पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है ,स्तंभ यानी की ख्ं्भ्ा्..जो कितनी भी खतरनाक आंधी और तूफ़ान आए पर वो खम्बा अडिग रहे , हिले नहीं अगर आप इस बात से अपनी सहमति जताते है तो इसका एक बहुत बड़ा अपवाद है न्यूज चैनल ,,, इस बात का अनुमान तो ,आपको अपनेआप ही लगाना होगा की क्या किसी स्तम्भ की उम्म्र २ साल से तीन साल की होती है । या फिर वो एक भरे उर्जा के साथ तो लगाए जाते है पर उसका मतलब लोगो को बिजली देने की नहीं बल्कि ये नंगे खम्बे और स्तम्भ तार की वसूली के लिए लग जाते ह्ै्..और् जब वसूली हो जाती है तो ये किसी कोने में बिना त्ा्र् के नंगे खड़े हो ज्ा्त्े् ह्ै्...और् जिसकी वजह से उन खम्बो के लिए पत्रकारिता की डिग्री लेकर आए नए लड़को को बेरोज्गारी की नाली में गिर्ना पड़ता ह्््ै्््…्््यही नहीं इन सब में वो भी चैनल बदनाम होते है जिनका मक्सद् सही रास्ते पर चलने का होता ह्ै्.पैसो की बोगी भरने की नहीं …्् अब इसमें ये पैसे राज्नीतिक्दल् देते है इनके ऊपर ये शंका करना वाजिब् सा लगता ह्ै्.क्योकि इलेक्शन के समय पर ही खम्बो का सदाबहार् आता है और नॉएडा जैसे जगहों पर बिना गिनती के चैनल आ जाते ह्ै्..और् कुछ टाइम बाद इनके कपडे फत्ने लगते है और ये नए channel नंगे होकर खड़े हो जाते hai