(शिवाजी महाराज एवं डेविड व गोलिएथ)
फिलिस्तीन एवं इजराइल में युद्ध शुरू हो गया था। दोनों छावनियों के बीच एक खाई थी। फिलिस्तीन की सेना में एक सात फीट ऊँचा राक्षसी योद्धा था। वह लगातार चालीस दिनों से बख्तर पहनकर युद्ध के लिए रोज ललकार रहा था। उसका नाम था गोलिएथ। इस नाम को सुनते ही संपूर्ण इजराइली सेना थरथर काँप उठती थी।
इशाय नामक एक बकरियों के चरवाहे के आठ पुत्र थे। उनमें से सात इजराइली सेना में थे। आठवें पुत्र का नाम था डेविड। एक दिन इशाय ने डेविड को अपने भाइयों के लिए नाश्ता लेकर भेजा। युद्ध स्थल पर पहुँचकर डेविड ने गोलिएथ की ललकार सुनी। डेविड उसके सामने गया और बोला, “तुम्हारे पास ढाल, तलवार, बख्तर और भाला भी है। मेरे पास केवल ईश्वर का नाम है।” यह सुनकर गोलिएथ दौड़कर आया। डेविड ने थैली से अपनी गुलेल निकाली और गोलिएथ के माथे पर निशाना साधकर पत्थर का वार किया। गोलिएथ बेहोश होकर गिर पड़ा। डेविड ने गोलिएथ की म्यान से तलवार निकालकर उसका सिर काट दिया।
सन् 1659 में पुर्तगीजों ने शिवाजी को लेकर इस प्रकार का एक पत्र लिखा था— ‘शहाजी के एक पुत्र ने आदिलशाही के विरोध में सिर उठाया है। उसने वसई और चौल के प्रदेश हथिया लिये हैं। वह बलवान् हो गया है। भिवंडी, कल्याण और पनवेल के बंदरगाहों में उसने छोटे जहाज बनाए हैं। हमें सावधान रहना है। हमने अपने अधिकारियों को आदेश दिए हैं कि ये जहाज बंदरगाह से बाहर न निकलने पाएँ।’
इस पत्र में 'शिवाजी' का नाम न लिखकर पुर्तगीजों ने ‘शहाजी का एक पुत्र’ लिखा है। इससे जाहिर है कि पुर्तगीजों की नजर में शिवाजी का महत्त्व इतना कम था कि उनका पूरा नाम तक उन्हें मालूम नहीं था! काश, वे जानते होते कि निकट भविष्य में शिवाजी उनके लिए कितनी बड़ी मुसीबत बनने वाले थे!
उस समय औरंगजेब दक्षिण का सूबेदार था। वह शिवाजी से युद्ध की तैयारी कर रहा था। इस दौरान दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ की तबीयत खराब हो जाने की वजह से औरंगजेब ने बीजापुर से समझौता किया। फिर वह दिल्ली चला गया।
जाते वक्त औरंगजेब ने आदिलशाह को इस प्रकार खत लिखा—
1. अहमदनगर की उचित सुरक्षा की जाए, वरना शिवाजी हमला कर सकता है।
2. प्रदेश को सूना न छोड़ा जाए, वरना वह कुत्ते की औलाद शिवाजी हमला करने का मौका ही ढूँढ़ रहा है।
3. अगर उसे नौकरी में रख लेना हो, तो उसे जागीर दी जा सकती है, लेकिन यह जागीर कर्नाटक में होनी चाहिए, जो बहुत दूर है। इससे उपद्रव की आशंका नहीं रहेगी।
औरंगजेब के दिल्ली जाने के बाद आदिलशाह ने अफजल खान की नियुक्ति वाई प्रांत के सूबेदार के रूप में की।आदिलशाह ने अफजल खान का स्वागत करने के लिए उसे अपनी एक रत्नजड़ित तलवार उपहार में दी। फिर उसे शिवाजी को नष्ट करने की मुहिम पर रवाना किया। इस मौके पर आदिलशाह ने अफजल खान को कुछ खास हिदायतें भी दीं जो इस प्रकार थीं—
1. शिवाजी को हर सूरत में पराजित किया जाए। इसके लिए अगर खुद की ताकत कम पड़ रही हो, तो पहले शिवाजी से मित्रता कर उसे अपने विश्वास में लिया जाए और फिर मौका पाते ही खत्म कर दिया जाए।
