जब भगवान् वामन अवतार धारण करके महाराज बलि से तीन पग भूमि की याचना करके उनका सर्वस्व हर लिए और महाराज बलि को सुतल लोक भेज दिया |और कहा कि यह लोक सुख सम्पदा से भरपूर होने के कारण स्वर्ग वासियों से भी अभिलषित है-
सुतलं स्वर्गिभिः प्रार्थ्यं-भा.पु.-८/२२/३३,
मैं बंधू बांधवों के सहित तुम्हारी रक्षा करूँगा और तुम मुझे वहां सर्वदा अपने पास ही देखोगे—
रक्षिष्ये सर्वतोsहं त्वां सानुगं सपरिच्छदम् |
सदा संनिहितं वीर तत्र मां द्रक्ष्यते भवान् ||-भ.-८/२२/३५,
भगवान महाराज बलि के दुर्गपाल बन गए | भक्त प्रहलाद स्पष्ट कह रहे हैं कि हे सम्पूर्ण लोकों से अभिवन्द्य ब्रह्मा शिव आदि से वन्दनीय चरण वाले प्रभो ! आप तो हम असुरों के दुर्गपाल*द्वारपाल बन गए | आपकी यह कृपा न तो ब्रह्मा जी प्राप्त कर सके न लक्ष्मी जी या शंकर जी ही | फिर अन्य लोगों की बात ही क्या ?-
नेमं विरिञ्चो लभते प्रसादं न श्रीर्न शर्वः किमुता परे ते |
यन्नोsसुराणामसि दुर्गपालो विश्वाभिवन्द्यैरपिवन्दिताङ्घ्रिः || -भा. पु.—८/२३/६,
भगवान कह रहे हैं कि हे महाराज बलि आप अपने सुतल लोक में मुझे गदा हाथ में लिए हुए नित्य देखोगे—नित्यं द्रष्टासि मां तत्र गदापाणिमवस्थितम् |-भा.पु.-८/२३/१०,
जब भगवान् महाराज बलि के द्वारपाल बन कर रहने लगे तब लक्ष्मी जी ने देवर्षि नारद से उनके मुक्ति की चर्चा चलाई | अंततः देवर्षि और भगवती रमा विप्र वेश में महाराज बलि के यहाँ पहुँच गए | विप्रवेशधारी नारद जी से महाराज बलि ने आगमन का कारण पूंछा तो उन्होंने कहा कि मेरी इस पुत्री को कोई भाई नही है, इसलिए यह आपको भाई बनाकर राखी बांधना चाहती है |
महाराज ने सहर्ष स्वीकृति दे दी, बहन मानकर राखी बंधवाये और बोले बहना ! तुम्हे जो भी अच्छा लगे अपने इस भाई से मांग लो | लक्ष्मी जी को इसी की तो प्रतीक्षा थी,उन्होंने महाराज से उनके द्वारपाल की याचना की | वाह महाराज बलि, आपने विना आगे पीछे सोचे ही अपने द्वारपाल भगवान् को अथवा ऐसा कहें कि अपने सर्वस्व को अपनी बहन को समर्पित कर दिया | दोनों ने महाराज को दर्शन दिया और लक्ष्मी जी अपने स्वामी को लेकर लौट आयीं |
इसीलिये राखी बांधने पर यह मन्त्र बोलते हैं –
“ येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः |
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ” ||
रक्षाबंधन का समय— रक्षाबन्धन को उपाकर्म का अङ्ग कुछ विद्वानो ने माना है और कुछ विद्वान कहते हैं कि रक्षाबन्धन स्वतन्त्र कर्म है | अतः श्रावणी के बाद इसे किया जाय –यह अनिवार्य नही है | हाँ श्रावणी पौर्णमासी कर्म के प्रकरण में इसका कथन होने से श्रावण पूर्णिमा को ही इसे करना चाहिए |और अपराह्णकाल अर्थात् दिन के मध्य काल के बाद ही राखी बांधना सर्वोत्तम है—
“ ततोsपराह्णसमये रक्षापोटलिकां शुभाम् |
कारयेदक्षतैः शस्तैः सिद्धार्थैर्हेमभूषितैः ||-भविष्यपुराण-वीरमित्रोदय,
किन्तु यहाँ राजा और उनके पुरोहित की चर्चा होने से यह सबके लिए ग्राह्य नही है | जबकि इसे चारों वर्णों से भिन्न लोगों के लिए भी आवश्यक बतलाया गया है – विप्र पूजन करके ब्राह्मण ,क्षत्रिय वैश्य और शूद्र आदि रक्षाबन्धन मनाएं | इस प्रकार विधिपूर्वक जो रक्षाबंधन करता है, वह सम्पूर्ण दोषों से रहित होकर वर्ष भर सुखमय जीवन व्यतीत करता है—
“ ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैःशूद्रैश्चान्यैश्च मानवैः |
कर्तव्यो रक्षणाचारो विप्रान् संपूज्य शक्तितः ||
