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कंगाल होता जनतंत्र

4 अक्टूबर 2015

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समीक्षक – एम.एम.चन्द्रा

 

‘कंगाल होता जनतंत्र’ अनिल कुमार शर्मा का पहला काव्य संग्रह है. यह संग्रह पिछले दो दशकों के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र का एक ऐसा दस्तावेज़ है जिसने न सिर्फ लेखक की चेतना का ही निर्माण किया बल्कि आम जनमानस की चेतना की निर्माण प्रकिया को आसानी से समझने का प्रयास किया.

सन् 1993 से लेकर आज तक का हमारा समय वैचारिक विभ्रम, विघटन, उत्थान और पतन के दौर से गुजर रहा है. यह काव्य संग्रह मुझे ऐसे समय में पढ़ने को मिला जब नये रचनाकारों पर सवाल दर सवाल दागे जा रहे हैं. ऐसे समय में अनिल कुमार की रचनाएँ साहित्य जगत में बहुत सी संभावनाओं को जन्म देती हैं. ‘कली रहने दो’ एक लम्बी कविता है जिसमें ‘डर’ विभिन्न रूपों में हमारे सामने आता है और कहता है कि-

तुम मत उगो सूरज

तुम्हारे डूबने उगने से

मेरे हसीन बचपन में कोई नयापन नहीं आता

 

1992-93 के उस मंजर को अनिल ने बहुत ही गम्भीरता से महसूस किया है जब देश में अराजकता, साम्प्रदायिकता और धार्मिक उन्मांद आज की तरह ही अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया था तब ऐसे समय में अनिल कुमार की कविताये अपने से संवाद करती हुई दिखाई देती है- 

     

ईश्वर होने का कितना बड़ा प्रपंच

धर्म की ज्वाला कितनी प्रचंड

रक्तपात होते हैं

अपने स्वकृत ईश्वर की स्थापना में

जो शाश्वत है

न विगत है

न आगत है

गढ़े मूल्यों की परिधि में

विवाद है

एकांगी सोच के नशे में

अब जागती हुई नींद आधी है

 

1990 के दशक में शुरू हुई भारत की विकास यात्रा भारत निर्माण, ग्लोबल विलेज, शाइनिंग इण्डिया इत्यादि मुहावरों की यथास्थिति 2010 आते-आते लेखक की नजरों में एकदम साफ़ हो जाती है. इसी का नतीजा है कि भूमंडलीकरण का सब्जबाग़ और उसकी नियति अब नये तरह की सभ्यता और संस्कृति को जन्म दे रही है जिससे कोई भी अछूता नहीं है-

भूमंडलीकरण के चंगुल में

बाजार का विस्तार होगा

खरीदने बेचने का व्यवहार होगा

यही सभ्यता और संस्कार होगा

भावनाओं का मोल-भाव होगा

बिकाऊ सद्भाव होगा

सारा विश्व एक गाँव होगा

 

भूमंडलीकरण से जहाँ एक तरफ देश की रहस्मय बीमारियों से लड़ने के लिए फाइफ स्टार जैसे अस्पताल भारतीय महानगरों की शोभा बढ़ा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ गरीब लोग छोटी-छोटी बीमारियों में बगैर इलाज के मर रहे हैं. निजीकरण की आंधी ने बिमारियों को भी एक अच्छा धंधा बना दिया है-

क्लीनिक के आगे दो कतार है

एक में बीमार हैं

दूसरे में एम.आर. हैं

एक दवा खायेगा

दूसरा दवा खपायेगा

 

युवा रचनाकार के सामने सही मूल्यांकन का सवाल बहुत बड़ा होता है. सही साहित्य की समझ को बनाये रखने के लिए युवा रचनाकारों को सचेत करते हुए अनिल कुमार इशारा करते हैं कि आलोचना के सांचे बन चुके हैं उसके झांसे में आने से बचने की आवश्यकता है -

ये आलोचना तो सात अंधों की जुबान है

जो एक हाथी के जिस्म की कहानी है

समग्र खंडित है

बहुत बड़ा पंडित है

 

साधु-संतो के वेश में चोर, लुटेरे, बलात्कारी, अंधविश्वासी समाज में भरे हुए है. वे देश की भोली-भाली जनता को अपना जाल बिछा कर फंसाती है और जनता को मुर्ख बनाने के गोरखधंधे को देश के हर कोने में फैला रही है. वे अन्धविश्वासी, तार्किक परम्परा का गला घोटने के लिए नये तौर-तरीकों से पुराने मूल्यों को जबरदस्ती थोप रहे हैं-

अध्यात्मिक अलगाव की बुझे राख को...

