हमारा शरीर ब्रह्माण्ड में व्याप्त पाँच तत्वों आकाश,वायु,अग्नि,जल एवं पृथ्वी से बना है | कहा गया है - “यथा पिंडे तथा ब्रह्माण्डे” अर्थात जो ब्रह्माण्ड में है वह सब इस पिंड (शरीर) में व्याप्त है |
पंच महाभूत प्राकृतिक चिकित्सा के साधन हैं इन पंच्च्तत्वों का मूल आधार महत्तत्व होता है । पञ्चतत्वों को रोगनिवारक शक्ति महत्तत्व से ही प्राप्त होती है | प्रत्येक प्राणी के अन्दर आरोग्य प्रदान करने वाली एक शक्ति होती है जो उसे स्वस्थ्य रखती है । प्रकृति के विरुद्ध आचरण के फलस्वरूप जब व्यक्ति के शरीर में विजातीय द्रव्यों की मात्रा बढ़ जाती है तब आंतरिक शक्ति शरीर को स्वच्छ और निरोग बनाने के लिए तीव्र रोगों की उत्पत्ति करती है, तथा उन रोगों को नष्ट भी करती है । इस शक्ति को सभी लोग अलग-अलग नामों जैसे - शक्ति, परमात्मा, अंतरात्मा तथा कोई राम,अल्लाह आदि कहकर पुकारते है । सम्पूर्ण निरोगता के लिए यह आवश्यक है कि रोगी व्यक्ति के मन, आत्मा तथा शरीर तीनो का शुद्धिकरण किया जाये | जिस व्यक्ति का मन, आत्मा तथा शरीर तीनों निरोग होगा वही व्यक्ति निरोगी हो सकेगा। प्राकृतिक चिकित्सा के उपचार में सबसे समर्थ उपचार अपने इष्ट की स्तुति, सदाचार एवं सद्विचार है, यह सभी रोगों को रोकने का सबसे प्रभावी,सरल व सुलभ उपाय है । क्योंकि विचार शक्ति का शरीर पर विचारों के अनुसार अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता है, रोगी होने पर व्यक्ति संशयग्रस्त हो जाता है जिससे भले ही वास्तविकता कुछ और ही हो परन्तु मन में रोग की भयानकता प्रगट होने लगती है | मन जब किसी विचार को स्वीकार कर लेता है तब शरीर उसी के अनुसार बनने लगता है इसीलिए निरोग होने के लिए सर्वप्रथम ईश् प्रार्थना पर जोर दिया जाता है, क्योंकि लिस क्षण मनुष्य अपने ईश के प्रति सच्चे मन से प्रार्थना करता है उस क्षण शरीर पर से नकारात्मक विचारों का प्रभाव कमजोर पड़ने लगता है ।
शब्द, सदाचार, सद्विचार जैसे गुणों को शक्ति तो महत्तत्व से मिलती है परन्तु यह कारक हैं आकाश तत्व के आकाश तत्व पंचतत्वों में सबसे अधिक उपयोगी एवं प्रथम तत्व है जिस प्रकार महत्तत्व निराकार किन्तु सत्य है उसी प्रकार आकाश तत्व निराकार भी है और सत्य भी है महत्तत्व अविनाशी है उसी प्रकार आकाश तत्व का भी कभी नाश नही होता | आकाश विशुद्ध तथा निर्विकार होता है इसीलिए हमें इस तत्व से विशुद्धता एवं निर्मलता की प्राप्ति होती है | जो शक्ति हमें महत्तत्व अथवा आकाशतत्व से मिलती है वह अमोघ होती है एवं आत्मिक मानसिक तथा शारीरिक तीनों प्रकार के स्वास्थ्य को उन्नत बनाने वाली होती है |
पंचतत्वो में अन्य चार तत्व – वायु,अग्नि,जल तथा पृथ्वी को आकाश तत्व से शक्ति मिलती है अन्य चारों तत्व आकाश तत्व के साथ मिलकर शरीर में अपना कार्य करते हैं | शरीर में आकाश तत्व के विशेष स्थान सिर, कण्ठ, हृदय, उदर एवं कटिप्रदेश है | मस्तिष्क में स्थित आकाश वायु का भाग जो प्राण का मुख्य स्थान है | हृदयदेशगत तेज का भाग है जो पित्त का मुख्य स्थान है, इससे अन्य का पाचन होता है | उदर देशगत आकाश जल का भाग है इससे सब प्रकार की मल विसर्जन क्रिया सम्भव होती है | कटि देशगत आकाश पृथ्वी का भाग है यह अधिक स्थूल होता है और गन्ध का आश्रय है | इन सब में जो सर्वोच्च आश्रय है वह है मस्तिष्क में स्थित आकाश तत्व का भाग | इसी के कारण व्यक्ति में सोचने की क्षमता उत्पन्न होती है।