अनेन विधिना यस्तु रक्षिकाबन्धमाचरेत् |
स सर्वदोषरहितः सुखं संवत्सरं वसेत् “ ||
-शब्दकल्पद्रुम, भाग 4, पृष्ठ 79-80,
श्रावणी कर्म श्रावण मास की पूर्णिमा को ही विहित है और उसी दिन रक्षाबन्धन भी मनाये जाने का विधान है |और श्रावणी कर्म भद्रा में नही करना चाहिए-
भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फ़ाल्गुनी तथा |
श्रावणी नृपतिं हन्ति ग्रामान् दहति फ़ाल्गुनी ||
श्लोक की प्रथम पंक्ति “ वीरमित्रोदय “ में उद्धृत है और वहां स्पष्ट लिखा है कि इस कर्म को भद्रा में नही करना चाहिए—
“इदं च भद्रायां न कार्यम् ”-समयप्रकाश,उपाकर्मकालनिर्णय,पृष्ठ ९०. भद्रा मे श्रावणी कर्म होने पर राजा अर्थात्आज की भाषा मे गृहस्वामी या किसी प्रधान व्यक्ति कि मृत्यु होती है-
“ भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फ़ाल्गुनी तथा |
श्रावणी नृपतिं हन्ति ग्रामान् दहति फ़ाल्गुनी ”||
यहाँ भद्रा काल का निषेध है | इसका तात्पर्य शब्दकल्पद्रुमकार ने स्पष्ट कर दिया है कि भद्रा होने पर उसका समय बीतने के बाद ही श्रावणी कर्म करना चाहिए—
“ तत्र भद्रादि सद्भावे तामतिक्रम्यैव कुर्यात् ”||
२० अगस्त को उज्जैन के पञ्चाङ्ग के अनुसार ८बजकर ४६मिनट १३सेकेण्ड तक भद्रा है | और १० बजकर २१ मिनट तक चतुर्दशी भी है | अतः उस दिन दिन में पूर्णिमा न होने से “ पूर्णिमा को जो सूर्योदय होने पर स्नान तर्पण आदि कहा गया है, वह नही हो सकता, बाधित हो जायेगा —
“ संप्राप्ते श्रवणस्यान्ते पौर्णमास्यां दिनोदये |
स्नानं कुर्वीत मतिमान्श्रुतिस्मृतिविधानतः ||
ततो देवान् पितृन्श्चैव तर्पयेत् परमाम्भसा |
उपाकर्म दिवैवोक्तमृषीणां चैव तर्पणम् ”||
-भविष्योत्तर, वीरमित्रोदय,
अतः उस दिन उपाकर्म या श्रावणी कर्म करने से लाभ नही होगा, हानि की संभावना अधिक है | मनु स्मृति मे भी “ श्रावण्यां प्रौष्ठपद्यां—”४/९५, श्रावणी कर्म पूर्णिमा को ही कहा गया है ,कुल्लूक भट्ट ने श्रावणस्य पौर्णमास्यां ही व्याख्या की है |
२९ अगस्त को सूर्योदय काल में पूर्णिमा है | उदय काल की तिथि दान अध्ययन व्रत आदि कर्मों में ग्रहण की जाती है और उस दिन धनिष्ठा नक्षत्र भी है | श्रावण मास का धनिष्ठा नक्षत्र युक्त उपाकर्म सफल माना गया है – “ धनिष्ठासंयुतं कुर्यात् श्रावणं कर्म यद् भवेत् |
तत्कर्म सफ़लम् विद्यादुपाकरणसंज्ञितम् “||–वीरमित्रोद्य,
अतः २९ अगस्त को ही पूर्णिमा और धनिष्ठा नक्षत्र का सम्बन्ध होने से श्रावणी कर्म तथा रक्षाबन्धन मानना चाहिए |
कुछ लोग २८ अगस्त को ही रक्षाबन्धन और श्रावणी की बात करते हैं कि इसे अभिजित मुहूर्त में मना लिया जाय –उनका पक्ष पूर्वोक्त प्रमाणों से एकदम विरुद्ध है,क्योंकि वह अभिजित् मुहूर्त भद्रा के अंतर्गत ही तो है
| देखें-
" भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फ़ाल्गुनी तथा |
श्रावणी नृपतिं हन्ति ग्रामान् दहति फ़ाल्गुनी ”||
इसका तात्पर्य शब्दकल्पद्रुमकार ने स्पष्ट कर दिया है कि भद्रा होने पर उसका समय बीतने के बाद ही श्रावणी कर्म करना चाहिए—
“ तत्र भद्रादि सद्भावे तामतिक्रम्यैव कुर्यात् ”||
और उसी दिन रक्षाबंधन भी |
रक्षाबंधन त्यौंहार की लोक कथाएँ :
