क्या हम भटक नहीं गए हैं,
इस सभ्यता के चौराहे पर आकर?
जहाँ ‘न्यू इयर इव’ की तरह,
मुखौटे लगाए लोग,
एक दूसरे को जिन्हें
पहचानते तक नहीं,
‘हेप्पी न्यू इयर’ कह रहे हैं.
छुपाने का कर रहे हैं प्रयास,
अपना दर्द,
और फैला रहे हैं,
भ्रांतियां केवल भ्रांतियां,
खुशी की हर ओर,
जो केवल एक दिन
बस एक दिन
छलक कर रह जाएंगी
शराब के प्याले की तरह,
फिर..रह जाएगा
एक खाली सा अहसास,
अलसाया हुआ,
उन खाली और टूटी प्यालियों की तरह,
जिनसे निकालना होगा पूरा साल.
पर क्या यही हमारी सार्वभौमिकता नहीं?