सम्पूर्ण स्वास्थ्य का अर्थ आप- आर्क्सफोर्ड डिक्शनरी में ‘हेल्थ’ के शाब्दिक अर्थ से समझ सकते हैं इसके अनुसार “शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा से पुष्ट होना- ‘हेल्थ’ है। सम्पूर्ण स्वास्थ्य को ठीक बनाये रहने में अनेकों कारण गिनाये जा सकते हैं पर सबसे प्रमुख कारण है- व्यक्ति की मानसिक स्थिति । प्रसन्नचित्त, उत्साही एवं आशावादी लोग अनेक बाधाओं के होते हुए भी निरोग बने रहते हैं। मनोबल के कारण ऐसे व्यक्तियों के नाड़ी संस्थान में एक प्रचण्ड विद्युत प्रवाह का संचार होता रहता है जो शरीर के प्रत्येक अंग को रोगों से लड़ने की सामर्थ्य प्रदान करता रहता है |
कोई भी शारीरिक रोग प्रकट होने पर व्यक्ति के मन में भी विचारों द्वारा निर्मित अनेक काल्पनिक रोग उत्पन्न होते रहते है | इनका उतना ही भयंकर प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है जितना कि क्षय,कैंसर जैसे घातक रोगों का ।
मनोवैज्ञानिकों तथा चिकित्सा शास्त्रियों का कहना है वास्तव में रोगियों में ऐसे व्यक्तियों संख्या बहुत कम होती हैं, जो वास्तव में किसी रोग से पीड़ित हों । अधिकांश ऐसे व्यक्ति होते हैं जो किसी न किसी काल्पनिक रोग के शिकार होते हैं । सम्पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति में विचारों का अत्यधिक महत्व है । जो व्यक्ति स्वयं के प्रति रोगी, शक्तिहीन और असमर्थ होने का भाव रखते हैं और सोचते रहते हैं कि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता, उनको कोई रोग नहीं भी होता है तो भी इन नकारात्मक विचारों के फलस्वरूप कोई न कोई रोग उत्पन्न हो जाता है और वे वास्तव में रोगी बन जाते । इसके विपरीत जो स्वास्थ्य के प्रति सकारात्मक विचार रखते हैं, वे रोगी होने पर भी शीघ्र स्वस्थ्य हो जाते हैं। औषधियों तथा तरह- तरह की जड़ी- बूटियों का उपयोग कोई स्थाई लाभ नहीं करता, उनसे रोग के बाह्य लक्षण दब भर जाते हैं, रोग का मूल कारण नष्ट नहीं होता । सच बात तो यह है कि सम्पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति का प्रभावशाली उपाय आन्तरिक स्थिति का अनुकूल प्रयोग ही है । व्यक्ति की जीवनी शक्ति उसकी मनोदशाओं के अनुसार बढ़ती- घटती रहती है । यह शक्ति आरोग्य का आधार है, यदि रोगी के लिए ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जाय कि उसे अपने रोग के विषय में नकारात्मक सोचने का मौका ही न मिले, वह अधिक से अधिक प्रसन्न तथा उल्लसित रहने लगे, तो उसकी जीवनी- शक्ति बढ़ जाती फलस्वरूप रोग निवारण प्रारंभ हो जाता है ।
शरीर पर मस्तिष्क का पूर्ण नियंत्रण होता है एनेस्थीसिया देकर जब मस्तिष्क को संज्ञा शून्य कर दिया जाता है तब शरीर में आंतरिक अवयवों के सक्रिय रहते हुए भी शरीर मुर्दे की तरह हो जाता है | इसी तरह से पागल,नशेड़ी,मानसिक विकारों से ग्रस्त व्यक्तियों को भी देखा जा सकता है, इन सब का शरीर ठीक- ठाक होते हुए भी सिर्फ मस्तिष्क के असंतुलित होने के कारण ही तो उपहास या दया के पात्र बनना पड़ता हैं | इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भले ही शरीर में श्वसन,रक्तसंचरण,पाचन,आत्मसातीकरण,उत्सर्जन आदि क्रियायों का महत्व है परन्तु सर्वाधिक महत्व मस्तिष्क की चेतना प्रवाह क्रिया का ही है।
