आप सभी कविगण व लेखकों से क्षमा चाहूँगा
अत्यधिक व्यस्तता के कारण आप लोगों के
बीच नहीं आ सका..
आज अपनी पहली हास्य कविता जो 3 वर्ष पहले लिखी थी ,के साथ उपस्तिथ हूँ....
इक रोज मैंने सोचा मैं कान्हा बन के जाऊँ
दिल का तार छेड़े ऐसी धुन मैं छेड़ जाऊँ
दृढ़ निश्चय पे अडिग हो है मन में मैंने ठानी
कि गोपियों के साथ मैं रास फिर रचाऊं
फिर पहना मैंने लहंगा और गले में थी माला
थाम के मुरली बन गया मैं कृष्ण ग्वाला
केशुओं में मोरपंख मस्तक तिलक लगाया
और काँधे पे ओढ़ा मैंने पीत सा दुशाला
फिर बीच धूप में मैं इक पांव पर खड़ा था
सब समझा रहे थे मुझको,जिद पे मैं अड़ा था
मुझे लोग देखकर यूँ फब्तियां कस रहे थे
बच्चों ने मारी ताली और बूढ़े भी हंस रहे थे
उनमें से कुछ दयालु आगे बढ़ कर आये
किसी ने दीं रोटियां किसी ने रूपये चढ़ाये
बनने आया कान्हा मैं भिखारी बन गया था
बन्दर की तरह नाचा जग मदारी बन गया था
हवा के एक झौंके ने मेरा मोर पंख उड़ाया
मुझे याद आया लहंगे में नारा नहीं लगाया
तभी एक बालक माँ कह कर दौड़ा आया
लटका मेरे लहंगे से बचा सम्मान भी गंवाया
फिर सोचने लगे हम सही राह अब चुनेंगे
मन्दिर में जायेंगे तो गोपियों से फिर मिलेंगे
मंदिर में जा के देखीं कन्याएं बहुत सारी
कोई घाघरा चोली कोई पहना था साड़ी
सब देख कर मुझे खिलखिला के हंस रही थीं
और मैंने सोचा शायद मेरी दाल पक रही थी
इक कन्या से मैं बोला मैं कृष्ण तुम हो राधा
आओ रास रचाएं अब कोई नहीं है बाधा
सुन के मेरी बात वो एक अदा से मुस्कुराई
धन्य हो गया मैं कोई कृष्ण तो समझ पाई
फिर बोली वो हसीना तुम कृष्ण मैं हूँ राधा
पर और गोपियों से भी तुमने किया है वादा
और ऐसा कह के उसने आवाज है लगाई
हाथों में ले के डंडे बहुत सारी गोपी आईं
किसी ने मारी सैंडिल किसी ने डंडे से पीटा
बीच रोड पे मुझे बहुत दूर तक घसीटा
गिरा इस पार था लहंगा उस पार था दुशाला
और बीच में पड़ा मैं इक नेकर ने था सम्हाला
मैंने कहा बहन जी न मैं कृष्ण न तू राधा
कर लिया था मैंने बेकार इक इरादा
भटक गया था जो मैं इस राह आ गया था
कभी लौट के न आऊंगा करता हूँ तुमसे वादा
वैभव दुबे'विशेष'