[ शिवाजी महाराज का बचपन ]
सन् 1626 में मलिकंबर की मृत्यु के बाद मुगलों ने लखोजी जाधवराव की मदद से निजामशाही से लड़ाई शुरू की, उसी समय जहांगीर बादशाह की मृत्यु हो गई जिससे शाहजहाँ को दिल्ली जाना पड़ा।
शहाजी राजा ने अल्पायु मुर्तुजा एवं उसकी माँ को कल्याण के पास माहुली के किले में रखा। जाधवराव व मुगल सेना ने इस किले को घेर लिया। जाधवराव व निजामशाह की माँ में एक गुप्त समझौता हुआ, जिसके तहत शहाजी राजे व उनकी पत्नी जीजाबाई माहुली के किले से बाहर निकल गए।
तब जीजाबाई सात महीने की गर्भवती थीं। उनका प्रथम पुत्र संभाजी चौदह वर्ष का था। उस समय उनका पीछा स्वयं उनके पिता एवं शहाजी राजे के ससुर लखोजी जाधवराव कर रहे थे। शहाजी राजा ने जीजाबाई एवं संभाजी को जुन्नर के किले में रखा और स्वयं वहाँ से निकल गए। कुछ समय बाद लखोजी राजे विश्वासराव के पास वहाँ आए। विश्वासराव ने उन्हें समझाया और वे मान गए। लखोजी ने जीजाबाई को मायके सिंदखेड़ में बुलाया, किंतु जीजाबाई ने स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा, “मुझे यहीं रहना है।” ऐसी परिस्थिति में जुन्नर के किले में 19 फरवरी, 1630 के दिन शिवबा (शिवाजी) का जन्म हुआ।
स्वराज्य की स्थापना का प्रारंभ शहाजी राजे भोसले ने किया था। ‘खंडागले हाथी प्रकरण’ में निजामशाह ने शहाजी राजे भोसले का पक्ष लिया था। ऐसी गलतफहमी लखोजी जाधव के मन में थी। इसकी नाराजगी में लखोजी जाधव ने निजामशाही छोड़ दी थी और न सिर्फ इतना, बल्कि लखोजी जाधव बाकायदा जाकर मुगलों से मिल गए।
लखोजी जाधव ने यह जो किया, यह विश्वासघात से कम नहीं था। लखोजी जाधव के दुश्मनों ने निजामशाह को सलाह दी कि उनका 'बंदोबस्त' किया जाए। निजामशाह ने अन्य सरदारों को सीख देने के लिए लखोजी जाधव को उनकी मंडली समेत पकड़कर बंदी बनाने की सोची। निज़ाम ने लखोजी जाधव एवं उनकी मंडली को 25 अगस्त, 1629 के दिन दौलताबाद के किले में सस्नेह मुलाकात के लिए बुलाया। वे लोग आ पहुँचे। रीति के अनुसार उन्हें निःशस्त्र किया गया, किंतु उन्हें पकड़ते समय भयंकर लड़ाई होने लगी। इस लड़ाई में स्वयं लखोजी जाधव, उनके दोनों पुत्र अचलोजी एवं रघोजी तथा लखोजी जाधव का नाती यशवंतराव मारे गए। लखोजी जाधव की पत्नी म्हालसाबाई, भाई जगदेवराव व पुत्र बहादुरजी ही बच पाए। वे सिंदखेड़ की गढ़ी में रहने आ गए। बादशाह शाहजहाँ को जब यह सब ज्ञात हुआ, तो उसने जाधव परिवार को नौकरी देकर उन्हें ओहदेदारी प्रदान की।
