🌷 एकला चलो रे 🌷
जोदि तोर दक शुने केऊ ना ऐसे तबे एकला चलो रे" रबीन्द्रनाथ टैगोर का कविता आज सबकी जुबान है । हरेंद्र इस गीत को बराबर गुनगुनाते रहता था।
हरेंद्र छः भाई बहन मिलाकर था। हरेंद्र सभी मे बड़ा था। बचपन मे सभी एक दूसरे को घर मे नीचा दिखाने के लिए प्रयास रत रहते । हरेंद्र थोड़ा माँ पिता का आज्ञाकारी था । उनकी बातों को मानता था। बचपन की वह कहानी उसे अच्छी तरह याद थी । जिसमे एक संत से गाँव के कुछ लोग पूछते है कि आपने गाँव मे आते किसी अजनवी को देखा है । तो उन्होंने कहा कि नही मैं तो बस एक बच्चा को देखा हु जो अपनी माँ के सिर से पानी का घड़ा लेकर आ रहा है ।
हरेंद्र अपनी माँ से बेहद प्यार करता था । जिस कारण वह सोंचता की मैं, माँ को बिना बताए या पूछे कहीं चला जाऊंगा तो मेरी माँ अनावश्यक चिंता करेगी । इस लिए वह घर से कही जाता भी तो अपनी माँ को बताकर जाता।
हरेंद्र की इस चाल से अगल बगल के लोगों से बछड़ा कहना शुरू कर दिए। उसके भाई लोग भी उसको चिढ़ाते की आप तो बाथ रूम भी जाते है तो माँ को बता कर जाते , ऐसा जरूरी तो नही है कि हर बात माँ को बताया जाए । अब वे लोग माँ का कान भरते की भईया तुम को बोलकर कही और जाते है। उसके बाद हरेंद्र को सभी घर मे झूठा कहते। नतीजा बड़े होने पर भी घर के लोग उसे नजर अंदाज करने लगे ।
हरेंद्र अकेला चलो को अपना धेय मानकर काम करता था। करे भी तो क्या , किसी से कुछ पूछा तो उसे एक ही जवाब मिलता , देख लो , सोच लो । धीरे धीरे वह आपना बात किसी से भी शेयर करना छोड़ दिया । यहां तक कि अपनी जीवन संगिनी से भी । जब तक वह जवान था तब तक एकला चलो रे गीत गाते रहा।
जब थक गया तो उसे देखने वाला कोई नहीं था। कभी कभार मैं हरेंद्र के पास हाल चाल लेने पहुच जाता था। एक दिन मैं हरेंद्र के पास बैठा था , तो मैंने पूछा , " क्या हाल है बाबा ? कैसे है ?"
एक लंबी सांस लेते हुए बोले , " क्या बताऊँ बाबू अब आंखिरी समय चल रहा है । कब बुलावा आ जाय पता नही , लेकिन मैं जिसको अपना सब कुछ समझा , उनमें से एक आदमी भी नही है । देखो दूसरी खाट पर दादी ही है।और अपनी जीवन संगिनी की ओर देखते हुए बोले , " चल मुसाफ़िर चल कही , कोई दूसरा ठिकाना ढूंढ ले , अपने जीने अपने मरने का बहाना ढूंढ ले ।" हरेंद्र का हाल चाल लेकर घर आ गया । लेकिन दूसरे दिन पता चला कि हरेंद्र अब नहीं रहे।
✍️ डॉ . उमेशजी ओझा