पुराने मूल्यों के नाश्ते को

नई तकनीक की गोली से पचा रहे थे

और मीडिया संविधान की धाराओं में

बड़ी ही सुरक्षित गुफा तलाश रहा था

या यों कहें कि देश चला रहा था .

 

भारतीय जनतंत्र में भीड़ के द्वारा मोर्चा, अनशन, विरोध-प्रदर्शन एवं भूख हड़ताल जैसी कार्यवाही के पीछे नेताओं की हकीकत को अनिल कुमार की कविता बेनकाब ही नहीं करती बल्कि भारतीय जनतंत्र की खोखली हो रही जमीन को और भी खोदने की काम करती है. ‘कंगाल होता जनतंत्र’ भी बाकी कविताओं की तरह लम्बी कविता है जिसमें कंगाल होते भारतीय जनतंत्र को चिन्हित किया गया है-

विदेशी पूँजी से छलकते हुए

समृद्धि की हवाओं से

कंगाल होता जनतंत्र हूँ

 

लेखक भारतीय जनतंत्र पर प्रश्न चिन्ह लगाने का प्रयास ही नहीं करता बल्कि उसकी जर-जर होती सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक सच्चाइयों को सामने लाता है-

इस देश महान में खेत में खलिहान में

बाबा के संविधान में

सिद्धांत यह है कि समानता का अधिकार है

एक वैचारिक विकार है

सामान्य में कुछ विशेष है

विशेष में अति विशेष है

बाकी अवशेष है

 

मीडिया की भूमिका जनतंत्र में चौथे स्तम्भ के रूप में मानी जाती है लेकिन देशी-विदेशी पूँजी के गठजोड़ ने मीडिया के चरित्र को बदल दिया है. जहाँ मीडिया को जनपक्ष होना था वहीँ आज मीडिया सरकार की चाटुकारी करती नजर आती है. इस व्यवहार को लेखक ने अपनी कविता के रूप में इस प्रकार व्यक्त किया है-

यह मूल्यहीन अर्थव्यवस्था

डिब्बे बंद पूँजी तलाश रही है

उदारीकरण की वातानुकूलित हवा में खांस रही है

मीडिया उससे टपकते मधु को चाट रही है...

यह लोकतंत्र एक खिलौने की दुकान है...

सब मूल्य और तर्क तोड़ कर बाजार के लायक बना दो

जो बिक सके वही टिक सके

अब तो हद है कि न्यूज चैनलों में हो रहा दंगा है

अख़बार कैमरे की आँख से भी नंगा है...

तिकड़म तो बस यही है कि

जिसने लोकतंत्र कमा लिया

झोंपड़ी से महल बना लिया

 

भूखों, किसानों, मजदूरों के लिए भारतीय लोकतन्त्र के नारों के अनुभवों को अनिल कुमार ने खूब लताड़ा है. सड़ते हुए लोकतंत्र का विकल्प अनिल कुमार प्रस्तुत नहीं करते. वे सिर्फ कंगाल होते लोकतन्त्र की सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक ढांचे की सच्चाइयों को हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं. उनकी कविताएँ दुखद अनुभव और पीडाओं से गुजरी हैं लेकिन इसके बावजूद अनिल कुमार शर्मा की उम्मीद अभी भी जिन्दा है क्योंकि ‘इन्कलाब अभी जिन्दा है’.

 

कंगाल होता जनतंत्र : अनिल कुमार शर्मा | विकल्प प्रकाशन | कीमत : न 300 रुपये 

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