अपने ससुर का धोखे से खून हुआ देख शहाजी राजे ने भविष्य में निजामशाही के साथ रहना उचित नहीं समझा। उन्हें निजामशाही में लाने के जो प्रयत्न हो रहे थे, उनमें उन्होंने षड्यंत्र की संभावना देखी। आदिलशाह, निजामशाही का सहायक था। वह भी क्रोध से भरा हुआ था, क्योंकि उसकी उपेक्षा हुई थी। शहाजी राजे ने परिस्थिति पर सोच-विचारकर स्वाभाविक रूप से मुगलों के साथ मिल जाना पसंद किया। मुगल सत्ता भी अड़चन में ही थी। मुगलों का बालाघाट से नीचे का प्रदेश निजामशाही में चला गया था। इस कारण युद्ध का अंदेशा बढ़ने लगा था। सन् 1629 में खान जहान लोदी की बगावत मुगलों के लिए घर की बगावत जैसी ही गंभीर थी।
लखोजी जाधव की बीस-पच्चीस हजार की सेना भी मुगलों से दूर हो गई थी। दूसरी ओर आदिलशाह अपने क्रोध को भूलकर वापस निजामशाही के साथ एक हो गया था। ऐसी कठिन परिस्थिति सामने देखकर शहाजी राजे ने मुगल बादशाह से विनती की कि उन्हें मुगल सल्तनत में नौकरी दे दी जाए। मुगल बादशाह ने शहाजी राजे की शर्ते मानते हुए उन्हें नौकरी देने का फरमान जारी कर दिया। नतीजा यह रहा कि शहाजी राजे के पास दस हजार की सेना भी आ गई और मुगल बादशाह से ऐसा वचन भी आ गया कि पुणे, सुपे, जुन्नर एवं संगमनेर के जो परगने मालोजी (शहाजी राजे के भाई) के पास हैं, वे शहाजी राजे को सौंप दिए जाएँगे।
तत्कालीन पद्धति के अनुसार बचपन में शिवाजी महाराज को रामायण, महाभारत, इतिहास एवं पुराणों की कथाएँ, संस्कृत एवं फारसी भाषा का परिचय, मूलाक्षर लेखन-वाचन, गणित, घुड़सवारी, दांडपट्टा, तलवार चलाना, धनुष-बाण चलाना, भाला-फेंक एवं अन्य अस्त्र-शस्त्रों को चलाना सिखाया गया।
सन् 1637 में जीजाबाई और बाल शिवाजी पुणे जागीर में आ गए। यहाँ शिवाजी राजे को सब विद्याएँ सिखाई गईं।
शिवभारतकार के अनुसार श्रुति, स्मृति, पुराण, भारत, राजनीति, सभी शास्त्र, रामायण-काव्य, व्यायाम, वास्तुविद्या, फल-ज्योतिष, सांग, धनुर्वेद, सामुद्रिक भाषाएँ, पद्य, सुभाषित, हाथी-घोड़ा-रथ आरोहण, चढ़ना-उतरना, कूदना, तलवार, धनुष, चक्र, भाला, पट्टा, शक्ति-युद्ध, दुर्ग भेदना, निशाना साधना, कठिन संस्थानों से भाग निकलना, इशारे समझना, जादू विद्या, विष निवारण विद्या, रत्न परीक्षण आदि सभी कलाओं का ज्ञान शिवाजी महाराज को बचपन से ही प्राप्त हुआ। तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप शिवाजी महाराज को मुसलिम दरबार में उमराव बनने के योग्य बनाया गया। उन्होंने थोड़ी उर्दू एवं फारसी भाषाएँ भी सीखी होंगी। इस प्रकार शिवाजी महाराज के तन में तो मुसलिम संस्कृति दिखाई देती थी किंतु मन से तो वे हिंदू ही थे।
जीजाऊँ माँ साहेब की देखरेख में शिवाजी महाराज सभी दृष्टियों से शिक्षित हो रहे थे। तंजावर की एक पुरानी पांडुलिपि में शिवाजी महाराज के गुणों का जो वर्णन किया गया है, उसके अनुसार—
1. ईश्वर में निष्ठा।
2. बलवान।
3. राजकला का अदब (दरबारी रीति-रिवाज में कुशल)।
4. दिखने में सुंदर।
5. रत्न परीक्षा।
6. अश्व परीक्षा।
7. शस्त्र परीक्षा।
8. मृदु भाषी।
9. आँखों में शर्म।
10. शाला में परीक्षा।
11. हाथी परीक्षा।
12. उत्तम न्यायप्रिय।
13. समझदारी की भावना।
14. राजनीतिज्ञ।
15. मनुष्यों की परख।
16. घुड़सवारी।
17. हाथी सवारी।
18. कवित्व की शक्ति।
19. ईमानदारी।
20. वीरता।
21. उदारता।
22. वित्त प्रबंधन।
23. गहराई।
24. धैर्यशील।
आदि गुण शिवाजी महाराज में थे, ऐसा वर्णन है।
सुसंस्कृत वातावरण में शिक्षित होने के फलस्वरूप ही ये गुण शिवाजी महाराज को प्राप्त हुए थे। बचपन से ही उन्हें प्रत्यक्ष अनुभवों से संस्कार दिए गए। थोड़े ही समय में शिवाजी कर्तव्य-परायण हो गए। शहाजी राजे की शूरता, साहस, स्वाभिमान, स्वतंत्र वृत्ति तथा जीजाऊँ माँ साहेब के धीर-गंभीर व्यक्तित्व, ईश्वर के प्रति निष्ठा, सत्त्वशीलता, संयम, विवेकशीलता, दूरदृष्टि, न्यायप्रियता, दृढ निश्चय, सटीक व्यवहारकुशलता, कार्यनिष्ठा आदि गुण शिवाजी में संचित हुए।
सन् 1639 में बारह साल की उम्र में शिवाजी महाराज ने एक मुद्रा तैयार करवाई। इस मुद्रा पर लिखवाया गया था कि प्रतिपदा का प्रथम चंद्र छोटा होने पर भी हम उसे धीरे-धीरे बढ़ता देखते हैं। यह मुद्रा शहाजी के पुत्र शिवाजी को ही शोभा देती है।
प्रतिपच्चंद्रलेखेव वर्धिष्णुर्विश्ववंदिता।
शाहसूनो: शिवस्यैवा मुद्रा भद्राय राजते॥
यह है शिवाजी का मूल एवं मौलिक मुद्रालेख।
शिवाजी महाराज को इस बात का अच्छी तरह एहसास था कि उनके आसपास के जागीरदार एवं वेतनभोगी स्वार्थी थे और केवल स्वयं का लाभ देखा करते थे। शायद यह अंतर्दृष्टि उन्हें उनकी मातोश्री ने दी होगी। इसी कारण शिवाजी महाराज ने अपना आधार सामान्य जनता को बनाया। उनके तीन बाल सखा थे— तानाजी मालुसरे, येसाजी कंक एवं बाजी पासलकर इन सबने मिलकर इतिहास रचा।
शिवाजी महाराज ने केवल चौदह वर्ष की आयु में कठोर परिस्थिति का प्रथम अनुभव लिया। बीजापुर राज्य में सरदारों एवं प्रशासकों को उनके काम के बदले में सरंजाम या जागीर दी जाती थी। इसमें किले नहीं होते थे। जिससे बिगड़े हुए अमीर-उमराव को सँभालने में बादशाह को तकलीफ नहीं होती थी। बादशाह यदि किसी सरदार का विरोध करता, तो उस सरदार के पास अपना संरक्षण करने का कोई उपाय शेष नहीं रहता था।
इसका एक ही उदाहरण पर्याप्त रहेगा। मुहम्मद आदिलशाह किसी कारणवश शहाजी से नाराज था। आदिलशाह ने अपनी सेना को पूना पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। पूना शहाजी को दी गई जागीर थी। जैसा कि दूसरी जागीरों में होता था, पूना की जागीर में भी कोई सुरक्षात्मक किला नहीं था। बादशाह की सेना धड़ाके से बढ़ती चली आई। इससे शहाजी को बेहद कठिन परिस्थिति का सामना करना पड़ा।
सुलह और शांति की स्थापना होने में काफी दिन लगे। बादशाह ने शहाजी पर कृपा ही की। इस कड़वे अनुभव को शहाजी कभी भूले नहीं।
