‘मैं’ का मिजाज है ऐसा, परे कुछ दिखता नहीं...
अपने विचार क्या, तर्क क्या, ‘मैं’ ही मिथ्या है,
वजूद के कमरे से मगर कोई निकलता ही नहीं...
सत्य, यथार्थ की मिल्कियत विरासत में नहीं मिलती,
पराक्रम के पौरुष को मगर रणभूमि भाता ही नहीं...
ईश्वर को, जीवन को समझने की जिद लिए बैठे हैं,
जिन्हें प्रेम -भाईचारे का सुख-सौन्दर्य सुहाता ही नहीं...
रो लीजिये, बांह खींच कर उसको गले लगा लीजिये,
जिंदगी का इससे बेहतर सिला तो विधाता भी नहीं...!