2. शिवाजी हारने लगेगा, तो शरण में आने का प्रस्ताव रखेगा, किंतु उसकी बातों पर यकीन न किया जाए, क्योंकि वह बेहद धूर्त है।
3. शिवाजी को किस प्रकार मौत के घाट उतारा जाए, इस पर सोच-विचार पहले से कर लिया जाए।
अफजल खान ने कहा— “यह सीवा-सीवा है कौन? अरे, उसकी हस्ती क्या है ? हम उसे फौरन कैद कर सकते हैं।” लेकिन मन-ही-मन अफजल खान शायद चिंता में था। तभी तो उसने आक्रमण करने से पहले अपने आपको हफ्ते भर जनानखाने में बंद रखा। आखिरी दिन उसने उन स्त्रियों को पानी में डुबोकर मार डाला। वे स्त्रियाँ किन्हीं दूसरे पुरुषों से संबंध न बना लें, इस द्वेष भावना से उसने यह क्रूर कृत्य किया।
अफजल खान कोई कम धर्मांध नहीं था। बीजापुर के अफजलपुर में एक शिलालेख में खान ने स्वयं को—
“कातिले मुतमार्रिदान काफिरान।
शिकंदम बुनियाद बुतान।” कहा है।
यानी मैं काफिरों और विद्रोहियों का सफाया करने वाला एवं मूर्तियों की नींव खोदने वाला हूँ।
अफजल खान का फारसी सिक्का उपलब्ध है, जिस पर इस प्रकार अंकित है—
“गर अर्ज कुनदसिपहर अफजल,
अज हर मुल्की बजाय तसबीह,
आवाज आयद अफजल अफजल..”
यानी अगर जन्नत में वहाँ की सबसे ऊँची हस्ती की तुलना अफजल खान की श्रेष्ठता से की गई, तो हर जगह ‘अल्ला! अल्ला!’ नहीं, बल्कि ‘अफजल! अफजल!’ की ही आवाज सुनाई देगी।
इसके अलावा अफजल खान ‘दीनदार बुतशिकन’ (धर्म का सेवक, मूर्ति-भंजक) और ‘दीनदार कुफ्रशिकन’ (काफिरों का विध्वंसक) जैसे उपनाम या कहें कि विशेषण अपने नाम के साथ लगाया करता था।
खान की पत्थरदिली का जायजा लेने के लिए दो मिसालें देखने लायक हैं—
कसबे अफजलपुर के गाँव लिंगसेटी के मुकादम को खान ने जो खत भेजा है, उसमें वह कठोरता से लिखता है—
“येन सचणी -मामुरीचा वख्ती रयतोस बा घेऊन पर मुकासाइयाचे गावा मध्ये जाऊन बेसोनू पेराणीयाचा खोलबा करणे काय माना आहे? तुवा आम्हासी खूब समजला असौनू यैसे कम अखली चे फोल करणे मुनासीब नाही, रयत अमचे पोंगडे आहेती यैसे जागतो जरी याचे अजार व तसवीस नव्हेल हक हिसाबी जो अमल असेल तोच होइल ये बाबे तुज कौल आहे। खातिर जमा करून दर हाल स्वार होऊन हुजूर येणे अगर बरे वाटेल तरी माहलासी जाऊन सचनी मामुरीचे बिल देखणे यैसे न करता बाहीर बैसून राहिलिया त्या मध्ये तुझी खैरत नाही, जेथे अससील व जेथे जासील तेथनू खोदून काढुनूं जो आसिरा देऊनू ठेऊनू घेइल त्यास जनोबा समेत काटूनू घाणियात घालुनू पिलोन हे तुम्ही येकिन व तहकीक जाणणे ( मराठी पत्र )।”
यानी “यदि काम ठीक से नहीं किया गया अथवा काम में कोताही की गई, तो तेल की घाणी से निचोड़कर निकालूँगा” ऐसी सजा देने की धमकी खान ने दी है।
अफजल खान सबसे पहले तुलजापुर गया। वहाँ जब पता चला कि तुलजा भवानी भोसले घराने की कुलदेवी है और उसका मंदिर यहीं तुलजापुर में ही है, तो उसने सीधे जाकर उस मंदिर में भारी तोड़फोड़ की और जैसा कि कहा जाता है। देवी की मूर्ति को फोड़कर, चक्की में पीसकर, बारीक आटा बनाया।