आरोग्यता के लिए मनःशक्ति का प्रयोग :
मन जो विचार करता है ,बुद्धि उसे प्राप्त करने के उपाय तलाशने लग जाती है | विचारों के एक स्थान पर केन्द्रित होते रहने पर उनकी सूक्ष्म चेतनशक्ति घनीभूत होती जाती है जिससे एक प्रचण्ड शक्ति का उद्भव होता है । परिणामस्वरूप विचार के अनुसार ही परिस्थितियां बनने लगती हैं | यह स्थिति मात्र शरीर तक ही सीमित नही है –अन्य क्षेत्रों में भी चाहे वह हमारा आर्थिक क्षेत्र हो सामाजिक या अन्य कोई क्षेत्र , सबमें यही सिद्धांत लागू होता है | मन जैसा विचारता है वैसी ही प्रतिक्रिया वातावरण में होती है। यह स्थिति एक प्रकार से कुएं की प्रतिध्वनि की तरह है कि कुएं में जैसी ध्वनि की, ठीक वैसी ही प्रतिध्वनि वापस आ गयी | बल्कि ध्वनि से भी तेज प्रतिध्वनि बन गयी | मनुष्य जैसा सोचता है उसके आसपास वैसी ही परिस्थितियां बनने लगती हैं । विचार शक्ति अपने समानधर्मी विचारों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। एक ही प्रकार के विचारों के घनीभूत होने पर विचार के अनुसार ही क्रिया प्रारंभ हो जाती है,फलस्वरूप वैसे ही स्थूल परिणाम प्राप्त हो जाते हैं । भय, चिन्ता और निराशा में डूबे रहने वाले मनुष्य के सामने ठीक वैसी ही परिस्थितियाँ आ जाती हैं जैसी कि वे सोचते रहते हैं । व्यक्ति जिस प्रकार के विचारों को प्रश्रय देता है उसके अनुसार ही उसका रहन-सहन,मुद्रा आदि बन जाते हैं | यदि स्वास्थ्य की कामना करने वाला व्यक्ति इस प्रकार विचार करे कि - मेरा रोग साधारण है, मेरा उपचार उपयुक्त व पर्याप्त ढंग से हो रहा है, दिन-प्रतिदिन मेरा रोग घटता जा रहा है एवं मैं अपने अन्दर एक स्फूर्ति, चेतना और आरोग्य की तरंग अनुभव कर रहा हूँ । मेरे आरोग्यता प्राप्ति में अब अधिक समय नही लगेगा। जब इस प्रकार के विचार बार-बार किये जायेंगे तो विचारों के अणु घनीभूत होकर सम्पूर्ण स्वास्थ्य का मार्ग प्रशस्त करने लग जायेंगे |
विचारों का शरीर पर प्रभाव :
व्यक्ति जिस प्रकार के विचारों में रहता है उसके चेहरे पर उनका प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगता है | विचारों का यह प्रभाव चेहरे या बाह्य अंगो तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि आंतरिक अवयवों जैसे -पाचन, रक्त संचार एवं वायु प्रवाह उत्पन्न करने वाले अंगों पर भी पड़ता है । आमाशय, आँत, फुफ्फुस, हृदय, यकृत, वृक्क, मूत्राशय, मस्तिष्क, नेत्र, कान, शिश्न, जिह्वा जैसे भीतरी अंगों पर भी उनका असर होता है और उनकी कार्य प्रणाली एवं गतिविधि में मन्दता, तीव्रता, अव्यवस्था तथा व्यतिक्रम आदि पर प्रभाव विचारों के अनुसार ही परिलक्षित होने लगता है |
