वो थकी हारी जब आती है काम से ,
और फिर भी खुश है जीवन के इनाम से |
बिना किसी फल के करती रहती है वो श्रम,
माँ कहते है लोग जिसे नाम से |
ममता की देवी , त्याग की मूरत ,
करुणामयी लगती है देखने मै जिसकी सूरत |
खुद ना खाये पर बच्चो को खिलाती है ,
ऐसी बनावट है वो कुदरत की खूबसूरत |
चाहे सर मै हमेशा रहता हो दर्द ,
चाहे भोर मै उसको लगता हो सर्द |
पर उठकर बनती है हमारे लिए खाना ,
ऐसी साथी है माँ हमदर्द |
क्यों समझते है लोग इस शब्द को अबला ,
जबकि इसी ने दुनिया को है बदला |
ऐसी कुदरत के नायब तोहफे के सामने ,
मै अपना सर करता हूँ सजदा |
'नीरज अग्रहरि ' ( अपनी माँ के नाम )