इसके बाद खान आया मलवड़ी नामक स्थान पर वहाँ शिवाजी महाराज के साले बजाजी निंबालकर रहते थे। खान ने शिवाजी महाराज का मनोबल तोड़ने के लिए बजाजी निंबालकर पर धोखाधड़ी का झूठा आरोप लगाया और उन्हें कैद कर लिया। अब खान ने धमकी दी कि निंबालकर की सुन्नत कर उन्हें मुसलिम बना लिया जाएगा। शिवाजी महाराज ने 60,000 रुपए का दंड भरकर उन्हें छुड़वाया।
खान ने तत्कालीन प्रथा के अनुसार शिवाजी महाराज को एक चिट्ठी भेजी, जिसका सारांश इस प्रकार है—
1. आदिलशाही किलों का यह प्रदेश आपने (शिवाजी महाराज ने) छीन लिया है। (सही आरोप)
2. जंजीरा का सिद्दी प्रदेश एवं चंद्रराव मोरे का प्रदेश आपने हथिया लिया है। (सही आरोप)
3. आपने मुसलमानों का सबकुछ लूटकर उनका अपमान किया है। (गलत आरोप)
4. आपने मुसलमानों को उनके धर्म के अनुसार आचरण करने में रुकावट डाली है। (गलत आरोप)
5. आप राजचिह्न का प्रयोग करते हैं। राजसिंहासन पर बैठते हैं। लोगों को दंडित करते हैं अथवा पुरस्कृत करते हैं। (सही आरोप)
6. आपने जिन प्रदेशों को छीना है, उन्हें वापस करिए, वरना मैं फौज लेकर आप पर हमला करूँगा।
शिवाजी महाराज ने इसका जो जवाब दिया, उससे उनकी अद्भुत व्यवहार कुशलता का प्रमाण मिलता है। खान को भरोसा दिलाते हुए शिवाजी महाराज लिखते हैं—
1. आपकी भुजाओं की शक्ति अतुलनीय है ।
2. आपकी वीरता अग्नि के समान तेजस्वी है।
3. आपके मन में बिल्कुल भी छल-कपट नहीं है।
4. आप जावली आइए। मैं आपके सामने शस्त्र रख दूँगा।
5. आपने जो प्रदेश और किले माँगे हैं, वे सब मैं आपको वापस कर दूँगा।
खान जावली (प्रतापगढ़ के आसपास का बीहड़ इलाका) आने के लिए तैयार हो गया। खान के वकील थे, कृष्णाजी भास्कर। शिवाजी महाराज की ओर से वकील थे, पंताजी। दोनों ने बैठकर जो शर्तें तय कीं, वे इस प्रकार थीं—
1. प्रतापगढ़ किले के नीचे भेंट हो।
2. शामियाना शिवाजी महाराज तैयार करवाएँ।
3. शिवाजी एवं अफजल खान शामियाने में अपने शस्त्र धारण करके आएँगे। वे अपने साथ केवल दो सेवक और एक वकील लेकर आएँगे।
4. तीर के निशाने की पहुँच के बाहर केवल दस अंगरक्षक मौजूद रहेंगे।
निष्ठावान कांहोजी जेधे
कांहोजी जेधे रोहिडे खाई के भोर गाँव के देशमुख थे। उन्हें अंबेवडे, कारी और चिखलगाँव इनाम में मिले थे। 1659 में कांहोजी जेधे आदिलशाह के सरदार थे। आदिलशाह के जरिए खान ने कांहोजी जेधे को एक फरमान भेजा। यह फरमान 16 जून, 1659 के दिन भेजा गया, जो इस प्रकार था
“जो कुछ भी पैदा होता है, उसका मालिक खुदा है। या अली! पैगंबर! मदद करिए।
खत
“सुलतान महम्मद पातशाह (बादशाह) के बाद खुदा की रहमत से अली आदिलशाह पातशाह (बादशाह) ने अपना शाही सिक्का चाँद और सूरज तक जारी किया है।
आला कमान कांहोजी जेधे देशमुख को यह फरमान जारी किया जाता है।
जे सुहूर सन् तिसा खमसैन व अलफ
सीवा (शिवाजी) ने अपनी गैर-जानकारी और नादानी के सबब निजामशाही कोंकण में रहते मुसलमानों को तकलीफ दी है और उनके साथ लूटमार की है।”
