हरियाली में आँखे खोली,
शबनम मेरा नूर था,
बचपन मेरा बड़ा क्षनिक था,
पर , अपने यौवन पर मुझको बड़ा गुरुर था,
धरती से उपर उठकर ,
अंबर को छुने का सुरूर था,
पर, नियति को ये मंजूर न था,
अलग हुई ममता की डाली से,
बिछड़ गई मै बाबुल से,
रस्मों- कस्मों के नाम पर,
अपनों ने छला था मुझको,
शिकवे क्या करती जग से,
खामोश पड़ी थी मै निस्तबध निशा सी,
दुःख की बदली छाई थी घनघोर घटा सी,
कष्टों का मेरे अब कोई छोर न था,
मेरे उन सपनों- अरमानों का जग मे कोई मोल न था,
अति कोमल तन था मेरा,
और वक़्त का पाषाण अति कठोर,
अरे, अबोध बाला तूने यह क्या कर डाला?
मेरा सारा यौवन पीस डाला,
बहती ही रही नीर मेरे चक्षु से,
कौन सुनता अब, बस फरियाद ईश्वर से,
इतने मे मैंने देखा.....
उसके जीवन की बेला बड़ी मधुर है,
आँखों मे सतरंगी सपनों की सौग़ातें है,
धन्य हुआ जीवन मेरा,
रची गई जब उसके हाथों मे,
मेरे क्षुद्र जीवन पर हँसने वाले,
तेरी भी यही कहानी है,
बचपन तेरा बड़ा क्षणिक है,
और यौवन है कष्टों का दौर,
बुढापा तो एक ठेहराव है,
जीत का सेहरा बांधे आती है मौत...... |
लक्ष्मी यादव