सन् 1646 में शिवाजी ने कूटनीति का दाँव खेलकर बीजापुर के किलेदार से तोरणा किला बिना युद्ध हासिल कर लिया। इस जीत से उन्हें दो लाख होन का खजाना प्राप्त हुआ। (एक होन—2.8 ग्राम वजन का सिक्का।)
सन् 1648 में शिवाजी ने नीलकंठराव की पारिवारिक लड़ाई का लाभ उठाते हुए पुरंदर पर कब्जा कर लिया।
शिवाजी महाराज और बीजापुर दरबार:
उस समय दरबार की तहजीब सिखाने के लिए बच्चों को दरबार में ले जाया जाता था । यह उनकी शिक्षा-दीक्षा का एक हिस्सा था। शहाजी राजे ने शिवाजी को बादशाह के दरबार में साथ चलने के लिए कहा, लेकिन शिवाजी ने मना कर दिया। इससे दरबारियों में कानाफूसी होने लगी। शहाजी राजे के मित्रों ने उन्हें सलाह दी कि शिवाजी को बादशाह के दरबार में अवश्य ले जाना चाहिए। शहाजी राजे ने शिवाजी पर दबाव डाला। शिवाजी मान गए, लेकिन अपने पिता के साथ जब वे दरबार में गए, तो उस वक्त के शिष्टाचार का पालन नहीं किया। आदिलशाही बादशाह के सामने उन्होंने नाम मात्र ही कोरनिश (झुकाई) की और दरबार में स्थान ग्रहण किया।
इसके बाद वे अनेक बार दरबार में गए, किंतु नाम मात्र ही कोरनिश (झुकाई) की, बादशाह को इस कारण संदेह हुआ। उन्होंने सीधे शिवाजी से ही पूछा, तो उन्होंने उत्तर दिया कि वे कोरनिश झुकाते वक्त घबरा जाते हैं। यह सुनकर बादशाह खुलकर हँसे।
शिव छत्रपति के 'सप्त प्रकरणात्मक चरित्र' में उनके बचपन की मनःस्थिति का उत्कृष्ट चित्रण किया गया है।
बीजापुर में अपने पिता के साथ रहते हुए शिवाजी महाराज के मन में कौन से विचार आया करते थे, इसका चित्रण उपरोक्त शिव चरित्र में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है—
“हम हिंदू हैं और ये यवन हैं। यवन परम नीच हैं। उनसे नीचा कोई और नहीं। उनकी सेवा करना, उनका अन्न खाना, उनका अभिवादन करना, इन बातों से मुझे बहुत कष्ट होता है। धर्म की निंदा होती देखकर, गोवध होता हुआ देखकर, तत्काल वहीं-के-वहीं उनके सिर काट देने की इच्छा होती है। गाय की पीड़ा देखकर तो अपना जीवन ही व्यर्थ लगने लगता है, किंतु पिता की ओर देखकर चुप रह जाता हूँ। मुसलमानों का साथ ठीक नहीं। बादशाह के दरबार में जाना, मुसलमान अमीर के घर जाना ठीक नहीं..। ”
बादशाह के दरबार से लौटने के बाद शिवाजी राजे ने स्वयं ही स्नान करना और वस्त्र बदलना प्रारंभ कर दिया था।
शिवाजी महाराज के हृदय की भावना इस एक वाक्य से ही स्पष्ट हो जाती है, “हम हिंदू हैं..” उनके उद्गार आगे इस प्रकार व्यक्त हुए हैं, “दक्षिण प्रदेश को विदेशियों ने हथिया लिया है। धर्म डूब रहा है। ऐसे में धर्म की रक्षा प्राण देकर भी करनी होगी। स्व-पराक्रम से नवीन आर्थिक शक्ति का संपादन करना होगा। हमें अपने ईश्वर एवं भाग्य पर भरोसा रखते हुए, स्वयं के ही पुरुषार्थ पर अवलंबन रखना चाहिए। भाग्य जैसे-जैसे साथ देता जाए, वैसे-वैसे हमें अपने प्रयत्नों को बढ़ाते जाना चाहिए...”