शिवाजी ने ऐसे अनेक किलों को छीन लिया है, जिन पर बादशाह आदिलशाह की हुकूमत है। इस कारण शिवाजी का पराभव करने के लिए बादशाह ने अपने तमाम सेनापतियों के बीच महा समर्थ और महा पराक्रमी, बेहिसाब दिमागी कूवत के मालिक और अपने कार्य भार को अच्छी तरह पहचानने वाले सेनापति अफजल खान को सूबेदार का ओहदा देकर एक महाप्रलयंकर सेना के साथ रवाना किया है। उन्हें जिम्मा सौंपा गया है कि वे शिवाजी को जड़ मूल से नष्ट कर दें और इस सरफिरे विद्रोही के सभी साथियों की हत्या कर दें। शिवाजी या उसके साथी अगर बादशाह की शरण में आने की तजवीज करें, तो भी उन्हें कतई शरण में न आने दें और उन सबका सफाया करके ही रुकें।
आदिलशाही की हिफाजत के नजरिए से सेनापति जो भी मशविरा करें, उसे तुम गौर से सुनोगे और अपनी सलाह पेश करोगे। सेनापति अफजल खान जो भी सुझाव या आदेश दें, उसे तुम्हें मानना पड़ेगा। अगर तुम ने जरा भी खिलाफत की, तो नतीजा अच्छा नहीं होगा। सरकारी हुक्म यही है। जो भी होगा, सरकारी हुक्म से होगा।
सन् 1659 के छठे महीने की 16 तारीख के दिन लिखा गया यह फरमान एक अत्यंत कल्याणकारी, पवित्र, प्रसिद्ध एवं सूर्य जैसी तेजस्वी सरकार की आज्ञा से जारी किया गया है।”
कांहोजी नाईक जेधे आदिलशाह का फरमान लेकर तुरंत शिवाजी के पास रायगढ़ गए, साथ में उनके पाँच पुत्र भी थे। शिवाजी ने उनसे एकांत में भेंट की। कांहोजी ने शिवाजी को वह फरमान दिखाया।
शिवराय उसे पढ़कर बोले— “तुम्हारे पड़ोसी उन्नावलीकर के देशमुख केदारजी और खंडोजी खोपड़े जाकर अफजल खान से मिल गए हैं। मैसूर के देशमुख सुलतानजी जगदाले भी अफजल खान से मिल गए हैं। तुम भी चाहो, तो खान के साथ जा सकते हो। बादशाह का फरमान नहीं माना, तो तुम्हारा राज्य भी धोखे में आ जाएगा। तुम्हारी जान संकट में है। तुम भी जाकर अफजल खान के साथ मिल जाओ।”
शिवाजी के ये वचन कांहोजी जेधे के लिए हृदयविदारक थे। किसी भी स्वामी भक्त व्यक्ति को ऐसे वचनों से पीड़ा ही होती। शिवाजी वास्तव में क्या कह रहे थे, उनकी समझ में आ गया। उन्होंने शिवाजी से तुरंत कहा— “बड़े महाराज (शहाजी राजे) ने कर्नाटक में रहते हुए स्वयं की सेवा की शपथ दिलाई थी। उसी आधार पर उन्होंने मुझे राज्य के कल्याण के लिए नियुक्त किया था। वह शपथ आज भी मेरे रोम-रोम में बसी हुई है। वह अटूट है और रहेगी। वह अभेद्य है और रहेगी। मैं अपना वतन आपके चरणों में समर्पित करता हूँ। मैं, मेरे पुत्र और मेरे सभी साथी आपके लिए समाप्त भी हो जाएँ, तो भी स्वीकार है। हम अपने ईमान से पीछे नहीं हटेंगे।”
शिवाजी ने कांहोजी की परीक्षा लेने के लिए कहा, “एक बार फिर सोच लो। अफजल खान का साथ नहीं दोगे, तो तुम्हारा राज्य, तुम्हारा वतन तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा।”
इस पर कांहोजी ने उत्तर दिया— “हमें अपने राज्य की चिंता नहीं। आपके लिए हम सब समर्पित करने को तैयार हैं।”
शिवाजी ने पूछा— “क्या अंजली में जल लेकर शपथ लेने को तैयार हो?”
