत हुई । फिर उन्हें  हल्की सी कराहने की आवाज़ सुनाई दी । उनमें से एक नाविक फ़ौरन उस पत्थर पर रखे शरीर की नाड़ी गिनने लगा तो उसे अहसास हुआ कि नाड़ी चल रही है । उस नाविक ने तुरन्त अपने साथियों को आवाज देकर कहा- ये ज़िंदा है इसे उपचार की ज़रूरत है । आनन - फानन में सभी मिलकर उसके पेट से पानी निकालने का उपक्रम करने लगे ।। फिर उन सबने सामुहिक निर्णय लेकर की उसे पास ही स्थित " स्वामी उपेन्द्रनाथ जी के आश्रम " ले गए और आश्रम के सेवादारों को सौंप आए। जहाँ जड़ी , बूटियों के सहारे उसका  उपचार सेवादारों ने तुरंत ही प्रारंभ कर दिया । अगली सुबह जब बाबुलाल जी को होश आया तो खुद को एक साफ - सुथरे कमरे में पाया। उन्हें समझ नहीं आया कि यहाँ कैसे पहुँचा । एक बारगी उन्हें लगा कोई सपना तो नहीं ? क्योंकि मैं तो " गंगा " जल में  समाधि ले चूका था । कुछ देर यूँ ही आँखें मूंदें लेटे  रहे । कुछ पल उपरांत दरवाजा धीरे से खुल सामने एक गेरवा - वस्त्र धारण किये हुये कोई संत खड़े थे । जिनका रंग गोरा , बड़ी दाढ़ी , ललाट चमकता हुआ और माथे पर चंदन टीका लगा था । उन्होंने अपना परिचय देते हुआ कहा - " मैं " स्वामी उपेन्द्र नाथ क्षीरसागर " हूँ । ये आश्रम मेरी  देख - रेख में है । यहाँ लगभग मेरे सौ अनुयायी  स्थायी रूप से रहते हैं  । अपना परिचय देने के बाद उन्होंने बाबूलाल जी से पूछा " तुम कौन हो बेटे ? कहाँ से आये हो और क्या कष्ट है तुम्हें ? " बाबूलाल ने उन्हें सिर्फ़ अपना नाम बताया और कहा - " मैं बहुत दुःखी हूँ स्वामी जी । मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है , जीने की इच्छा समाप्त हो गई है क्यूँकि अब मेरे जीवन में कोई  उद्देश्य ही नहीं बचा है । आपने मुझे बचाया इसके लिये आपको तहे दिल से शुक्रिया । जवाब में  स्वामी जी मे कहा हमने नहीं ऊपरवाले ने तुम्हें बचाया है । हम तो बस उनके माध्यम है । धन्यवाद तो तुम ईश्वर को दो । तुम्हारे  भाग्य में अभी बहुत कुछ करना है इसलिये ही तुम्हें ऊपर वाले ने मरने नहीं दिया । बहरहाल तुम सही जगह पहुंच गये हो । ये आश्रम दीन - दुखियों की ही सहायता के लिये मेरे गुरू स्वामी शंकर नाथ स्वामी जी ने इसकी स्थापना की थी। तुम नित्य कर्मों से निवृत्त होकर 9 बजे तक पास ही स्थित रसोई में जाकर पेट पूजा कर लेना । उसके बाद सभागार पहुँच जाना । जहा 10 बजे से 12 बजे तक सत्संग का आनंद उठाना । आगे की दिनचर्या यहाँ के स्वयं सेवक तुम्हे अच्छे से समझा देंगे  । " बाबूलाल जी "भूख से परेशान तो थे ही जल्द ही तैयार  होकर रसोई पहुँच गये । वहाँ नास्ते में " पोहा " बना था । मन के तृप्त होते तक उन्होंने खाया फिर आधा गिलास दूध पीकर सत्संग सभागार में जा पहुँचे । सभागार के मुख्य द्वार में " राधे भवन " का उल्लेख था । अंदर एक बड़ा सा हॉल था जिसमें लगभग 500 व्यक्तियों के लिये बैठने लायक व्यवस्था थी  । हॉल पूर्ण रूप से सुसज्जित था  । हर दीवाल पर एक निश्चित दूरी पर " भगवान कृष्ण " और " राधे माँ के " छायाचित्र टँगे थे । बाबूलाल जी खामोशी से अंतिम पंक्ति में जगह देखकर बैठ गए  इतने में स्वामी उपेन्द्रनाथ क्षीरसागर सहायकों के साथ हॉल में प्रवेश किये और सब का अभिवादन स्वीकार कर मंच पर आसीन हो गये । फिर स्वामी जी का उद्बोधन प्रारंभ हुआ । आज उनके प्रवचन का विषय राजा हरीशचन्द्र जी की ईमानदारी का दृष्टान्त था । उपेन्द्र नाथजी कह रहे थे " राजा हरीशचन्द्र जी भगवान द्वारा लिये गये परीक्षा के तहत् राजा से रंक हो चुके थे । उनका परिवार बिखर चुका था । उन्हें शमशान में एक " डोम " का काम करना पड़ रहा था । जिसे वे बड़ी लगन और ईमानदारी से कर रहे थे , पर उनके हृदय में जीवन के प्रति नकारात्मक भाव कभी नहीं उपजे न ही ग़रीबी और परिश्रम को उन्होंने कभी दुश्मन माना । उनकी ईमानदारी तो दुनिया में एक उदाहरण है । वो दृष्टान्त ये है कि अपने मालिक का नुकसान न हो अतः उन्होंने अपने " पुत्र " के दाह संस्कार के लिये भी अपनी पत्नी से पैसा माँगा और पैसा न दे पाने की स्थिति में अपनी मज़बूरी का हवाला देकर मना कर दिया । " वृतान्त का ये हिस्सा सुनकर बाबूलाल जी का रोम - रोम रोने लगा । उनके शरीर का कण - कण बेचैनी से भर गया । उन्हें लगा  ऐसी हालत में वहाँ बैठना उचित नहीं होगा । अतः वे अपने कमरे में आकर लगभग रोते हुए  बिस्तर पे गिर गये । बार - बार उनके दिमाग में " राजा हरीशचंद्र " का चरित्र धूम रहा था । उन्हें लग रहा था " धैर्य " में कितनी ताक़त होती है । " धैर्य " ही हरीशचंद्र जी की वो ताक़त थी जिसके बलबूते वे " भयंकर विपन्नता में भी नहीं डिगे न हताश हुये । अगले दिन से प्रातः 5 बजे बिस्तर से उठना , नित्यकर्मों से फारिंग हो 10 बजे सभागार पहुँच आश्रम के बड़े - बड़े विद्वानों का प्रवचन सुनना उनकी दिनचर्या का हिस्सा हो गया । एक बार आत्महत्या का प्रयास  कर चुके बाबुलाल जी का मन अब आश्रम में रमने लगा । आश्रम में उन्हें स्वयं सेवकों के कार्य निर्धारित करने की जिम्मेदारी मिल गयी जिसे वे बेहद चतुराई और लगन के साथ निभाने लगे  । दो साल कब गुज़र गये पता नहीं चला । अब उनका दायित्व स्वामी जी के ही साथ रहना और उनकी सेवा का था । उनकी हर आवश्यकता का खयाल रखना अब सिर्फ बाबूलाल जी का काम था । साथ ही अब वे खुद आश्रम में होने वाले धार्मिक आध्यात्मिक परिचर्चाओं में भाग लेने लगे। और विभिन्न ग्रंथों मेँ  दिये गूढ़ तत्वों का अध्ययन और मनन भी करने लगे ।

( क्रमशः )
2
रचनाएँ
श्राद्ध कहानी प्रथम क़िश्त
0.0
बाबुलाल रायपुर शहर के बहुत धनी इंसान थे। उनके वहां कै राईस मिल व दुकानें थी। जिनका मूल्य 50 करोड़ से कम नहीं था। वे और अधिक कमाने के चक्कर मेँ शेयर मार्केट में अनाप शनाप तरीके से पैसा लगाने लगे । कुछ महीनों बाद शेयर मार्केट ढह गया तो उनके ऊपर 200 करोड़ की देनदारी खड़ी हो गई। इसके कारण उनकी सारी संपत्ति बिकने के कगार पर आ गई। वे इस समस्या से इतने परेशान हुए की सब कुछ त्याग करके बिना किसी को बताए घर छोड़ कर कहीं चले गए । इस समय उन्हें खुद नहीं मालूम था की कहां जाना है और क्या करना है? वे मानसिल रूप से टूट चुके थे।

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए