अंतरराष्ट्रीय वन दिवस शिक्षा पर केंद्रित है। वनों को आंदोलन के रूप में खड़ा करने के लिए शिक्षा के रास्ते तलाशने होंगे। इस शिक्षा की जरूरत हर स्तर पर है, जो घर-गांवों से लेकर शहरों से जुड़नी चाहिए, क्योंकि वनों के प्रति हमारी बेरुखी ने इन्हें हमसे दूर कर दिया है। फैशन के तौर हर पर्व से लेकर उद्घाटनों तक पेड़-पौधों से जोड़ने की हमारी सभ्यता कितनी जगह बना पाई है, यह भी एक बड़ा सवाल है। वनों के बिना हमारा जीवन शून्य है, क्योंकि ये हमारे लिए सिर्फ हवा, पानी और मिट्टी ही नहीं जुटाते, बल्कि ये हमारी रोजाना की जरूरतों का हिस्सा भी बने रहते हैं। आज ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज का जो संकट है, उसे झेलने के रास्ते वनों के जरिये ही मिल सकते हैं, क्योंकि आज भी जंगल कार्बन के सबसे बड़े शोषक हैं और खासतौर से वर्षा वनों की इनमें बड़ी भूमिका है। ऐसी ही स्थिति दुनिया के अन्य देशों में भी है, क्योंकि हमने विकास का जो खाका तैयार किया है, उसमें सबसे पहले वनों का ही विनाश किया जाता है। विकास के हर काम के लिए वनों की कटाई होती है। जबकि आज भी हर पांच में से एक व्यक्ति की कमाई वनोत्पादों पर ही आधारित है और अफ्रीका में तो करीब 25 करोड़ लोगों की जीविका वनों पर टिकी है। वन दिवस को हमारे लिए जल दिवस और जीवन दिवस के रूप में देखा जाना चाहिए। वह इसलिए कि अब यह वैज्ञानिक रूप में भी तय हो चुका है कि अगर कहीं नदियों के पानी की बात हो या भूमिगत जल की या दुनिया में बढ़ते प्रदूषण को झेलने के लिए बेहतर प्राणवायु जुटाने की या बेहतर मिट्टी की, ये सब वनों की ही देन हैं। हमने गंभीरता जरूर दिखाई और उस गंभीरता का ही परिणाम था कि देश में 1988 में बनी वन नीति में यह तय कर लिया गया था कि 33 फीसदी हमारी भूमि वनों के अंतर्गत रहेगी। दुर्भाग्य यह है कि हमने वन भूमि तो तय कर ली, लेकिन वे वनाच्छादित नहीं हैं। अगर हम पूरे देश का सर्वे कर लें, तो मात्र 21 फीसदी वनों का दावा किया जाता है। और उसमें भी वे वन किस गुणवत्ता के हैं, यह अभी गौण प्रश्न है। वन को मात्र इस रूप में नहीं देखा जा सकता कि वह कितने क्षेत्र को घेरे हुए है, पारिस्थितिकी तंत्र का ऐसा हिस्सा है, जिसमें पैदा प्रजाति ही तय करती है कि उसकी मिट्टी और हवा-पानी कैसा होगा। इसलिए वनों की गुणवत्ता आज दूसरा बड़ा सवाल है, जिस पर हम कभी ज्यादा गंभीर नहीं होते। सबसे जरूरी यह है कि किसी क्षेत्र विशेष का वन वहीं की हवा मिट्टी और पानी से जुड़ा हुआ हो, तो शायद पर्यावरण से जुड़ी उन चुनौतियों पर कुछ हद तक अंकुश लगे, जो आज हमारे सामने खड़ी हैं। आज की तमाम विषम पर्यावरणीय परिस्थितियों के उत्तर वनों से ही मिल सकते हैं। हमें बढ़ती आबादी के सापेक्ष वनों की गुणवत्ता और क्षेत्र के प्रति गंभीर होना होगा,भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए वनों को बचाना होगा।