नकारात्मक एवं कुविचारों का प्रभाव शरीर पर अत्यंत घातक रूप में पड़ता है । इनके प्रभाव से शरीर में ऐसी शिथिलता एवं विकृति उत्पन्न हो जाती है कि पाचन रक्त संचार आदि प्रक्रिया में गतिरोध उत्पन्न होने से रोग लक्षण उत्पन्न होने लगते हैं | यदि यही प्रक्रिया लगातार चलती रहे तो स्वस्थ्य व्यक्ति भी रोगी हो जाता है । मनःस्थिति अथवा विचारों का शरीर पर कैसा होता है यह इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है - एक माता को एक दिन किसी बात पर बहुत क्रोध हो आ रहा था,स्थिति यह थी कि क्रोध में उसके मुंह से झाग निकल रहा था | आवेश में उसका पूरा शरीर कांप रहा था। उसी आवेश की अवस्था में अपने बच्चे को स्तनपान कराया और एक घण्टे के भीतर ही बच्चे की हालत खराब हो गई एवं अंततः उसकी मृत्यु हो गई। शव परीक्षा के परिणाम से विदित हुआ कि मानसिक क्षोभ के कारण माता का रक्त तीक्ष्ण परमाणुओं से विषैला हो गया और उसके प्रभाव से उसका दूध भी विषाक्त हो गया था, जिसे पी लेने से बच्चे की मृत्यु हो गई।
मन:स्थिति के सदर्भ में रायल मेडिकल सोसायटी के चिकित्साविज्ञानी डा. ग्लॉस्टन का कहना है कि “शारीरिक रोग उत्पन्न होने से लेकर निरोग होने अथवा कष्टसाध्य बनने में मानसिक स्थिति की बहुत बड़ी भूमिका होती है। मन को सशक्त एवं सकारात्मक बनाकर कठिन से कठिन रोगों पर विजय पाई जा सकती है । विकृत मन:स्थिति मनुष्य को राक्षस या जिंदा लाश बनाकर छोड़ देती है। यह सब हमारी इच्छा-आकांक्षा एवं विचारणा पर निर्भर करता है कि हम स्वास्थ्य-समुन्नत बनें अथवा रूग्ण एवं हेय । रोगोत्पत्ति या रोगों के उतार-चढ़ाव में जितना गहरा संबंध शारीरिक कारणों अथवा परिस्थितियों का माना जाता है उससे कहीं अधिक गहरा प्रभाव मनोदशा का पड़ता है। यदि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से सुदृढ़ हो तो फिर रोगों की संभावना बहुत ही कम रह जाती है। आक्रमण करने पर भी रोग बहुत समय तक ठहर नहीं सकेंगे। मन की प्रगति या अवगति ही रूग्णता या निरोगता का मूल है। इस तथ्य को समझना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।“
सकारात्मक भोजन से आरोग्य प्राप्ति :
सम्पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति हेतु अपने रोग के प्रति सकारात्मकता तो आवश्यक है ही इसके अतिरिक्त हमारा भोजन जिसे प्राकृतिक चिकित्सा में औषधि की संज्ञा दी गयी है का निर्माण से लेकर एवं ग्रहण करने तक जो मनोभाव रहने चाहिए वे समझना आवश्यक है |
जो भोजन ग्रहण करते हैं, उसके द्वारा शरीर का पोषण और नव निर्माण ही नहीं होता, अपितु भोजन करते समय व्यक्ति की जो मन:स्थिति होती है एवं जिन संस्कारों या वातावरण में भोजन ग्रहण किया जाता हैं, वे मनोभाव, विचार एवं भावनाएं भी अलक्षित रूप में भोजन और जल के साथ शरीर ग्रहण कर लेता हैं | भोजन कितना भी प्राकृतिक क्यों न हो यदि उसको बनाते समय रसोइया की मनःस्थिति एवं भोजन करते समय ग्राही की मनःस्थिति सात्विक व सकारात्मक नही है तो वह प्राकृतिक भोजन भी शरीर में विष का कार्य करता है | इसलिए सम्पूर्ण स्वास्थ्य पाने के लिए भोजन के सन्दर्भ में इन बिन्दुओं को धयान रखना आवश्यक है –
भोजन बनाने वाले का व्यक्तित्व
भोजन को बनाते समय रसोईये की प्रवृत्ति,मनःस्थिति एवं शारीरिक स्थिति का अच्छा या बुरा प्रभाव भोजन पर पड़ता है | अतृप्त, भूखा, लालची, क्रोधी, हिंसावृत्ति युक्त, गंदा रसोइया अपने सम्पर्क से ही भोजन को दूषित कर देता है। एक तो वह शरीर या वस्त्रों से स्वच्छ नहीं होता दूसरे उसकी उपर्युक्त मन:स्थिति भोजन को दूषित कर देती है । यह भोजन विष के समान हो जाता है । बाजार में भी बिकने वाले भोजन, मिठाइयां, नमकीन, दूध इत्यादि असंख्य