भविष्य पुराण में कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक बार बारह वर्षों तक देवासुर – संग्राम होता रहा, जिसमें देवताओं की हार हो रही थी. दुःखी और पराजित इन्द्र, गुरु बृहस्पति के पास गए. वहाँ इन्द्र की पत्नी शचि भी थीं. इन्द्र की व्यथा जानकर इन्द्राणी ने कहा – “कल ब्राह्मण शुक्ल पूर्णिमा है. मैं विधानपूर्वक रक्षासूत्र तैयार करूँगी. उसे आप स्वस्तिवाचन पूर्वक ब्राह्मणों से बंधवा लीजिएगा. आप अवश्य ही विजयी होंगे.” दूसरे दिन इन्द्र ने इन्द्राणी द्वारा बनाए रक्षाविधान का स्वस्तिवाचन पूर्वक बृहस्पति से रक्षाबंधन कराया, जिसके प्रभाव से इन्द्र सहित देवताओं की विजय हुई. तभी से यह “रक्षाबंधन” पर्व ब्राह्मणों के माध्यम से मनाया जाने लगा. इस दिन बहनें भी भाइयों की कलाई में रक्षासूत्र बाँधती हैं और उनके सुखद जीवन की कामना करती हैं.
स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है. कथा कुछ इस प्रकार है – दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की. तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे. गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी. भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया. इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्योहार “बलेव” नाम से भी प्रसिद्ध है. कहते हैं एक बार बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया. भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया. उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि से अपने साथ ले आयीं. उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी. विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिये फिर से प्राप्त किया था. हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है.
महाभारत में कृष्ण ने शिशुपाल का वध अपने चक्र से किया था. शिशुपाल का सिर काटने के बाद जब चक्र वापस कृष्ण के पास आया तो उस समय कृष्ण की उंगली कट गई भगवान कृष्ण की उंगली से रक्त बहने लगा. यह देखकर द्रौपदी ने अपनी साडी़ का किनारा फाड़ कर कृष्ण की उंगली में बांधा था, जिसको लेकर कृष्ण ने उसकी रक्षा करने का वचन दिया था. इसी ऋण को चुकाने के लिए दु:शासन द्वारा चीरहरण करते समय कृष्ण ने द्रौपदी की लाज रखी. तब से ”रक्षाबंधन” का पर्व मनाने का चलन चला आ रहा है.
रक्षाबंधन के विभिन्न स्वरूप :
राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बाँधने का रिवाज़ है. रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है. इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फूंदा लगा होता है. यह केवल भगवान को ही बाँधी जाती है. चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है.
महाराष्ट्र राज्य में यह त्योहार नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है. इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं. इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिये नारियल अर्पित करने की परम्परा भी है. यही कारण है कि इस एक दिन के लिये मुंबई के समुद्र तट नारियल के फलों से भर जाते हैं.
बुन्देलखण्ड में राखी को “कजरी-पूर्णिमा” भी कहा जाता है. इस दिन कटोरे में जौ व धान बोया जाता है तथा सात दिन तक पानी देते हुए माँ भगवती की वन्दना की जाती है.
उत्तरांचल के चम्पावत ज़िले के देवीधूरा मेले में राखी-पर्व पर बाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए पाषाणकाल से ही पत्थर युद्ध का आयोजन किया जाता रहा है, जिसे स्थानीय भाषा में “बग्वा” कहते हैं.
