योग के सिद्धियों को फलित करके सर्ष्टि संचालन के सिधान्तों को जाना व प्रयोग किया जा सकता है किन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि किस योग से क्या घटित होता है इसी विषय पर संक्षिप्त लेख प्रस्तुत किया जा रहा है सभी योग के सिद्धि को प्राप्त करने की प्रक्रिया अलग-अलग है अतः प्रक्रिया पर पुनः विचार किया जायेगा योग के सिद्धियों की संख्या बहुत अधिक है, नीचे हम कुछ महत्वपूर्ण सिद्धियों का संक्षिप्त में वर्णन कर रहे हैं—
(1) यह जगत संस्कारों (काल-समय) का परिणाम है और उन संस्कारों के क्रम में अदल-बदल होने से ही तरह-तरह के परिवर्तन होते रहते हैं। योगी इस तत्व को जान कर प्रत्येक वस्तु और घटना के ‘भूत’ तथा भविष्यत् का ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
(2) शब्द, अर्थ और ज्ञान का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है इनके ‘संयम’ (धारणा, ध्यान और समाधि, इन तीनों साधन क्रियाओं के एकीकरण को ‘संयम’ कहते हैं) से ‘सब प्राणियों की वाणी’ का ज्ञान हो जाता है।
(3) अति सूक्ष्म संस्कारों (काल-समय) को प्रत्यक्ष देख सकने के कारण योगी को किसी भी व्यक्ति के पूर्व जन्म या अगले जन्म का ज्ञान होता है।
(4)अपने ज्ञान में संयम करने पर दूसरों के चित्त का ज्ञान होता है। इसके द्वारा योगी प्रत्येक प्राणी के मन की बात जान सकता है।
(5) कायागत रूप में संयम करने से दूसरों के नेत्रों के प्रकाश का योगी के शरीर के साथ संयोग नहीं होता। इससे योगी का शरीर ‘अन्तर्धान’ हो जाता है। इसी प्रकार उसके शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध को भी पास में बैठा हुआ पुरुष नहीं जान सकता।
(6) ’सोपक्रम’ का अभ्यास करने से योगी को मृत्यु का पूर्व ज्ञान हो जाता है।
(7) सातवीं सिद्धि (ध्यान) से योगी के आत्म-बल का इतना विकास हो जाता है कि उसके मन पर इन्द्रियों का वश नहीं चलता।
(8) बल में संयम करने से योगी को हाथी, शेर, ग्राह, गरुड़ की शक्ति प्राप्त होती है।
(9) ज्योतिष्मती प्रकृति के प्रकाश को सूक्ष्म वस्तुओं पर न्यास्त करके संयम करने से सूक्ष्म, गुप्त और दूरस्थ पदार्थों का ज्ञान होता है। इससे वह जल या पृथ्वी के भीतर समस्त पदार्थों को देख सकने में समर्थ होता है।
(10) सूर्य नारायण में संयम करने से योगी को क्रमशः स्थूल और सूक्ष्म लोकों का ज्ञान होता है। सात स्वर्ग और सप्त पाताल सूक्ष्म लोक कहे जाते हैं। योगी का अन्यान्य ब्रह्मांडों का भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
(11) चंद्रमा में संयम करने से समस्त राशियों और नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त होता है।
(12) ध्रुव में संयम करने से समस्त ताराओं की गति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है।
(13) नाभि चक्र में संयम करने से योगी को शरीर के भीतरी अंगों का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। वात, पित्त, कफ ये तीन दोष किस रीति से हैं; चर्म, रुधिर, माँस, नख, हाथ, चर्बी और वीर्य ये सात धातुएँ किस प्रकार से हैं; नाड़ी आदि कैसी-कैसी हैं, इन सब का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
(14) कण्ठकूप में संयम करने से भूख और प्यास निवृत्त हो जाती है। मुख के भीतर उदर में वायु और आहार जाने के लिये जो कण्ठछिद्र है उसी का ‘कण्ठ कूप’ कहते हैं। यही पर पाँचवाँ चक्र स्थित है और क्षुधा, पिपासा आदि क्रियाओं का इससे घनिष्ठ सम्बन्ध है।
