कुछ अपने बारे में जानता तो बेशक़ बता देता मैं ने तो भीड़ मे गुजारी है अपनी जिंदगी.
कहने वाले कह रहे हैं, सुनना कोई चाहता नहीं,‘मैं’ का मिजाज है ऐसा, परे कुछ दिखता नहीं...अपने विचार क्या, तर्क क्या, ‘मैं’ ही मिथ्या है,वजूद के कमरे से मगर कोई निकलता ही नहीं...सत्य, यथार्थ की मिल्कियत विरासत में नहीं मिलती,पराक्रम के पौरुष को मगर रणभूमि भाता ही नहीं...ईश्वर को, जीवन को समझने की जिद ल