कांहोजी जेधे ने अंजली में जल लेकर शपथपूर्वक अपना राज्य, अपना वतन शिवाजी पर न्योछावर कर दिया। शिवाजी की परीक्षा में कांहोजी जेधे पूर्णतया उत्तीर्ण हुए।
खान को जब पता चलेगा कि कांहोजी जेधे शिवाजी की सहायता कर रहे हैं, तो खान कांहोजी के परिवार को तंग कर सकता था। शिवाजी ने उनके परिवार को तुरंत तलेगाँव भेज दिया। तलेगाँव के सरदार ढमढेरे शिवाजी के खास परिचितों में से एक थे।
कांहोजी ने अपने सभी देशमुखों को एकत्रित किया। देशमुखों ने पूछा, तो कांहोजी ने शिवाजी के प्रति अपनी निष्ठा खुलकर व्यक्त कर दी। उनके शब्द थे, “हम शिवाजी महाराज के साथ हैं। हमने अपने राज्य की चिंता नहीं की है। शिवाजी के लिए मेरी एवं मेरे पुत्रों की हत्या भी हुई, तो हमें परवाह नहीं मुसलमान बेईमान होते हैं। अपना स्वार्थ पूरा होने के बाद वे किसी भी बहाने से धोखा देते हैं। आप सब अपना निर्णय बताएँ । यह महाराष्ट्र राज्य है। हमें महाराष्ट्र के सपूत शिवाजी का साथ देना है। एक स्वर से, एक निष्ठा से उनकी शक्ति बढ़ानी है।”
कांहोजी जेधे का साहस देखकर सबका डर दूर हो गया। सभी शिवाजी का साथ निभाने के लिए तत्पर हो गए। उन्होंने आवेश में कहा “आप हमारे नायक हैं। जो आपका विचार, वही हमारा विचार पूर्ण निष्ठा के साथ।”
बांदल, पासलकर, शिलमकर, ढमाले, मरला, डोहार, ये सारे देशमुख शिवाजी के परचम तले आने को तैयार हो गए। मावली खोरे के मन का डर भी दूर हो गया। पूरे जोश के साथ युद्धोत्सव की तैयारी शुरू हो गई। अफजल खान को हराने की योजना बनाई गई, विजयादशमी के दिन। दृढ प्रतिज्ञा कर ली गई ।
बुधवार का दिन बीत गया। रात्रि में सभी सरदार अपने लोगों के साथ चुपचाप तयशुदा जगहों पर चले गए। सेना की व्यूह रचना दृढ हो जाने पर शिवाजी ने खान से भेंट करने की तैयारी शुरू की।
गोमाजी नाईक, पानसंबल, कृष्णाजी नाईक, सुभानजी नाईक, निलोपंत, अण्णाजी पंत, सोनोपंत, गंगाजी मंगाजी, माणकोजी दहातोंडे, कृष्णाजी बेलकर इत्यादि सभी कुशल योद्धा महाराज की सेवा में उपस्थित हो गए।
महाराज ने उनसे पूछा— “भेंट के लिए हम कैसे जाएँ?”
