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टच-कीपैडकालीन लोग

28 दिसम्बर 2016

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कल अचानक ही शहर-भ्रमण करना पड़ा. बस के लिए दिन वाला पास बनवा लिया था. एक छोटी सी गलती या यूँ कहें हड़बड़ी से गलत बस में बैठ गया, जो पहुँचती तो वहीँ थी, पर बहुत ही घूम-फिरके. ये हड़बड़ी बड़ी ही बेतुकी थी, क्योंकि दरअसल मुझे कोई खास जल्दी थी नहीं. सो मै भी बस में बैठा रहा. बहुत दिनों बाद मुझे एक प्रिय काम करने का मौका मिला. चुपचाप लोगों को पढना. फिर तो बस से उतरकर भी ये पढना जारी रहा.


कितने तरह के तो लोग हैं....कितनी तरह की प्राथमिकतायें. सबकी चाहें कमोबेश एक जैसी हैं...खुशियों की सबको दरकार बराबर है. पर देखो कितने अलग दिखते हैं लोग और कितनी अलग दिखती है उनकी आदतें. टच-कीपैड के युग में भी बच्चों में शरारतें जिंदा हैं..सुकून हुआ देखकर. तो सब कुछ ख़तम नहीं होने जा रहा. इंसान नयी-नयी चीजों की ओर आकर्षित जरूर होता है लेकिन ज़ेहन में उसे कद्र होती हैं खासियतों की. बच्चों को खेल ना तो है ही पर हाँ अब उनके पास भी विकल्प बढ़ गए हैं और रूम और फील्ड का अंतर तो उन्हें पता ही है. ये और बात है, कि बाज़ार ने हरहाल में जीतने की ललक को डी.एन.ए. की तह तक इस मानिंद फिट कर दिया है कि जहाँ वे खुद को बेहतर पाते हैं उसमें रम जाते हैं...ठीक ही है. क्लासिक ज़माने में ही कहाँ हर कोई कुश्ती लड़ता था..? तब भी अपने रूचि और क्षमता के हिसाब से विकल्प गढ़े और चुन लिए जाते थे. सरपट भागते युवा ओं की दसों उँगलियाँ उनके मोबाईल पर यूँ सधी हैं कि देखते ही बनता है. मल्टी-टास्किंग में अब हर कोई माहिर है. वे बात भी कर रहे हैं-चैट भी-गाने भी सुन रहे हैं और गेम भी खेले जा रहे हैं. उन्हें आस-पास बहुत बात करने की अब जरूरत ही नहीं रही. दिशा, दशा मौसम, समाचार आदि उन्हें गूगल ऐन वक़्त पे इत्तिला कर देता हैं. वैसे भी सभ्यता के नाम पे हमने उन्हें रिजर्व रहना तो सिखा ही दिया है. और कौन सा हमने उन्हें विरासत में समरस समाज सौंपा है कि वे इसकी फ़िक्र भी करें. ये युवा अब बस अपने कस्टमाईज्ड ग्रुप में ही कम्फर्टेबल रहते हैं. अमीरी-गरीबी का खासा अंतर देखने में भले ही लगे पर सर्वसुलभ मोबाइल ने चूँकि लगभग सबको ही थोड़ी-बहुत सेवाएं दे दी हैं तो प्रवृत्तियां कमोबेस सबमें ही ऐसी ही दिखाई पड़ती हैं.


अधेड़ लोगों में मेरे हिसाब से सबसे ज्यादा वैरायटी उपलब्ध है. सबका अपना फलसफा है, ये फलसफे वाली उम्र भी है. इनकी अपनी एक अंदाजे ज़िंदगी है, रवानगी है....और हाँ वो उन्हें सबसे सही लगता है. वज़ह ये है कि ये काम करने के कुछ ही तरीकों को सही मानते हैं. और अगर सामने वाला किसी काम को उस खास ढंग से नहीं कर रहा तो वे अगले ही क्षण मन ही मन उसका पूरा रिपोर्ट कार्ड बना लेंगे. तो मित्रों...किसी भी साक्षात्कार में ऐसे लोगों से ही सबसे ज्यादा खतरा होता है. उनके शुरुआती अंदाज से जानने की कोशिश करिए और फिर उस साँचें के हिसाब से बाकि उत्तर ढाल लीजिये...काम तभी बन सकता है. पर इन पर राय बनाना कठिन ही नहीं....दरअसल बनाना ही नहीं चाहिए. इस युग में इनकी हालत सबसे ज्यादा कठिन है...क्योंकि आगे और पीछे दोनों को साधना है और पूरी गुणवत्ता के साथ. ये मॉडर्न भी हैं...मोडरेट भी. कुछ आदतें पोस्ट-मॉडर्न वाली भी हैं पर दिमाग में मर्यादा पुरुषोत्तम अभी भी बसते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि देश तो ये ही चला या चलवा रहे हैं. तो इसका दबाव व रुआब भी इनके हाव-भाव में दिखता ही है.


