जब भी मैंने तुम्हारे हाथो को छुआ /
तब कभी भी मैंने मौसम को नहीं देखा /
क्योंकि इससे गलत बातें पैदा हो सकती थी रुमानियत की /
और रुमानियत बेवज़ह अंदर से /नदी पैदा करती है /
जो गलत ढंग से बहती है /मौसम दरवाज़े की और होता है ऐसे में /
और समय दीवारों पैर से बदल जाते है /
इस तरह से मेरा अपंना कुछ नहीं रह जायेगा /
और मैं तुम्हारे में तलाशूंगा अपने को /हालांकि
इससे एक बहुत लम्बी परेशानी काम हो जाती है /
लेकिन यह कम हो जाना /मुझे तुमको कभी भी नहीं पहचानने देगा /
बुनियादी तौर पर /
ऐसे में अगर तुम हाथ छोड़ भी डोज मेरा /
तो यह तुम्हारी गलती नहीं होगी ,लेकिन/
ऐसे में मैं सोचने लगूंगा /
सर पर हाथ रखकर /जंगलों के बारे में /
तब वहां का अकेलापन डराने लगेगा मुझे /
तब मेरा तुम्हारे पास आना /दिखना भी ज़ंगलोें में घूमने जैसा लगेगा /
और इससे मौसम पूरा दरवाज़ा लील लेगा /
इसलिए अब यह जान लेना बहुत ज़रूरी है /
कि तुम्हारे पास रहने पर /
मुझे कभी भी घर के बारे में नहीं सोचना है /
और यदि सोचना है/ जानना है तो सिर्फ तुम्हारे बारे में ....
क्योंकि मुझे यह देख लेना चाहिए
कि कहीं कोई गलत नदी तो पैदा नहीं हो रही है /
तुम्हारे /मेरे बीच /इन हाथों में /
मौसम को देखकर कहीं .
सोचना है /