कृष्णाजी नाईक ने कहा— “शिवबा! शरीर को पूरी तरह से बख्तरबंद करके ही जाएँ। बख्तर भीतर पहनें। बाहर से दिखाई न दे।”
शिवाजी महाराज छोटी-छोटी बातों का भी ध्यान रखते थे। क्या-क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए, इस पर उन्होंने सबसे सलाह ली, सबके सुझाव सुने।
एक सुझाव ऐसा भी आया “पूरा लाव-लश्कर लेकर जावली चले चलें। युद्ध वहीं कराएँ। प्रतापगढ़ भी जा सकते हैं।”
अफजल खान के जैसे ही डीलडौल के दो सरदारों के साथ शिवाजी महाराज ने पैंतरों का अभ्यास किया। एक सरदार को महाराज की दाढ़ी कुछ बढ़ी हुई महसूस हुई। उसने उनकी दाढ़ी ठीक करवाई।
कुछ सलाह देने लगे “युद्ध न किया जाए। समझौता कर लिया जाए।”
महाराज ने कहा— “नहीं। कोई समझौता नहीं। संभाजी राजे (शिवाजी महाराज के भाई) को जैसे मार दिया गया, वैसे ही हमें भी मारेंगे। मरते-मरते जो होगा, देखा जाएगा।”
सब जोश में थे, किंतु सभी के मन में आशंका भी थी। सबको अनुमान था, कार्य कठिन है.. बहुत कठिन। सफलता न मिली, तो क्या होगा?
शिवाजी महाराज ने सरदारों के मन की आशंका को भाँप लिया। परिस्थिति थी तो गंभीर। सरदारों के मन का डर दूर किए बिना युद्ध के लिए प्रस्तुत होना उचित नहीं। महाराज ने अत्यंत विवेकपूर्ण निर्णय लेते हुए कुछ समय बीत जाने दिया।
एक दिन उन्होंने रात्रि के चौथे प्रहर में उन सरदारों को बुलावा भेजा साथ में आई साहेब को भी बुला लिया। सभी तत्काल उपस्थित हुए।
महाराज सबसे बोले— “रात्रि में तुलजापुर की देवी भवानी ने मुझे दर्शन देकर कहा है कि वे प्रसन्न हैं और मेरी पूर्ण सहायता कर रही हैं। उन्होंने भविष्यवाणी की है कि अफजल खान की मृत्यु मेरे ही हाथ से होना निश्चित है। देवी बोलीं कि चिंता न करो, यश की प्राप्ति तुम्हीं को होगी।”
शिवाजी महाराज के इस कथन से सबको अपार प्रसन्नता हुई। महाराज ने आगे कहा— “देवी भवानी प्रसन्न हैं, तो अब तो अफजल खान को मारकर मिट्टी में मिला ही दूँगा। साक्षात् जगदंबा ने भरोसा दिलाया है, फिर चिंता कैसी?”
सुनकर डरे हुए सरदारों की बाँछें खिल गईं। कहने लगे— “देवी ने आपको आशीर्वाद दिए, तो साथ में हमें भी आशीर्वाद मिल गए। अब तो हमें भी यह कार्य कठिन नहीं लग रहा। अफजल की बिसात ही क्या है। आप युद्ध के लिए कहेंगे, तो हम युद्ध करेंगे। अफजल को जिंदा पकड़ लाने को कहेंगे, तो यह भी करेंगे। महाराज! आप किले पर बने रहिएगा। मैदान हम सँभाल लेंगे।”
यह प्रसंग बताता है कि शिवाजी महाराज मनोविज्ञान में कितने दक्ष थे। यदि वह देवी भवानी का हवाला न देकर केवल अपनी ओर से ही सरदारों को जोश दिलाते, तो भला कितनों की भुजाएँ फड़कतीं? लेकिन उन्होंने देवी का हवाला देकर बात को कहाँ-से-कहाँ पहुँचा दिया। सरदारों के मन में युद्ध के प्रति जो थोड़ी-बहुत हिचक शेष रह गई थी, वह भी निकल गई।
युद्ध की दृष्टि से व्यूह-रचना की जाने लगी। महाराज की राय बनी कि प्रतापगढ़ जैसे अत्यंत दुर्गम स्थान पर पहुँचकर वहीं से शत्रु को चुनौती दी जाए। यह सलाह सबको उचित लगी।
इसी दौरान सईबाई शिवाजी की प्रथम पत्नी साहेब का स्वास्थ्य बिगड़ गया। सभी प्रयत्नों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। भाद्रपद वद अमावस्या से एक दिन पहले यानी चतुर्दशी (5 सितंबर, 1659) को सईबाई की मृत्यु हो गई। उस समय शंभुराजे केवल सवा 2 वर्ष के थे। देवी जगदंबा मानो महाराज की पूरी परीक्षा ले रही थीं।
अफजल खान से भेंट
शिवाजी महाराज एवं अफजल खान की भेंट ईसवी सन् 1659 में, 10 नवंबर के दिन हुई। दोनों शामियाने में उपस्थित हुए। दोनों सशस्त्र थे, साथ में उनके एक-एक वकील थे। शिवाजी महाराज के पास एक चौड़े फलकवाली तलवार और एक लंबा खंजर था। बघनखा उन्होंने शायद हाथ में छिपा रखा था। कवींद्र परमानंद ने बघनखे का उल्लेख नहीं किया है। भीमसेन सक्सेना जैसे इतिहासकार छोटी कटार और बघनखे में अंतर समझ नहीं पाए। दोनों शस्त्र भिन्न हैं।
परमानंद के अनुसार अफजल खान जब महाराज से मिला, तब उसने महाराज के सामने अपनी ये माँगें रखीं— “तुम गर्व से भरा और बिना तौर-तरीकों का अपना बरताव छोड़ो और पूरी तरह से हमारी शरण में आना कबूल करो।”
अफजल खान ने साथ में यह भी कहा— “मैं तुम्हें अपने साथ बीजापुर ले जाऊँगा, बादशाह के सामने मुजरा (झुककर सलाम) करवाऊँगा और बादशाह से अर्ज करूँगा कि तुम्हें और अधिक धन-संपत्ति मिले। घबराओ मत, उलझन में मत पड़ो। मुझसे हाथ मिलाओ। मेरे गले लगो।”
महाराज को भरोसा दिलाने के लिए उसने अपनी तलवार वकील कृष्णाजी भास्कर को दे दी और महाराज के स्वागत में दोनों भुजाएँ फैला दीं महाराज सावधानी के साथ आगे बढ़े।
अफजल खान ने महाराज को अचानक कसकर पकड़ा और उनका सिर अपनी बाई बगल में दबाया। उन दोनों को ऐसी स्थिति में देखकर चिटणीस बखर (इतिहास का दैनिक अंकन करने वाला) कहते हैं — “खान डीलडौल से इतना ऊँचा और भरा-पूरा था कि शिवाजी उसके सामने द्वितीया के चंद्रमा के समान लग रहे थे।” महाराज का सिर अफजल खान की छाती तक आया। क्षण मात्र में अफजल खान ने कटार निकालकर शिवाजी की बाईं छाती में भोंक देनी चाही, लेकिन यह क्या! शिवाजी अपने वस्त्रों के नीचे बख्तर पहने हुए थे। कटार बख्तर से टकराने की सिर्फ आवाज हुई; घाव हुआ ही नहीं।
महाराज सावधान थे। उन्होंने बाएँ हाथ से बघनखा खान के पेट में घुसा दिया और दाहिने हाथ के बिछुए से उसके पेट पर भरपूर वार किया खान ने अपने गुमान में बख्तर पहना ही नहीं था! क्षण मात्र में उसकी अंतड़ियाँ पेट से बाहर निकल आईं। खान दर्द से कराह उठा। शिवाजी महाराज की गरदन पर उसकी पकड़ ढीली हो गई। शिवाजी छूटकर अलग हट गए।
खान के फटे हुए पेट से रक्त की धाराएँ बह चलीं। वह मूर्च्छित होते-होते जोर से चिल्लाया, “दगा! दगा! दुश्मन ने मुझे मारा है। इस दुश्मन को मार डालो !”
खान का वकील, जिसके हाथ में खान की ही तलवार थी और जो पास ही खड़ा था, महाराज को मारने के लिए लपका, किंतु महाराज ने भारी पट्टे से वार करके उसका काम तमाम कर दिया।
महाराज के सिर पर थोड़ा घाव हुआ था। खान की चिल्लाहट सुनकर सैयद बंदा दौड़कर आया और महाराज पर वार करने की कोशिश करने लगा। उसी समय जिवा महाला ने दौड़ते हुए आकर अपनी तलवार के एक ही झटके से सैयद बंदे का हाथ कंधे से काट डाला।
तभी खान की पालकी उठाने वाले आ पहुँचे। वे खान को ले जाने लगे, किंतु उसी पल महाराज का अंगरक्षक संभाजी कावजी दौड़कर आया। उसने पालकी वालों के पैर काट डाले। संभाजी कावजी ने स्फूर्ति से तलवार चलाकर खान का सिर धड़ से अलग कर दिया। फिर वह महाराज के निकट आकर रुक गया।
जीवा महाला और संभाजी कावजी को साथ लेकर शिवाजी महाराज प्रतापगढ़ ओर रवाना हुए।
खान और महाराज की भेंट के शामियाने के पास अंगरक्षकों के बीच घमासान लड़ाई छिड़ गई। खान के सभी अंगरक्षक, वकीलों सहित मारे गए। तब दोपहर के दो बजे थे।
शिवाजी महाराज ज्यों ही प्रतापगढ़ पहुँचे, त्यों ही तोप की गर्जना की गई। महाराज के सरदारों ने अपनी फौज लेकर खान की फौज पर हमला कर दिया। इसी के साथ अफजल खान के मारे जाने की खबर उसकी फौज तक पहुँच गई। खान के बारह हजार फौजी हक्के-बक्के रह गए। मारे निराशा के उनके पसीने छूट गए। ऐसे हालात में भी अफजल खान के दोनों बेटों ने कुछ समय तक युद्ध किया। मूसे खान, याकूत खान, हसन खान, अंकुश खान, फाजल खान आदि सरदारों ने उन दोनों का साथ दिया, लेकिन मराठों के सामने खान के फौजियों की एक न चली।
लड़ाई शाम तक चली। मूसे खान की ऐसी गत बनी कि उसके पास हथियार ही न बचे और उसे युद्ध से पीछे हटना पड़ा। उसके साथी-सरदार याकूत खान, हसन खान, अंकुश खान, फाजल खान मैदान छोड़कर भाग गए। बची हुई खान फौज को मराठों ने कैद कर लिया।
इस लड़ाई में मराठों का भी खासा नुकसान हुआ। महाराज के 1,734 सैनिक शहीद हो गए और 427 सैनिक घायल हुए। महाराज के दो सरदार बाबाजी भोसले और शामराज पद्मनाभि शहीद हो गए। मराठों की तुलना में खान की फौज ने जो नुकसान उठाया, वह बहुत ज्यादा था। खान के फौजियों और सरदारों के 65 हाथी और हथिनी, 4000 घोड़े, 1200 ऊँट, 3 लाख के जवाहिरात, 2 हजार कपड़ों के थान, 7 लाख की
नकद मुहरें और सोने के होन, अनेकानेक तोपें इत्यादि संपत्ति महाराज के हाथ लगी।
अफजल खान ने तुलजा भवानी की मूर्ति जिस तरह नष्ट की थी, उससे जनता में क्रोध उबल रहा था। नतीजा यह कि खान के साथ महाराज के युद्ध को धर्मयुद्ध का स्वरूप मिल गया। खान का वध देवी का क्रोध शांत करने के लिए उचित ही था, यही भावना जनमानस में थी। लोग बत्तीस दाँतों वाला बकरा बलि चढ़ाने की सोच रहे थे। महाराज ने उन्हें रोका। जनता-जनार्दन को शांत करने के लिए महाराज ने अफजल खान का कटा हुआ सिर मातोश्री के पास राजगढ़ भेज दिया।
महाराज ने खान का सिर एक पिंजड़े में रखकर जीजाऊँ माँ साहेब के सामने पेश किया। फिर उसे प्रतापगढ़ के किले के एक बुर्ज के नीचे इसलामी रीति-रिवाज से दफन कर दिया गया। उस बुर्ज को ‘अफजल बुर्ज’ कहा जाने लगा।
खान के पार्थिव शरीर को भी उचित सम्मान के साथ दफन किया गया।
संदर्भ—
1. शककर्ते शिवराय / विजयराव देशमुख
2. शिवरायांची युद्धनीति / डॉ. सच्चिदानंद शेवड़े-दुर्गेश परुलकर
3. छत्रपति शिवाजी / सेतुमाधव पगड़ी
4. Shivaji and His Times/ Jadunath Sarkar
5. Bible ( I Samuel Ch. 17, Vol. 49-51)