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पहली हवाईजहाज यात्रा

22 दिसम्बर 2021

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बचपन की ओ बातें मानस पटल पर किसी फिल्म के रील की तरह धीरे धीरे पलटने लगी थी।सुबह सबेरे घर के सामने के रास्ते पर टन टन करती कटही गाड़ी में जुते बैल के गर्दन में बंधी घंटी की आवाज ,लकड़ी के बने पहिए में लगे लोहे के मोटे रॉड में लपेटे सुतरी(पटुआ) जो बगंडी के तेल से सराबोर रहते हुए भी  कड़ कड़ की कर्कश आवाज को तोड़ती बड़ी सुहानी सुनाई देती थी । कभी कभी तो कटही गाड़ी को हांकने वाले ,जिसे "बहलवान " कहते थे की आवाज अरे: रे आऊ, एह की आवाज भी कानो को भाती थी ।हमलोग गाड़ी के पीछे पीछे चलते हुए कभी कभी बढ़े हुए बांस में लटककर ही गाड़ी पर चढ़ने का आनंद ले लेते थे और जब बहलवान को गाड़ी पीछे भारी होने का आभास होता था तो पीछे पलटकर जोर से डांटने पर भाग खड़े होते थे । पीछे लटककर ही सही वो कुछ पल के सफर का आनंद आज भी मानस पटल पर वैसे ही  याद है ।

  समय बीतता चला और मेरा गांव के एक छोटे से स्कूल से शहर के एक बड़े स्कूल में नामांकन कराया गया । गांव के  कच्ची रास्ते को छोड़ अब मैं कंकड़ और अलकतरे से बने पिच (पक्की सड़क ) पर चल पड़ा था । इस रास्ते पर अब मैं साइकल सवार लोगों को देखा तो कभी टायर गाड़ी (जिस लकड़ी गाड़ी में लकड़ी पहिए की जगह लोहे के पहिए में रबर के चक्के लगे रहते हैं) पर लोगों को सवारी करते देखा और मौका मिला तो मैंने भी सवारी की । हाँ सड़क पर पहले पहल फटफटिया (मोटरसाइकिल)को अपने आप चलते  देख बहुत ही आश्चर्य हुआ था और उस पर चढ़ने की बहुत ही लालसा जगी थी परन्तु मन मसोसकर रह गया था !काश मेरे पास भी ऐसा फटफटिया(मोटरसाइकिल) होता !

बाद में मैंने उसी पिच पर कभी टमटम (घोड़ागाड़ी) पर तो कभी रिक्शे पर तो कभी कभार हमारे गांव जो एक

हुरुकमुहां बस(पहले ट्रक में ही बडी लगाकर बस बनाया जाता था ) गांव के पास भालसरी पेड़ के पास शाम में आकर रुकती थी और सुबह होते ही शहर की ओर चल पड़ती थी, का सवारी किया था ।

उस बस की सवारी करने का आनंद ही कुछ और होता था

बीस किलोमीटर की दूरी तय करने में तीन साढ़े तीन घंटे लगते थे ।गांव में बस लगे  रहने के कारण हमलोगो को यह सुविधा होती थी की खुलने के समय से एक घंटा पहले जाने से सीट पर बैठने का जगह मिल जाता था । जिस सीट पर तीन आदमी के बैठने की जगह होती थी उस पर पांच और दो सीट वाले सीट पर चार आदमी भी बैठकर फुले नहीं समाते और खुशी खुशी तीन साढ़े तीन घंटे के सफर का आनंद लेते थे ।छत पर बैठे लोग भी बस में खड़े लोगों को चिढ़ाते थे मानो छत पर ही सही बैठने से उसका इज्जत बढ़ा हुआ रहता था ।

समय बिता पढ़ाई समाप्त हुई और संयोग से गांव के समीप ही बैंक में नौकरी भी मिल गई ।फिर तो अपना एक साइकिल भी हो चला ।साइकिल से घर से दस किलोमीटर दूर ऑफिस प्रतिदिन आने जाने का मजा ही और लगाने लगा ।

समय के साथ साइकिल का मजा भी धूमिल पड़ने लगा तो फिर बजाज स्कूटर खरीद मजा लिया परंतु सड़क पर दौड़ते मोटरसाइकिल मन को ललचाने लगे तो मैंने भी एक मोटर साइकिल खरीदी ।

समय के अनुसार अब तो पुराने हरक्यूलस साइकिल की जगह  सेनरेले ,एवन आदि तरह तरह की विभिन्न मॉडल  की साइकिल आ चुकी थी । बैलगाड़ी ,टायर गाड़ी की जगह ट्रैक्टर ने ले ली । गांव गांव अब टेंपू और ट्रैक्टर की भरमार हो गई थी । बच्चों के लिए कटही गाड़ी या बैलगाड़ी तो बच्चों के लिए अजूबा हो गई थी ।जिस साइकिल ,मोटरसाइकिल को बचपन में चढ़ने की कौन कहे उसे छूने के लिए मन ललचाते उसे तो अब बच्चे जन्म लेते ही देखते और सवारी करते हैं । हां अब तो दूर जगह के छोटे बच्चे तो जन्म लेते ही हवाजहाज की भी सवारी करते है ।

लेकिन "हवाजहाज"  का नाम आते ही या जब  दूर आकाश में मैं भी उसे उड़ते देखता था तो  उसमें उड़ने हेतु मेरे मुंह में भी पानी आ जाता था । काश !मैं भी उस पर सवारी  करता ,मैं भी हवाजाहाज में उड़ता !  

सेवानिवृति के बाद भी मन में यह कसक या ये कहिए की पीड़ा थी ही कि आजकल के बच्चों को भी जन्म लेते ही हवाई जहाज में उड़ने का मौका मिलता है परंतु हाय हमलोगों का भाग्य जो जीवन का चौथापन बीता जा रहा है परंतु आजतक उसपर सवारी का मौका नहीं मिला । अपने भाग्य पर ग्लानि हो रही थी ।

लगता है भगवान ने मेरी सुन ली थी और आज ही दूर देश (हैदराबाद)से तुरंत मोबाइल से "संदेश " आया था कि दामाद जी ने छठ के परात का "हवाई जहाज "का टिकट ले लिए है हमदोनो व्यक्तियों (पति पत्नी ) के लिए । उतने दूर रेलगाड़ी से जाने को मेरा मन नहीं करता था परंतु हवाई जहाज का नाम सुन मैने तुरंत हामी भर दी थी ।

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