(15) कूर्म नाड़ी में संयम करने से मन अपनी चंचलता त्याग कर व्यक्ति स्थिर हो जाता है।
(16) कपाल की ज्योति में संयम करने से योगी को सिद्धजनों के दर्शन होते हैं। सिद्ध महात्मागण जीव श्रेणी से मुक्त होकर सृष्टि के कल्याणार्थ चौदह भुवन में विराजते हैं।
(17) योग-साधन करते समय ध्यानावस्था में दिखलाई पड़ने वाले ‘प्रातिभ’ नामक तारे में संयम करने से ज्ञान-राज्य की समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
(18) हृदय में संयम करने से चित्त का पूर्ण ज्ञान होता है। वैसे महामाया की माया से कोई चित्त का पूर्ण स्वरूप नहीं जान पाता, पर जब योगी हृदयकमल पर संयम करता है तो अपने चित्त का पूर्ण ज्ञाता प्राप्त कर लेता है।
(19) बुद्धि की चिद्भाव अवस्था में संयम करने से पुरुष के स्वरूप का ज्ञान होता है। इससे योगी को (1) प्रातिभ, (2) श्रावण, (3) वेदन, (4) आदर्श, (5) आस्वाद और (6) वार्ता—ये षट्सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
(20) बन्धन का जो कारण है उसके शिथिल हो जाने से और संयम द्वारा चित्त की प्रवेश निर्गमन मार्ग नाड़ी का ज्ञान हो जाने से योगी किसी भी शरीर में प्रवेश कर सकता है। यही परकाया प्रवेश की सिद्ध है।
(21) उदान वायु को जीतने से जल, कीचड़ और कण्टक आदि पदार्थों का योगी को स्पर्श नहीं होता और मृत्यु भी वशीभूत हो जाती है अर्थात् वह इच्छा मृत्यु को प्राप्त होता है जैसा कि भीष्म पितामह का उदाहरण प्रसिद्ध है।
(22) समान वायु को वश में करने से योगी का शरीर तेज-पुञ्ज और ज्योतिर्मय हो जाता है। जिससे अंधकार में भी गमन कर सकता है ।
(23) कर्ण इन्द्रिय और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से योगी को दिव्य श्रवण की शक्ति प्राप्त होती है। अर्थात् वह गुप्त से गुप्त, सूक्ष्म से सूक्ष्म और दूरवर्ती से दूरवर्ती शब्दों को भली प्रकार सुन सकता है।
(24) शरीर और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से आकाश में गमन हो सकता है।
(25)शरीर के बाहर मन की जो स्वाभाविक वृत्ति ‘महा विदेह धारणा’ है उसमें संयम करने से अहंकार का नाश हो जाता है और योगी अपने अन्तःकरण को यथेच्छा (किसी भी लोक में) ले जाने की सिद्धि प्राप्त करता है।
(26) पंच तत्वों की स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थतत्व—ये पाँच अवस्थाएँ हैं। इन पर संयम करने से जगत् का निर्माण करने वाले पंचभूतों पर जयलाभ होता है और प्रकृति वशीभूत हो जाती है। इससे अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व, ईशित्व—ये अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
इस प्रकार योगी, समाधि अवस्था में पहुँचने के बाद जिस किसी विषय पर अपना ध्यान लगाता है उसी का पूर्ण ज्ञान किसी से बिना सीखे अथवा बिना कहीं गये हुये प्राप्त हो जाता है। अन्त में परमात्मा की ओर अग्रसर होते हुये उसे वैसी ही शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं जो ईश्वर में पाई जाती है। वह त्रिकालदर्शी हो जाता है और सब लोकों में उसकी गति हो जाती है और उसके संकल्प मात्र से महान परिवर्तन हो जाते हैं। पर यह सब कुछ संभव होने पर भी महात्माओं का मत यही है कि साधक को अपना लक्ष्य सदा मोक्ष रखना चाहिये। ये समस्त सिद्धियाँ “अपरा” कही जाती हैं। परा सिद्धि मोक्ष ही है जिसका लक्ष्य अपने स्वरूप अनुभव करके मुक्ति प्राप्त करना होता है।