नाड़ी शास्त्र के अनुसार, मानव शरीर में स्थित चक्र, जिनमें मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूरक चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र एवं सहस्त्रार चक्र विद्यमान है। इन चक्रों का संबंध वास्तु विषय के जल-तत्व, अग्नि-तत्व, वायु-तत्व, पृथ्वी-तत्व एवं आकाश-तत्व से संबंधित है। वास्तु में पृथक दिशा के लिये अलग-अलग तत्व दिये गये हैं, जैसे ईशान के लिये जल-तत्व, आग्नेय के लिये अग्नि-तत्व, वायव्य के लिये वायु-तत्व, नैऋत के लिये पृथ्वी-तत्व एवं ब्रह्म-स्थल के लिये आकाश-तत्व का महत्व है।
जल-तत्व
वास्तु के अनुसार भूमिगत पानी के स्त्राsत ईशान में ही होने चाहिये। जिससे सुबह के समय सूर्य से मिलने वाली अल्ट्राव्हायलेट किरणों से जल की शुद्धि होती है एवं यह सूर्य रश्मियां जीवन को स्वास्थप्रद रखती है।
अग्नि-तत्व
सूर्य को सृष्टि का संचालक कहा जाता है, क्योंकि सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा शक्ति का हमारे जीवन में अत्याधिक महत्व है। सूर्य की सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव भवन की पूर्व, उत्तर, ईशान, पश्चिम-वायव्य एवं दक्षिण-आग्नेय दिशा से प्राप्त होता है। अत इन ऊर्जा शक्तियों से शुभ परिणाम प्राप्त करने के लिए उपरोक्त दिशाओं को खुला रखना अत्यंत आवश्यक होता है। इसके विपरीत दक्षिण, पश्चिम-नैऋत, उत्तर-वायव्य एवं पूर्व-आग्नेय को खुला एवं खाली रखने से सूर्य की हानीकारक एवं नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होता है, जो स्वास्थ्य एवं समृद्धि के लिये अत्यंत हानीकारक होती है।
वायु-तत्व
प्राण वायु (आक्सीजन) के बिना सृष्टि का चलना असंभव है, क्योंकि प्राण वायु के बिना जीव, निर्जीव हो जायेगा। मकान में वायु के आवागमन हेतु उचित स्थान बनाया जाना चाहिये, क्योंकि स्वच्छ एवं शुद्ध वायु का सेवन जीवन के स्वास्थ्य एवं दीर्घायु हेतु बहुत आवश्यक है। इसके विपरीत प्रदूषण युक्त एवं दूषित वायु के सेवन से अनेक प्रकार की बीमारियां पनपने का अंदेशा रहता है। अत रोगमुक्त एवं स्वास्थ्यवर्द्धक जीवन व्यतीत करने के लिये मकान में शुद्ध वायु का प्रवेश होना अत्यंत ही आवश्यक है।
यद्यपि वायु का आवागमन प्रत्येक दिशा से होता है, लेकिन स्वास्थ्य की दृष्टि से भवन निर्माण में वायु प्रवेश का विशेष ध्यान रखना परम आवश्यक है। इसके लिये उत्तर-पश्चिम दिशा, जिसे वायव्य कोण कहा जाता है। इस वायव्य कोण की पश्चिम-वायव्य दिशा, वायु के संचारण हेतु मुख्य रूप से उपयोगी मानी गयी है। इस दिशा से वायु-तत्व की प्राप्ति करना, प्राणियों के स्वास्थ्य, दीर्घायु एवं भवन के टिकाऊपन के लिये महत्वपूर्ण है।
पृथ्वी-तत्व
समस्त संसार आकर्षण और विकर्षण से प्रभावित होता है। पृथ्वी के उत्तर-दक्षिण दिशा में चुंबकीय ध्रुव विद्यमान रहते हैं। इससे हमें गुरुत्वाकर्षण की शक्ति मिलती है। यह चुंबकीय ऊर्जा शक्ति उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की तरफ चलती है और इस ऊर्जा शक्ति का प्रभाव सभी जड़-चेतन पर समान रूप से पड़ता है। उत्तरी ध्रुव के पास दक्षिणी ध्रुव आने से आकर्षण पैदा होता है।
मानव शरीर के मस्तिष्क में उत्तरी ध्रुव विद्यमान है, इसलिये वास्तु विषय में दक्षिण में मस्तिष्क एवं उत्तर दिशा की तरफ पांव करके सोने के लिये निर्देश दिया गया है। जिससे हमारे शरीर को चुंबकीय शक्ति एवं नैसर्गिक ऊर्जा शक्ति का लाभ मिलता है। आवास स्थल में उत्तम चुंबकीय किरणों का प्रभाव बनाये रखने के लिये पूर्व, उत्तर व ईशान दिशा में जगह का खुला एवं ढलान तथा दक्षिण, पश्चिम व नैऋत दिशा को ऊंचा, मजबूत एवं ढका हुआ होना अत्यंत आवश्यक है।
आकाश-तत्व
आकाश-तत्व एक मूल तत्व माना गया है। अत वास्तु विषय में इसे ब्रह्म-स्थल (मध्य स्थान) कहा जाता है। इस तत्व की पूर्ति करने के लिये पुराने जमाने में मकान के मध्य में खुला आँगन रखा जाता था, ताकि अन्य सभी दिशाओं में इस तत्व की आपूर्ति हो सके।
आकाश-तत्व से अभिप्राय यह है कि गृह निर्माण में खुलापन रहना चाहिये। मकान में कमरों की ऊँचाई और आँगन के आधार पर छत का निर्माण होना चाहिये। अधिक व कम ऊँचाई के कारण आकाश-तत्व प्रभावित होता है। कई मकानों में दूषित वायु (भूत-प्रेत) का प्रवेश एवं आवेश देखा गया है। इसका मूल कारण वायु-तत्व और आकाश-तत्व का सही निर्धारण नहीं होना ही पाया गया है। मानसिक रोगों का पनपना भी आकाश-तत्व के दोष का ही नतीजा पाया जाता है।
अत स्पष्ट तौर पर यह कहना मुनासिब होगा कि भू-गर्भीय ऊर्जा, चुंबकीय शक्ति, गुरुत्वाकर्षण बल, सूर्य रश्मियां, सौरमंडल की ऊर्जा, प्राकृतिक ऊर्जा इत्यादि का मानव जीवन के बीच समन्वय एवं संतुलन स्थापित करना ही वास्तु विषय का मुख्य उद्देश्य है। क्योंकि वास्तु के पंच-तत्वों का सीधा प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है।
अंत में यही कहा जा सकता है कि हमारा कर्तव्य है कि हम वास्तु के पंच-तत्वों की उपयोगिता के महत्व को समझें। भवन निर्माण में वास्तु विषय के सिद्धांतों का परिपालन करते हुए निर्धारित दिशाओं से ही इन तत्वों को प्राप्त करने का प्रयास करे। ताकि नव-निर्मित भवन, गृह स्वामी और उसके परिवार के लिये सुख-समृद्धिदायक और उन्नतिशील सिद्ध हो सके।