कुछ दिनों से नगालैंड में जनजातीय संगठनों का विरोध-प्रदर्शन चल रहा है। जिससे निपटने के लिए हुई पुलिस फायरिंग में दो व्यक्तियों की मौत हो चुकी है। अराजकता तथा अफवाहों को फैलने से रोकने के लिए सरकार ने कुछ शहरी इलाकों में कर्फ्यू , इंटरनेट तथा संचार सेवा को स्थगित भी किया है।
आरक्षण और महिलाओ के घरेलु काम के अलावा किसी और क्षेत्र में योगदान देने के विरुद्ध तनाव की घटनाएं देश के विभिन्न क्षेत्रो से मिलती रहती है ( जम्मू कश्मीर का हाल ही का मुद्दा इसका जीता जागता उदाहरण है जो दंगल फिल्म की बाल- कलाकार ज़ायरा वसीम के विरुद्ध था।) लेकिन यह मामला थोड़ा विचित्र है।
विचित्र यहाँ इसलिए क्यू की यहां एक ओर तो नागा वासी संविधान के अनुछेद ३७१(ए) का हवाला देते हुए जिसके तहत
नागालैंड को कुछ विशेष अधिकार प्राप्त है (अपनी परंपरा ,संस्कृति तथा सामाजिक प्रथाओ के संरक्षण का अधिकार )संवैधानिकता की बात करते है और वही दूसरी तरफ २४३ (डी) महिलाओ को ३३ फीसदी आरक्षण मानने की बात पर संविधान को दरकिनार कर देते है।यही कारण है की नागालैंड में अभी तक स्थानीय निकाय का चुनाव नही हो सका जिसका खामियाजा नागवासियो को केंद्र द्वारा कुछ आवंटनों से वंचित रह कर चुकाना पड़ रहा है।
राजनीति केवल पुरुषों का काम है। यह मानसिकता कई समाजों में देखने को मिलेगी, पर स्थानीय निकायों में स्त्रियों के आरक्षण का इस प्रकार का विरोध विचित्र है। वह भी उस समाज मे जहां शिक्षा और आधुनिकता हर ओर दिखाई देती है हैरानी तो इस बात की है की महिलाये ग्राम विकास परिषदों में सदस्य भी है इन सब के बावजूद इतना उग्र विरोध मेरी समझ से तो विचित्र ही है स्वतंत्रता मिले हुए हमे लग भग ६० वर्ष हो गए है लेकिन महिलाओ की दयनीय स्थिति देख लगता है अभी संघर्ष बाकी है बस फर्क इतना है तब संघर्ष बाहरियों से था और अब अपनों से है। यह सब देखकर तो यही लगता है की पढ़ाई -लिखाई तथा आधुनिकता से अधिक हमें अपनी मानसिकता को उच्च स्तर पर लाना होगा।