राखी के महत्व को साबित करते ऐतिहासिक प्रसंग
ग्रीक नरेश सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति की रक्षा के लिए उसके शत्रु पुरुराज को राखी बाँधी थी. युद्ध के समय पुरु ने जैसे ही सिकन्दर पर प्राण घातक आक्रमण किया, उसे उसकी कलाई पर बंधी रक्षा दिखाई दी, जिसके कारण उसने सिकन्दर को अभय प्रदान किया और युद्ध में अनेक बार सिकन्दर को प्राणदान दिया.
मध्यकालीन इतिहास में भी ऐसी ही एक घटना मिलती है. चित्तौड़ की हिन्दू रानी कर्णावती ने दिल्ली के मुग़ल बादशाह हुमायूं को अपना भाई मानकर उसके पास राखी भेजी थी. हुमायूँ ने उसकी राखी स्वीकार कर ली और उसके सम्मान की रक्षा के लिए गुजरात के बादशाह बहादुरशाह से युद्ध किया. महारानी कर्णावती की कथा इसके लिए अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिसने हुमायूँ को राखी भेजकर रक्षा के लिए आमंत्रित किया था. रानी कर्णावती ने सम्राट हुमायूँ के पास राखी भेजकर उसे अपना भाई बनाया था. सम्राट हुमायूँ ने रानी कर्णावती को अपनी बहन बनाकर उसकी दिलो – जान से मदद की थी. राखी के पवित्र बन्धन ने दोनों को बहन – भाई के पवित्र रिश्ते में बाँध दिया था.
बात उन दिनों की है जब क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे और फिरंगी उनके पीछे लगे थे. फिरंगियों से बचने के लिए शरण लेने हेतु आजाद एक तूफानी रात को एक घर में जा पहुंचे जहां एक विधवा अपनी बेटी के साथ रहती थी. हट्टे-कट्टे आजाद को डाकू समझ कर पहले तो वृद्धा ने शरण देने से इनकार कर दिया लेकिन जब आजाद ने अपना परिचय दिया तो उसने उन्हें ससम्मान अपने घर में शरण दे दी. बातचीत से आजाद को आभास हुआ कि गरीबी के कारण विधवा की बेटी की शादी में कठिनाई आ रही है. आजाद महिला को कहा, “मेरे सिर पर पांच हजार रुपए का इनाम है, आप फिरंगियों को मेरी सूचना देकर मेरी गिरफ़्तारी पर पांच हजार रुपए का इनाम पा सकती हैं जिससे आप अपनी बेटी का विवाह सम्पन्न करवा सकती हैं.” यह सुन विधवा रो पड़ी व कहा – “भैया! तुम देश की आजादी हेतु अपनी जान हथेली पर रखे घूमते हो और न जाने कितनी बहू-बेटियों की इज्जत तुम्हारे भरोसे है. मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती.” यह कहते हुए उसने एक रक्षा-सूत्र आजाद के हाथों में बाँध कर देश-सेवा का वचन लिया. सुबह जब विधवा की आँखें खुली तो आजाद जा चुके थे और तकिए के नीचे 5000 रूपये पड़े थे. उसके साथ एक पर्ची पर लिखा था – “अपनी प्यारी बहन हेतु एक छोटी सी भेंट- आजाद.”
किसी भी धार्मिक अनुष्ठान या पूजा पाठ - में रक्षासूत्र बांधते समय सभी आचार्य एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
यह श्लोक रक्षाबंधन का अभीष्ट मंत्र है।
" येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥"
अर्थात - जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षाबन्धन से मैं तुम्हें बांधता हूं जो तुम्हारी रक्षा करेगा।
रक्षाबंधन का त्यौहार श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। रक्षाबंधन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चांदी जैसी मंहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को बांधती हैं परंतु पुत्री द्वारा पिता को, दादा को, चाचा को आथवा कोई भी किसी को भी सम्बन्ध मधुर बनाने की भावना से, सुरक्षा की कामना के साथ रक्षासूत्र बाँध सकता है | प्रकृति संरक्षण के लिए वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा भी प्रारंभ हो गई है | सनातन परम्परा में किसी भी कर्मकांड व अनुष्ठान की पूर्णाहुति बिना रक्षा सूत्र बांधे पूरी नहीं होती | प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी, चावल, दीपक, मिष्ठान होते हैं। पहले अभीष्ट देवता और कुल देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीका करके उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनी कलाई पर राखी बांधी जाती है भाई बहन को उपहार आथवा शुभकामना प्रतिक धन देता है और उनकी रक्षा की प्रतिज्ञा लेता है। यह एक ऐसा पावन पर्व है जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को पूरा आदर और सम्मान देता है | रक्षाबंधन के अनुष्ठान के पूरा होने तक व्रत रखने की भी परंपरा है। पुरोहित तथा आचार्य सुबह सुबह ही यजमानों के घर पहुंचकर उन्हें राखी बांधते हैं और बदले में धन वस्त्र और भोजन आदि प्राप्त करते हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य भी इसके वर्णन से भरे पड़े है । सगे भाई बहन के अतिरिक्त अनेक भावनात्मक रिश्ते भी इस पर्व से बंधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से भी परे होते हैं। गुरू शिष्य को रक्षासूत्र बाँधता है तो शिष्य गुरू को। