सपने
अब नरम नहीं रहे
उनसे एक तीखी आंच
लपलपाती हुई आती है और
झुलसा देती है दिमाग की साड़ी नसें ,
गलियों में शोर है -
तमाशबीन
बेच रहे हैं
रंगीन स्वप्न
खरीदने वाले नहीं हैं ,
सिर्फ ,देखने वाले
अपनी आँखों से देखते हैं
चौंधियायापन ,
थूक देते हैं पान की पीक ,
जला लेते हैं -एक अदद सिगरेट
बहसों में शामिल
उठाईगिरी को सभ्यता के बहाने
घसीटकर ले जातें हैं
सभ्रांत पुरुष
फिल्म वाले राजनीति भी करते हैं
और साहित्यकार चोट्टाई
सिर्फ मज़दूर वोही करते हैं
जो करना है उन्हें -
इनके सपनों को कोई नहीं बेचता
क्या इनके भी होते हैं सपने?
अगर होते हैं है तो
कैसे होते होंगे .............