कौतुहल है मुझे भी आ गया मैं पार कैसे |
इस नदी के सब किनारे बैर रखते है मुझी से ,
पास जब भी इनके पहुंचा धस रहे हो पाँव जैसे |
झाड़ियाँ खामोश थी और मुझ पर हंस रही ,
ले सकूँ कैसे सहारा कह सकूँ मैं क्या ?किसीसे |
प्रश्नचिन्ह थे मेरे सन्मुख ,गए सब हार कैसे ||1||
वह मांझी निकट का मित्र मेरा क्योँ नहीं आवाज़ सुनता ,
अक्सर उतारा पार जिसने क्या कोई है जाल बुनता|
शांत थी लहरें जो पहले ,आज वे ही तीव्र hain,
तैरकर के पार जाना ,साहस मेरा नहीं चुनता |
सोचता हूँ किन्तु तेरा पाउँगा मैं प्यार कैसे ||2||
वह शीला उस पार की जिस पर बैठा किया करते थे हमतुम ,
शून्य में वह ताकती लगती है मुझको आज गुमसुम |
फूस की वह झोंपड़ी वर्षा में जो बनती थी सहारा .,
बैठकर अंदर जिसके सुना करते थे वर्षा की वो छुम छुम |
आज मुझको बंद से वे लग रहे हैं द्वार कैसे ||3||
कौतुहल है मुझे भी आ गया मैं पार कैसे .
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