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षा सूत्र बाँधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बाँधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो। इसी परंपरा के अनुरूप आज भी किसी धार्मिक विधि विधान से पूर्व पुरोहित यजमान को रक्षा सूत्र बाँधता है और यजमान पुरोहित को। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिए परस्पर एक दूसरे को अपने बंधन में बाँधते हैं।
धार्मिक प्रसंग - अमरनाथ की अतिविख्यात धार्मिक यात्रा गुरुपूर्णिमा से प्रारंभ होकर रक्षाबंधन के दिन संपूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन यहाँ का हिमानी शिवलिंग भी पूरा होता है। इस दिन अमरनाथ गुफा में प्रत्येक वर्ष मेला भी लगता है | व्रज में हरियाली तीज (श्रावण शुक्ल तृतीया) से श्रावणी पूर्णिमा तक समस्त मंदिरों एवं घरों में ठाकुर झूले में विराजमान होते हैं। रक्षाबंधन वाले दिन झूलन-दर्शन समाप्त होते हैं।
पौराणिक प्रसंग
- राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इंद्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर के अपने पति के हाथ पर बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इंद्र इस लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन,शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह सामर्थ माना जाता है। स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा मांगी। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकानाचूर कर देने के कारण यह त्योहार 'बलेव' नाम से भी प्रसिद्ध है। कहते हैं कि जब बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान से रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भागवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।
कब बांधे रक्षाबंधन - रक्षाबंधन शास्त्रोक्त विधि से बांधना ही उचित होता है, क्योंकि भद्रा के आने से शुभ और अशुभ का विचार करना होता है। ध्यान रहे कि रक्षाबंधन, भैय्या दूज आदि पर्वो में पंचक नक्षत्र का कहीं भी विचार नहीं किया जाता है। भद्रा में रक्षासूत्र बांधने से हो सकती है परेशानी - निर्णय सिंधु के अनुसार "भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी" अर्थात भद्रा में रक्षाबंधन बांधने से प्रजा का अशुभ होता है और होलिका दहन करने से राजा के लिए अशुभ होता है।
उपाकर्म संस्कार
इसके अतिरिक्त इस दिन पौरोहित्य कर्म से जुड़े (दान दक्षिणा लेने वाले, यजमान के निमित्त पूजा पाठ करने वाले) ब्राह्मणों का विशेष पर्व श्रावणी उपाकर्म भी होता है | साधु - संतो, ब्राह्मणों, पूजा - पाठ आदि कर्म से जुड़े कर्मकांड़ियों के बीच यह पर्व श्रावणी के नाम से विख्यात है। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिए यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। दूध, दही, घी, गोबर और गऊ मूत्र मिलाकर पंचगव्य बनाते हैं और उसे पान करते हैं तथा हवन करते हैं। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। इसे उपाकर्म कहते हैं, ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। ऋषि - महर्षि उपाकर्म कराकर व्यक्तियों को विद्या - अध्ययन कराना आरम्भ करते हैं। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं। बीते वर्ष के पुराने पापों को पुराने यज्ञोपवीत की भांति त्याग देने और स्वच्छ नवीन यज्ञोपवीत की भांति नया जीवन प्रारंभ करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। इस दिन यजुर्वेदीय ब्राह्मण 6 महीनों के लिए वेद का अध्ययन प्रारंभ करते हैं। इस पर्व का एक नाम उपक्रमण भी है जिसका अर्थ है- नई शुरूआत। उपाकर्म संस्कार कराकर जब व्यक्ति अपने घर लौटते हैं तब बहनें उनका स्वागत करती हैं और उनके दाएँ हाथ में राखी बाँधती हैं। इस विधान से भी श्रावणी शुक्ल पूर्णिमा को रक्षाबन्धन का त्योहार मनाया जाता है।