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"चरखा" 'कविता'

15 मई 2017

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हे ! वरदानी

तुम आन

बसो !

मेरे अंदर

वो प्राण

भरो !

कायर होता,मैं

मन ही मन

वीर सा तुम

उत्कर्ष भरो !

हे ! मानव रक्षक

अभिमानी

विश्वास भरो !

आभास भरो !

चित्त को पावन

अब कर दो ! तुम

अमृत वाणी ! कुछ

कहके तुम

जीवन का मार्ग

प्रशस्त्र करो !

हे ! वरदानी

तुम आन

बसो !

मेरे अंदर

वो प्राण

भरो !

हे ! काल के

अन्तर्यामी तुम

बनकर एक कीर्तिमान

रचो !

तुम सोये क्यूँ ?

रसातल जाकर

जग जाओ !

कुछ तो

कर्म करो !

ये धर्म बनाया

तूने क्यूँ ?

क्यूँ ? कर्म बनाया

इसको तूं !

मैं धर्म ढो रहा !

तेरे लिए

कुछ कर्म

कर रहा !

अपने लिए

बस पाने को !

छाया तेरी

बस गाने को !

माया तेरी

वे बना रहें

उल्लू ! मेरा

कुछ नचा रहें

चरखा ! तेरा

तूँ आँखें मूंदे !

बैठा है

तूं गूँगा बनकर

ऐंठा ! है

वे गला रहें हैं !

दाल अपनी

कुछ उड़ा रहें

लज्जा ! मेरी

वे कोंच रहें

सुईयां ! हरपल

वे नोंच रहें

इच्छाओं को

मैं खोज रहा !

आशा ओं को

मैं भंवर में

डूबता हूँ !

हरपल

एक जलन में

जीता हूँ !

पल -पल

हे ! वरदानी

तुम आन

बसो !

मेरे अंदर

वो प्राण

भरो !



"एकलव्य"




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ध्रुव सिंह  -एकलव्य-

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आपके बहुमूल्य विचारों का स्वागत है आभार

17 मई 2017

रेणु

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बहुत ही सुन्दर -- जीवन के उत्कर्ष के आह्वान से भरी अनुपम रचना -- बहुत बढ़िया और सार्थक -- ध्रुव जी - आपको हार्दिक शुभकामना

17 मई 2017

नृपेंद्र कुमार शर्मा

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बहुत बढ़िया रचना

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हे ! वरदानीतुम आनबसो !मेरे अंदर वो प्राण भरो ! कायर होता,मैंमन ही मनवीर सा तुमउत्कर्ष भरो ! हे ! मानव रक्षकअभिमानीविश्वास भरो !आभास भरो ! चित्त को पावन अब कर दो ! तुम अमृत वाणी ! कुछ कहके तुमजीवन का मार्गप्रशस्त्र करो !हे ! वरदानीतुम आनबसो !मेरे अ

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"शून्य" 'आत्म विचारों का दैनिक संग्रह' "दिवास्वप्न"

30 मई 2017
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"दिवास्वप्न" मैं सदैव विचार करता, कि ये दिवास्वप्न है क्या बला ? किन्तु जीवन के आज तक के अनुभव मुझे ये बताने लगे हैं कि हमारा कर्महीन होकर,अत्यधिक पाने की कल्पना का दूसरा नाम 'दिवास्वप्न' है।''एकलव्य"

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"शून्य" 'आत्म विचारों का दैनिक संग्रह' "दुःख"

31 मई 2017
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"दुःख" "अपूर्ण इच्छाओं की सूक्ष्म , रंध्रयुक्त पेटिका है जो समय-समय पर रिसती रहती है , निकलती इच्छायें दुःख रूपी अनुभव में परिणीत होती हैं""एकलव्य

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"शून्य" 'आत्म विचारों का दैनिक संग्रह' "क्रोध"

1 जून 2017
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"क्रोध" "हमारे शरीर में उत्पन्न क्षणिक विकृति मात्र है, जो आवेग के रूप में प्रस्फुटित होती है, दिशाविहीन होना इसका विशिष्ट लक्षण है जो हमारे मस्तिष्क को क्षणभर के लिए शक्तिहीन बना देती है" "एकलव्य"

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"शून्य" 'आत्म विचारों का दैनिक संग्रह' "मृत्यु"

2 जून 2017
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"मृत्यु" "नवीन जीव संरचना की उत्पत्ति का उद्देश्य ,प्रकृति के परिवर्तन का सन्देश जो सारभौमिक सत्य है"

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''वेदना'' ( समाज को दर्पण दिखाती एक 'कथा' )

8 जुलाई 2017
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वह आज भी उन्हीं सन्नाटों में देखता है, कुछ सोचता है ,पैरों में कीचड़ सी मिट्टी मानों उसके जेवर हों कंधे पर रखा मैला अंगोछा जिससे बार-बार अपने पसीनों को पोछता है,घुटने तक पहनी धोती संभवतः जिसका रंग उजला रह

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''वेदना'' ( समाज को दर्पण दिखाती एक 'कथा') दूसरा भाग

21 जुलाई 2017
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'काला अक्षर भैंस बराबर' भीमा के लिए, टिका दिए अँगूठे साहूकार के कहने पर 'कोरी भूमि' पर, क्या पता था ? ये कर्ज़ नहीं चलनी ले ली रेत टिकाने के लिए। घर लौटा मांचे पर बैठकर पसीना पोंछने लगा कहते हुए ,अरे सुनती है 'नटिया' की माँ पैसे मिल गए, चलो एक चिंता दूर हुई। 'कम्मो'

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