बुजुर्ग अधिकांश मुस्कुराते मिले. अत्याधुनिक तेज सुविधाओं का लाभ वे भी उठा रहे हैं पर एक खास सुकून और हौलेपन के साथ. बिना किसी फोर्मैलिटी के एक जनाब ने हमसे एकतरफा बातें शुरू कर दीं, मै मुस्कुराकर उन्हें सुनता/आदर देता रहा. उस सड़क के पुराने किस्से बिना पूछे बताते रहे. उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं थी कि मै कितना सुन रहा हूँ, समझ रहा हूँ. उन्हें बोलना ही था. इस समय में उस समय को करीने से घोले जा रहे थे वे. मै समझने की कोशिश कर रहा था. वो कहीं से शुरू हो जाते और कहीं पहुँच जाते. पर उनकी ललक आकर्षक थी. जैसे कोई खुद पे खुद की प्रासंगिकता ढोए जाए. इसमें गलत कुछ भी नहीं. सभी वय के लोग अपनी इयत्ता ही तो साबित करना चाहते हैं. पर ये प्यारे बुजुर्ग साबित नहीं बस याद दिलाना चाहते हैं. मुझे ये लोग सबसे ज्यादा पसंद हैं. कई बार बच्चों से भी ज्यादा....वज़ह बहुत ही स्वाभाविक है. इनका मन बच्चों सा ...कोई असुरक्षा नहीं...सो कोई खासा पक्षपात या आग्रह भी नहीं. इनसे गुजरी तारीखों का सीधा प्रसारण सुनना वाकई एक रोमांचक अनुभव है. अमूमन ये प्यारे लोग बड़े ही फ्लेक्सिबल होते हैं. ये आपका समूचा मूल्यांकन करते हैं. ये आपके मन के भीतर मिनटों में गोते लगा लेते हैं. एक त्वरित तस्वीर है ये...इससे ज्यादा कुछ भी नहीं. दुनिया बहुत बड़ी है....अपवादों से भरी पड़ी है. इसकी बेपनाह खूबसूरती का यह भी एक राज है. लोगों के बारे में ये मेरी समूची राय नहीं है. हो भी नहीं सकती है....वैसे आस-पास जो लोग हैं ....उनमें हर उम्र में हर उम्र के लोग होते हैं...!

श्याम जुनेजा

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जो की थी वह कहाँ गयी ?

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Khushboo

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प्रियंका शर्मा

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हम सब अब टेक्निकल जीवन जी रहे है जहा सुकून कम है, अच्छा लेख

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साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता.. जब भी होगा जोड़ेगा..!!!

13 अक्टूबर 2016
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साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता, जब भी होगा जोड़ेगा.साहित्य शब्द कानों में पड़ते ही सहित वाला अर्थ दिमाग में आने लग जाता है. साहित्य में सहित का भाव है. कितना सटीक शब्द है. साहित्य शब्द में ही इसका उद्देश

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उम्मीद तो बस उन लोगों से है....!

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मुझे उम्मीद नही है, कि वे अपनी सोच बदलेंगे.. जिन्हें पीढ़ियों की सोच सँवारने का काम सौपा है..! वे यूँ ही बकबक करेंगे विषयांतर.. सिलेबस आप उलट लेना..! उम्मीद नही करता उनसे, कि वे अपने काम को धंधा नही समझेंगे.. जो प्राइवेट नर्सिंग होम खोलना चाहते हैं..! लिख देंगे फिर

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टच-कीपैडकालीन लोग

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अल्केमिस्ट: एक आत्मिक संवाद

1 जनवरी 2017
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अल्केमिस्ट की कहानी कुल पांच से छः पेज में आ सकती है. पर कहानी कहना ही उद्देश्य नहीं लेखक का. पाउलो कोएलो को पाठक से आत्मिक संवाद करना है. ALCHEMIST--पूरी पुस्तक बोल के पढ़ा, क्योंकि पुस्तक बिलकुल पोएटिक थी. एलन क्लर्क ने क्या उम्दा इंग्लिश अनुवाद किया है, मूल पुस्तक पुर्तगीज में है, कुल ६२ भाषाओँ

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