विनोदग्नी ने अपने परमज्ञानी गुरु पाराशर मुनि से अपनी मन की व्यथा रखी,
गुरुदेव माछा घाट पर नर्मदा के संगम पर ध्यानमग्न थे इसलिए उन्होंने कुछ उत्तर नही दिया
पर आज्ञाकारी शिष्य चरणो में बैठा रहा क्योंकि वो वो जनता था उसके प्रश्न का उत्तर ये ही दे सकते हैं।
और जैसी की उम्मीद थी गुरुदेव ने आंखे खोली और बोले _
कहो जिज्ञासु क्यों व्यथित जान पड़ते हो।
गुरुदेव अगर मन की बात मन में रह जाए और हम किसी न कह पाए, इस स्थिति में क्या करना चाहिए?
मन की बात करने से आपको रोका किसने ? पाराशर मुनि ने पूछा
गुरुदेव रोका किसी ने नहीं, बस अपने आप हम स्वयं रुक गए मन की बात कहने से क्योंकि कई बार किसी की भावनाएं आहत हो जाती है बस इसलिए।
प्रिय विनोदाग्नी वक्त पर मन की बात किसी के सामने कह लेना चाहिए, अगर वक्त पर नही कह पाए अपनी मन की बात, तो एक वक्त ऐसा आएगा कि कोई तुम्हारी बात सुने या नहीं उसे जबर्दस्ती सुनवा के रहोगे, ऐसे कुछ उदाहरण है जो बलपूर्वक भी मन की बात सुना कर रहते है, और एक बार नही कई कई बार सुनाते चले जाते और देश तो देश विदेशो तक में मन बात सुना आते है।
सत्य वचन महाराज सत्य वचन _ विनोदाग्नि ने कहा, जो सक्षम होते है वे मन की बात कह लेते है और उन्हें अधिकार भी है ऐसा करने का, हम जैसे सामान्य वर्ग तो मन की बात मन में ही पी जाने को विवश होता है,
गुरुदेव जो गीता का ज्ञान दिया गया क्या इसे भी भगवान की मन की बात कह सकते है?
नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
अद्भुत, गुरुजी ने अपने शिष्य को आशीर्वाद दिया अद्भुत,
गुरुजी को प्रसन्न देख शिष्य ने दो चार और श्लोक पढ़ दिए
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अब मुनि पाराशर ने पूछा यह अपार ज्ञान कहां से प्राप्त किया?
विनोदग्नि ने भी उत्साह से ओतप्रोत होकर कह दिया सब आप से ही सीखा है गुरुवर
पाराशर मुनि _ नही वत्स नही यह ज्ञान तो अभी तक हमने तुम्हे नही दिया ?
क्या तुमने बिना हमारी आज्ञा के यह ज्ञान चोरी चुपके प्राप्त कर लिया?
विनोदाग्नि भय से कांपने लगा उसे तुरंत एकलव्य याद आ गया, _ हे भगवान मैने इतना सत्य भला क्यों बोल दिया, ये गुरुदेव भी तो उन्हीं द्रोणाचार्य के कालखंड के है।
विनोदग्नि ने दोनो अनूंठो को मुट्ठी में छुपा लिया
मुनि बोले न वत्स न अपने अंगूठे यूं न छुपाओ हमसे।
गुरुजी एकलव्य तो आदिवासी था इसलिए उसके साथ ऐसा हुआ था तब केवल राजपुत्र ही शिक्षा ले सकते थे, इसलिए उसका अंगूठा गुरुदक्षिणा में ले लिया गया था, पर मैं तो आदिवासी भी नही।
नही ये पूर्ण सत्य जानकारी नहीं है गुरुजी ने कहा _ ये आदिवासी वाला मुद्दा कुछ लोगो अपने मन से जोड़ दिया था, असल में ये शिक्षा शुल्क न चुकाने का मामला था। द्रोणाचार्य जी का विश्वविद्यालय ठीक वैसा ही था जैसे आजकल के दून स्कूल या ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, अब इनमे उच्च शिक्षा चाहिए तो अत्यधिक शुल्क तो जमा करना पड़ेगा, बस इतना सा मुद्दा था, अब एकलव्य शुल्क में जो दे सकता सकता था वो ले लिया गया था
बस इतनी सी बात थी।
हां तो तुमने भी हमारी आज्ञा के बिना हमसे ज्ञान अर्जित किया है।
चतुर विनोदग्नि ने तुरंत विषय बदलने में भलाई समझी।
अच्छा गुरुदेव आपने कभी मन की बात कही किसी से ?
मुनिवर जिस प्रश्न से डर रहे थे वो ही सामने आन पड़ा था, मन की बात उन्होंने भी रखी थी और उसका जो परिणाम मिला था वो भी भुगता था वास्तव मे बड़ा कष्टप्रद था वो परिणाम, अनायास ही उनका हाथ अपनी पीठ पर कुछ टटोलने लगा।
विनोदाग्नि को महसूस हो रहा था की अकारण ही गुरुजी की दुखती नस को दबा दिया गया था, पर उसे भी तो अपना अंगूठा बचाना था मारता क्या न करता।
अब पाराशर मुनि अधिक समय विनोदाग्नि का सामना नही कर पा रहे थे।
उत्तिष्ठ भरतः कहकर चल पड़े नर्मदा के अगले घाट की ओर।
विनोद पाराशर 8357007999