जेएनयू में पिछले
दिनों "देश की
बर्बादी तक जंग
जारी रखने", "कश्मीर
की आजादी" और
पाकिस्तान के समर्थन
जैसे नारों से
मुझे आहत हुई
है। पूर्व सैनिकों
ने देशद्रोहियों को
पनाह देने वाले
जेएनयू से प्राप्त
डिग्री को वापस
करने का फैसला
किया है। जेएनयू में
पढ़ाई करने के
कारण मुझे भी
घोर निराशा हुई
है। मैं मानता
हूँ कि अन्य
विश्वविद्यालयों की तुलना
में यहां राष्ट्र
विरोधी तत्व कहीं
अधिक रहे हैं।
इसका कारण इसके
अभ्युदय काल से
ही वामपंथ की
ओर झुकाव रहा
है। आरम्भ में
ही वामपंथी शिक्षकों
को यहां जगह
दी गयी जिससे
यहां शिक्षक बनने
के लिए वामपंथी
होना एक पूर्वशर्त
हो गयी। धीरे-धीरे इन
शिक्षकों ने अपने
पाठ्यक्रमों में जरुरत
से कहीं जयादा
वामपंथ पर बल
दिया। परिणामस्वरुप
छात्र इस विचारधारा
से अवगत होने
लगे और रैडिकल
होना इनके लिए
एक फैशन हो
गया। वैसे
भी शिक्षण संस्थानों
में राजनीति के
लिए कोई जगह
नहीं होनी चाहिए।
चाहे वह राजनीति
शिक्षकों के
बीच हो या
फिर छात्रों के बीच।
जेएनयू में अंडरग्रेजुएट
कोर्सेज न होने
के कारण विशेषकर
कला तथा मानविकी
जैसे क्षेत्रों में
शिक्षकों के पास
अपेक्षाकृत अधिक फुर्सत
होती है। ऐसे
फुर्सती शिक्षक अतिवादी विचारधाराओं
का पोषण करते
हैं। समय आ
गया जब यहां
अंडरग्रेजुएट कोर्सेज शुरू किये
जाएँ और हर
तरह की राजनीति
पर पाबंदी लगे। यह
सोचने वाली बात
है की आखिर
क्यों प्राइवेट संस्थानों
में ऐसी राजनीति
नहीं है। दरअसल सभी माता-पिता अपने
बच्चों के लिए
ऐसे ही संस्थान
की कल्पना करते
हैं जहां ऐसी
राजनीति के लिए
कोई जगह न
हो। होगा
यह कि धीरे-धीरे सरकारी
संस्थाओं का क्षरण
होगा और समाज
का पढ़ा-लिखा
तबका अपने बच्चों
को प्राइवेट संस्थानों
में भेजना पसंद
करेगा। अभी प्रोफेशनल
कोर्सेज में प्राइवेट
शिक्षा का हिस्सा
जहां 80% के
आस-पास है
वहीं जेनेरल शिक्षा
में यह हिस्सा
लगभग 50% है। प्राइवेट
शिक्षा की वृद्धि
दर इतनी तेज
है कि थोड़े
ही समय में
उच्च शिक्षा पर
भी इसका वैसा
ही दबदबा होने
वाला है जैसा
कि स्कूली शिक्षा
पर है। अतः समय
रहते ही चेत
जाना चाहिए नहीं
तो जेएनयू जैसे
संस्थानों का पतन
अवश्यम्भावी है।
हमारे देखते देखते बॉम्बे
और कलकत्ता यूनिवर्सिटी
तथा प्रेसीडेंसी कॉलेज
जैसी जगप्रसिद्ध संस्थाएं
दम तोड़ रही
हैं।