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साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता.. जब भी होगा जोड़ेगा..!!!

13 अक्टूबर 2016

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साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता, जब भी होगा जोड़ेगा.साहित्य शब्द कानों में पड़ते ही सहित वाला अर्थ दिमाग में आने लग जाता है. साहित्य में सहित का भाव है. कितना सटीक शब्द है. साहित्य शब्द में ही इसका उद्देश्य रोपित है. साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता, जब भी होगा जोड़ेगा. इतना हर लिखने वाले को स्पष्ट होना चाहिए. इसीलिये जरुरी नहीं हर लेख न साहित्य में शामिल हो. मेरी दिक्कत ये है कि कुछ लोग साहित्य मतलब महज कविता कहानी समझते हैं. और इसे भी वो 'सब कुछ समझ सकने के गुरुर के साथ' समझते हैं-मतलब ये कि उन्हें सही समझाना कठिन भी है. कविता मतलब भी वो कुछ यूँ समझते हैं कि एक लिखने की शैली जिसमें ख़ास रिदम और एक पैटर्न की पुनरावृत्ति होती है जिसकी विषयवस्तु अमूमन प्रकृति अथवा नारी की खूबसूरती होती है. कहानी मतलब भी कि एक नायक होगा..एक नायिका होगी. ज़माने से लड़ेंगे-भिड़ेंगे-फिर जीत ही जायेंगे.एक सीधी सी बात समझनी चाहिए कि किसी भी विषय-विशेष में उतनी ही गहराई और आयाम होते हैं जितनी कि ज़िंदगी की जटिलताएं गहरी होती हैं. इस तरह कोई भी विषय विशेष का महत्त्व किसी भी के सापेक्ष कमतर या अधिकतर नहीं होता.


मुझे क्या फर्क पड़ता है कोई चीज कोई ठीक से समझे या ना समझे..वैसे भी ये तो सदा से रहा हैं, कुछ लोग ही सम्यक बोध रखते रहे हैं. और मै कौन -मुझे भी कितना कुछ का कितना सम्यक बोध होगा...रब ही मालिक है. दरअसल दो ही दिक्कत है मुझे. पहला तो आग्रही-अबोध अक्सर सत्यान्वेषी के लिए रोड़ा बन जाता है दूसरा ज्ञान का प्रसार समाज का समावेशी विकास करता है- तो यह प्रक्रिया भी अवरुद्ध हो जाती है. मुझे साहित्य एक जादुई चीज लगती है क्योंकि यह भाषा की महत्ता को एक नया आयाम देती है. अभिव्यक्ति की सहूलियत जो हमने भाषा का आविष्कार कर अर्जित की है, साहित्य के माध्यम से हम मानव मन, समाज-देश एवं संबंधों की जटिलताओं को भी सटीक व्यक्त कर पाते हैं. यह इतना आसान नहीं होता. साहित्य इस प्रक्रिया को सुगम्य बनाता है. परस्पर विरोधी भावनाओं को उकेरना हो, जटिलताओं को पिरो पाठक के समक्ष शिद्दत से पेश करना हो और समय एवं स्थान की मर्यादा सुरक्षित रखनी हो तो केवल साहित्य की अन्यान्य विधाएं ही यह कर सकती हैं.


हम ईर्ष्यालु भी हैं और प्रेमातुर भी. जिम्मेदार भी और लापरवाह भी. राष्ट्रीय हैं हम और क्षेत्रीय भी. क्षण क्षण हम अनगिनत विमाओं पर सवार हो जाते हैं. इस यथार्थ को कैसे दर्ज करेंगे...किस परखनली या बीकर में सुरक्षित रख पाएंगे इसे. इसे बस साहित्य ही समाहित कर सकेगा. हुए दंगे, वज़ह राजनीति क रही होगी, प्रशासनिक क्षमता असफल हुई होगी, तकनीकियां दंगों को रोकने से ज्यादा फ़ैलाने में प्रयुक्त हुई होंगी, इतिहासकार, अतीत से वर्तमान की तुलना कर सके होंगे जबकि दंगे जारी होंगे, वैज्ञानिक, इंजीनियर, अध्यापक डॉक्टर कुंठित हुए होंगे..सुविधानुसार दोषारोपण किया होगा, पर दंगों में मानव मन ने क्या महसूस किया, कैसे दंगे अपने उन्माद में सभी पदवियों से निकृष्टतर करवा लेते होंगे..कैसे समस्त ज्ञान- विज्ञान का महँ स्तर भी उस उन्माद के आगे नतमस्तक हो जाते हैं, आरोप-आक्रमण-बचाव की राजनीति और आर्थिकी का वह लेखा जोखा जिसमें हुक्मरानों की नहीं अपितु आम जन मानस का चेहरा प्रतिबिंबित हो ऐसा बस साहित्य की किसी विधा में ही किसी समर्पित सहित भाव वाले साहित्यकार की लेखनी में अभिव्यक्त हो सकता है. एक जिंदा इतिहास अगर उसी रौ; जिसमें कि जीवन चला हो उस समय विशेष में पढ़ना है, महसूसना है तो बस साहित्य की किसी विधा में ही यह तलाश पूरी हो सकती है. सभी शास्त्रों में निष्पक्ष लेखन पर जोर है और साहित्य में सहित भाव पर जोर . यहीं निर्णायक अंतर हो जाता है. इंगिति इतनी ही है कि साहित्य को पढना-पढ़ना-जानना-समझना उतना ही जरुरी है जितना कि कुछ भी और दुनियादारी की समझ.

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13 अक्टूबर 2016
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उम्मीद तो बस उन लोगों से है....!

3 नवम्बर 2016
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मुझे उम्मीद नही है, कि वे अपनी सोच बदलेंगे.. जिन्हें पीढ़ियों की सोच सँवारने का काम सौपा है..! वे यूँ ही बकबक करेंगे विषयांतर.. सिलेबस आप उलट लेना..! उम्मीद नही करता उनसे, कि वे अपने काम को धंधा नही समझेंगे.. जो प्राइवेट नर्सिंग होम खोलना चाहते हैं..! लिख देंगे फिर

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