'शिव दिग्विजय' ग्रंथ का यह वाक्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण है—
‘हिंदुओं का राज्य तुमने छीन लिया, किंतु इस राज्य पर प्राचीन अधिकार हमारा ही है।’
इस प्रकार शिवाजी महाराज का लक्ष्य केवल महाराष्ट्र में हिंदुओं का शासन स्थापित करना न होकर समग्र भारत देश पर शासन करने का अधिकार जिन हिंदुओं का है, उन्हीं हिंदुओं के सम्मान की नींव पर राज्य की स्थापना करना था। उनके प्राचीन चरित्रकारों को यह विशेषता पूरी तरह से ज्ञात थी। छोटी आयु में ही शिवाजी महाराज ने जो संस्कृत राजमुद्रा बनवाई, वह उनके आत्मविश्वास का प्रतीक है। राजमुद्रा इस प्रकार है—
प्रतिपच्चंद्रलेखेव वर्धिष्णुर्विश्व वंदिता।
शाह सूनो: शिवस्यैषा मुद्रा भद्राय राजने॥
(प्रतिपदा के चंद्र की कला की तरह जिसके प्रकाश में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होना सुनिश्चित है, उसी प्रकार शहाजी के पुत्र शिवाजी की यह राजमुद्रा भी समग्र विश्व में वंदनीय है एवं विश्व-कल्याण के लिए ही इसका अस्तित्व है।)
मुद्रा में प्रयुक्त ‘भद्राय’ शब्द से शिव छत्रपति का ध्येय जिस प्रकार स्पष्ट होता है, उसी प्रकार ‘प्रतिपदा के चंद्र की कला’ जैसी गंभीर उपमा से यश प्राप्ति का उनका आत्मविश्वास व्यक्त होता है।
प्रतिपदा (प्रथम दिन) की चंद्रकला स्पष्ट दिखाई नहीं देती, किंतु वही चंद्रकला धीरे-धीरे पूर्ण चंद्र के रूप में विकसित होती है। यह श्रेष्ठतम उदाहरण है प्रारंभिक कठिनाइयों का, किंतु निकट भविष्य की सुंदरतम उपलब्धियों का। प्रारंभिक संकट भले ही निराशा का निर्माण करते हैं, किंतु ईश्वरीय कार्य में यश निश्चित ही प्राप्त होता है। यह उपमा इसी बात को ध्वनित करती है।
शिवाजी महाराज की राजमुद्रा, कुछ महत्त्वपूर्ण बातें—
1. शहाजी राजे एवं मातोश्री जीजाबाई की राजमुद्राएँ परशियन भाषा में हैं, किंतु शिवाजी महाराज की राजमुद्रा संस्कृत में है। यह परिवर्तन क्षणिक न होकर मन में निश्चित उद्देश्य रखकर किया गया है ।
2. शहाजी राजे मुसलिम आदिलशाह के महत्त्वपूर्ण सरदार थे। ऐसे में उनके पुत्र ने अपनी मुद्रा के लिए संस्कृत भाषा चुनी, इसे आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा।
3. इससे भी बड़ा आश्चर्य यह है कि शिवाजी महाराज ने अपनी राजकीय महत्त्वाकांक्षा की तुलना बढ़ती हुई चंद्रकला से की है।
4. विशेष बात यह भी है कि इस राजमुद्रा की निर्मिति शिवाजी महाराज ने अपनी उम्र के 17 वर्ष पूर्ण करने से पहले ही कर ली थी। उपलब्ध दस्तावेज 28 जनवरी, 1646 को लिखा गया एक पत्र है, जिस पर यह मुद्रा अंकित है। इससे यही सिद्ध होता है कि उन्होंने 17 वें वर्ष में पदार्पण किया, उससे पहले ही यह मुद्रा निर्मित हो गई थी।
5. शिवाजी महाराज के सभी मंत्रियों एवं कर्मचारियों की मुद्राएँ संस्कृत में ही हैं। इसका अर्थ यही है कि मुद्रा का संस्कृत में होना विशिष्ट उद्देश्य से ही किया गया था।
संदर्भ—
1. शिवकाल (1630 से 1707) / डॉ. विगो खोबरेकर।
2. शककर्ते शिवराय / विजयराव देशमुख।
3. छत्रपति शिवाजी / बालशास्त्री हरदास।
4. छत्रपति शिवाजी / सेतुमाधवराव पगड़ी।
5. Shivaji: His Life and Times / G.B. Mehendale.