अतृप्त भूखे व्यक्तियों की लुब्ध दृष्टियां पड़कर उन्हें दूषित बना देती हैं। अत: वे ऐसे विचार अणुओं से इतना अधिक दूषित हो जाते हैं कि शरीर के लिए अस्वास्थ्यकर हो जाते हैं | अतः सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को ऐसे खाद्यों से बचना ही हितकर है |इस तथ्य का हमेशा ध्यान रखें कि भोजन बनाने वाले की वृत्ति सात्विक हो , वह रोगी न हो, भूखा न हो | वह प्रेमपूर्ण भाव से भोजन तैयार करने वाला हो |
भोजन ग्रहण करते समय मन:स्थिति की आन्तरिक स्वच्छता आवश्यक है,अर्थात भोजन के समय जैसे बाह्य स्वच्छ्ता आवश्यक है उसी प्रकार हमारे विचारों की सात्विकता भी आवश्यक है। जैसे अच्छे –बुरे विचार होंगे वैसा ही प्रभाव भोजन पर पड़ेगा फलस्वरूप भोजन से मिलने वाले पोषण में भी विचारों के अनुरूप अधिकता या न्यूनता आ जाएगी | यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि उत्तम से उत्तम भोजन दूषित मन:स्थिति से विकारयुक्त अथवा विषमय हो जाता है।
चिन्ता, आवेश, क्रोध, जल्दबाज़ी, चिड़चिड़ापन, आदि उद्वेगों की स्थिति में किया गया भोजन विषैला हो जाता है। यह शरीर को पोषित करने के स्थान पर हानि पहुंचाता और पाचन-क्रिया को विकारमय कर देता है।
क्रोध की स्थिति में किये गए भोजन का ढंग से पाचन नही हो पाता |
चिंतित मन:स्थिति में किया गया भोजन आमाशय में अल्सर जैसा घातक रोग उत्पन्न कर सकता है ।
इसके विपरीत आनंद एवं सकारात्मक विचारों के साथ किया गया भोजन स्वास्थ्य पर जादू-जैसा गुणकारी प्रभाव डालता है। अन्त:करण की शान्त-सुखद वृत्ति में किये हुए भोजन के साथ-साथ हम प्रसन्नता, सुख-शान्ति और उत्साह की स्वस्थ भावनाएं भी ग्रहण करते हैं फलस्वरूप इसका स्वास्थ्यप्रद प्रभाव शरीर पर पड़ता है। अतः
भोजन स्वच्छ स्थान पर शान्तिपूर्वक प्रसन्न मुद्रा से ग्रहण करें । जो कुछ रूखा-सूखा प्राप्त हुआ है, उसे भगवान् का प्रसाद मानकर ग्रहण करें । भोजन जब सामने आये, तब नेत्र बंदकर ईश्वर का चिन्तन करते हुए करें | पुनः स्मरण रखें - मन में जैसी विचारधाराएं उठती हैं शरीर उनका उसी के अनुरूप प्रभाव पड़ता है।
विचार के विषय में महापुरुषों का चिंतन :
स्वामी रामतीर्थ जी के अनुसार - ‘‘मनुष्य के जैसे विचार होते हैं वैसा ही उसका जीवन बनता है।“
स्वामी विवेकानन्द जी के अनुसार - ‘‘स्वर्ग और नरक कहीं अन्यत्र नहीं, इनका निवास हमारे विचारों में ही है।“
भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए कहा था- ‘‘भिक्षुओ! वर्तमान में हम जो कुछ हैं अपने विचारों के ही कारण और भविष्य में जो कुछ भी बनेंगे वह भी अपने विचारों के कारण।“
शेक्सपीयर ने लिखा है- ‘‘कोई वस्तु अच्छी या बुरी नहीं है। अच्छाई- बुराई का आधार हमारे विचार ही हैं।“
ईसामसीह ने कहा था- ‘‘मनुष्य के जैसे विचार होते हैं वैसा ही वह बन जाता है।“
प्रसिद्ध रोमन दार्शनिक मार्क्स आरीलियस ने कहा है- ‘‘हमारा जीवन जो कुछ भी है, हमारे अपने ही विचारों के फलस्वरूप है।“
प्रसिद्ध अमरीकी लेखक डेल कार्नेगी ने अपने अनुभवों पर आधारित तथ्य प्रकट करते हुए लिखा है- ‘‘जीवन में मैंने सबसे महत्त्वपूर्ण कोई बात सीखी है तो वह है विचारों की अपूर्व शक्ति और महत्ता, विचारों की शक्ति सर्वोच्च तथा अपार है.
(- डॉ.कैलाश द्विवेदी)