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खेचरी मुद्रा द्वारा अमृत पान

17 सितम्बर 2015

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खेचरी मुद्रा एक सरल किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण विधि है ।जब बच्चा माँ के गर्भ में रहता है तो इसी अवस्था में रहता है। इसमें जिह्वा को मोडकर तालू के ऊपरी हिस्से से सटाना होता है । निरंतर अभ्यास करते रहने से जिह्वा जब लम्बी हो जाती है । तब उसे नासिका रंध्रों में प्रवेश कराया जा सकता है । तब कपाल मार्ग एवं बिन्दुं विसर्ग से सम्बन्धित कुछ ग्रन्थियों में उद्दीपन होता है तो इसके परिणाम स्वरूप अमृत का स्त्राव आरम्भ होता है । उसी अमृत का स्त्राव होते वक्त एक विशेष प्रकार का अध्यात्मिक या मस्तीभरा अनुभव प्राप्त होता है । खेचरी मुद्रा को सिद्ध करने एवं अमृत के स्त्राव प्राप्ति हेतु आवश्यक उद्दीपन में कुछ वर्ष भी लग सकते हैं, किन्तु हो जाने पर ये जीवन के लिए एक बहुत बड़ी ही उपयोगी क्रिया है । जिव्हा का उलट कर तालु से लगाना और अनुभव करना कि इसके ऊपर सहस्रार अमृत कलश से रिस-रिस कर टपकने वाले सोमरस का जिव्हग्र भाग से पान किया जा रहा है । यही खेचरी मुद्रा है। तालु में मधुमक्खियों के छत्ते जैसे कोष्ठक होते हैं। सहस्रार को , सहस्र दल कमल की उपमा दी गई है। तालु सहस्र धारा है। उसके कोष्ठक शरीर शास्त्र की दृष्टि से उच्चारण एवं भोजन चबाने निगलने आदि के कार्यों में सहायता करते हैं। योगशास्त्र की दृष्टि से उनसे दिव्य स्राव निसृत होते हैं। ब्रह्म चेतना मानवी सम्पर्क में आते समय सर्वप्रथम ब्रह्मलोक में-ब्रह्मरंध्र में अवतरित होती है। इसके बाद वहाँ मनुष्य की स्थिति, आवश्यकता एवं आकांक्षा के अनुरूप काया के विभिन्न अवयवों में चली जाती है। शेष अंश अन्तरिक्ष में विलीन हो जाता है। साधना के दौरान जिव्हा द्वारा कटु वचन, हेय परामर्श, छल प्रपंच आदि नहीं करना चाहिए । यदि यह जिव्हा की कुण्डलिनी जागृत हो सके सुसंस्कृत बन सके तो आहार संयम के लिए जागरूक रहती है। बोलते समय प्रिय और हित का अमृत घोलती है। फलतः सम्भाषणकर्ता को श्रेय एवं सम्मान की अजस्र उपलब्धियाँ होती है। सुसंस्कृत जिव्हा के अनुदानों में कितनों को न जाने किन-किन वरदानों से लाद दिया है। प्रामाणिक और सुसंस्कृत वक्रता के आधार पर ही तो लोग अनेक क्षेत्रों में नेतृत्व करते और उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचे दिखाई पड़ते हैं। ऐसी ही अभ्य विशेषताओं के कारण जिव्हा को मुखर कुण्डलिनी कहा गया है और मुख को ऊर्ध्व मूलाधार बताया गया है। निम्न मूलाधार में कामबीज का और ऊर्ध्व मूलाधार मुख में-ज्ञान बीज का निर्झर झरता है। संयम साधना में जिव्हा का संयम होने पर कामेन्द्रिय का संयम सहज ही सध जाता है। जिव्हा में ऋण विद्युत की प्रधानता है। मस्तिष्क धन विद्युत का केन्द्र है। तालु मस्तिष्क की ही निचली परत है। जिव्हा को भावना पूर्ण तालु से लगाने पर आध्यात्मिक स्पन्दन आरम्भ होते हैं। उनसे उत्पन्न उत्तेजना से ब्रह्मानंद की अनुभूति का लाभ मिलता है। यह अनुभूति योगीजन को अमृत निर्झर का रसास्वादन करवाती है । जिव्हा की ‘ऋण’ विद्युत ब्रह्म लोक से-ब्रह्मरंध्र से अन्यान्य अनुदानों की सम्पदा के ‘धन’ भण्डार को अपने चुम्बकत्व से खींचती, घसीटती है और उसकी मात्रा बढ़ाते-बढ़ाते अपने अन्तः भण्डार को दिव्य विभूतियों से भरती चली जाती है। इन्हीं उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए खेचरी मुद्रा के द्वारा उत्पन्न लाभों का सुविस्तृत वर्णन योग ग्रन्थों में लिखा और अनुभवियों द्वारा बताया मिलता है। तालु और जिव्हा के हलके रगड़ से ऊर्जा स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को प्रभावित करती है। उन्हें बल देती है। यह ऊर्जा स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को प्रभावित करती है। उन्हें बल देती है सक्रिय करती है और समर्थ बनाती है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय कोशों के आवरण को खोलने में इससे सहायता मिलती है। षट्चक्रों को जागृत करने में भी खेचरी मुद्रा से उत्पन्न ऊर्जा की एक बड़ी भूमिका रहती है। इन्हीं सब कारणों को देखते हुए कुण्डलिनी जागरण में खेचरी मुद्रा को महत्त्व दिया गया है। क्रिया साधारण सी होते हुए भी प्रतिक्रिया की दृष्टि से उसका बहुत ऊँचा स्थान ज्ञान के विकास विस्तार में उससे असाधारण सहायता मिलती है।

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