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''वेदना'' ( समाज को दर्पण दिखाती एक 'कथा') दूसरा भाग

21 जुलाई 2017

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'काला अक्षर भैंस बराबर' भीमा के लिए, टिका दिए अँगूठे साहूकार के कहने पर 'कोरी भूमि' पर, क्या पता था ? ये कर्ज़ नहीं चलनी ले ली रेत टिकाने के लिए। घर लौटा मांचे पर बैठकर पसीना पोंछने लगा कहते हुए ,अरे सुनती है 'नटिया' की माँ पैसे मिल गए, चलो एक चिंता दूर हुई। 'कम्मो' बोली -अरे जी ! उधार तो ले लिए ,साहूकार के पैसे कैसे चुकता करोगे ? तूं चिंता मत कर ! कुछ न कुछ हो जायेगा , धीरे -धीरे दे दूँगा।

कम्मो बड़बड़ाती हुई पास के रसोई में चली गई ,चूल्हे पर पतीला रखकर ,मुँह से आग जलाने लगी ,धुआं आँखों में लगने पर खांसते हुए ,बोली क्यूँ जी आज क्या बनाऊँ ,आलू -प्याज है घर में खाली ! रसा बना दूँ और लिट्टी सेंक दूँ ? बच्चे तो सो गए।

भीमा प्रेम जताता हुआ बोला -अरे भागवान जो चाहे बना दे ! तेरे हाथों से ज़हर भी अच्छा लगता है ,वैसे भी हमारे भाग्य में इच्छाओं का कोई महत्व नहीं ,दूसरों की इच्छाओं पर पलना ही हमारा जीवन है ,कहते हुए भीमा की आँखें भर आईं ,कम्मो भी अपने आप को रोक न सकी भीमा से लिपट कर रोने लगी ,सांत्वना तो दोनों एक दूसरे

को दे रहे थे किन्तु रो अपनी बदहाली पर रहे थे।

रात हो चली थी गली में कुत्ते के रोने की आवाज़ जैसे रात के सन्नाटे को मानो चीर रही थी ,झींगुर की आवाज रात में संगीत घोल रही थी ,घर में सारे लोग सोए पड़े थे। रात के दूसरे पहर घर में कुछ हलचल हो रही थी तभी कम्मो की नींद खुली उसने भीमा को जगाया। किन्तु भीमा गहरी नींद में था ,कहा -अरे भागवान सोने दे मुझे ! कम्मो उठी और रसोई की तरफ गई जहाँ वह दृश्य देखकर उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं ।

लोहे का पुराना संदूक खुला पड़ा था ! लगा जैसे किसी ने कुछ ढूढ़ने की कोशिश की हो ,कपड़े इधर-उधर बिखरे पड़े थे ,कम्मो यह सब देखकर शोर मचाने लगी। भीमा नींद से जगा और रसोई की तरफ भागा जहाँ कम्मो सर पर हाँथ रखकर ,बिलख-बिलख कर रो रही थी ,भीमा को समझने में देर न लगी कि भाग्य उसके साथ आँख मिचौली खेल रहा था ,कर्ज़ लिए सारे पैसे उसने कम्मो को संभाल कर रखने को दिये थे जिसे उसने संदूक में रखा था। कहते हैं समस्यायें अकेली नहीं आतीं झुण्ड में चलना उनकी फ़ितरत होती है।...................तीसरे भाग की प्रतीक्षा करें


''एकलव्य''










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