डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
'भाषापरिष्कार-समिति'
केन्द्रीय कार्यालय, इलाहाबाद
शब्द : भारी बहुमत से; प्रचण्ड बहुमत से; बहुत भारी बहुमत से; भयंकर बहुमत से
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ये सभी शब्द अब सार्वजनिक सम्पत्ति हो चुके हैं; ज़ाहिर है, 'पंचायती माल' बना दिया गया है तो दुरुपयोग होगा ही। इन सभी शब्दों की दशा-दिशा ठीक उसी तरह की है, जिस तरह की "सकल गाँव भौजाई" की होती है।
आश्चर्य का विषय है कि देश का शीर्षस्थ विद्वत्-समाज मात्र 'स्व' तक केन्द्रित रहते हुए, "सबका साथ-अपना विकास'' की ओर नख-शिख प्रयासरत है। सच तो यह है कि उस विद्वत्-वर्ग को भी उक्त शब्दों की समझ नहीं है; क्योंकि उन शब्दों का प्रयोग करते हुए, वह प्राय: "रँगे हाथों" पकड़ा जाता है। जो स्वनामधन्य लोग देश के वरीयता-क्रम के सारे पुरस्कार-सम्मान हथियाये हुए हैं; हथिया रहे हैं; देश के जाने-माने प्रकाशकों के यहाँ से जिनके महा ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं; प्रकाशित होते रहते हैं; देश और विदेश के विश्वविद्यालयों, उच्चस्तरीय संस्थानों में कुण्डली मारकर बैठे हुए हैं; 'हाँ-में-हाँ' मिलाकर राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय आयोजनों में 'महन्तगिरी' करने की आदत पालते हुए, जुगाड़ करते हुए, आदर्शवाद और सुधारवाद की 'भाषणबाज़ी' करते रहते हैं; रुपये लेकर सैकड़ों विद्यार्थियों के शोधग्रन्थ लिखने, शोध कराने और जुगाड़ कर-कराकर स्वयं के व्यक्तित्व-कृतित्व पर शोध कराये जाने का 'सर्टिफिकेट' लेकर घूमते हुए देखे जाते हैं तथा न जाने यशस्विता के कितने कीर्तिमान बना चुके हैं, ऐसे सभी लोग घृणा, लज्जा तथा निरादर के महा पात्र हैं; क्योंकि समीक्ष्य शब्द-संज्ञान से वे सुदूर हैं और नयी पीढ़ी को भी सुदूर किये जा रहे हैं।
कैसा उन सबका अध्यापन-कर्म था; दीक्षा का प्रभाव; भाषण का ओज था--- आज भी देश का विद्यार्थी, सामान्य और विशेष अध्यापक उक्त शब्दों के प्रयोग करने से पहले 'विचार' की मुद्रा में दो पल ठहर भी नहीं पाते, क्यों?
मुद्रित और वैद्युत (प्रिण्ट' और 'इलेक्ट्रानिक) माध्यम में इन शब्दों के साथ बलप्रयोग करनेवालों के लिए जितने भी असंसदीय शब्द हैं, सबको हम सामूहिक रूप में सम्प्रेषित करते हैं, ताकि उन शब्दों के महा आघात लगने के प्रभावस्वरूप उन सबकी सुसुप्त चेतना तो जाग्रत हो सके।
देश के 'एक पार्षद से लेकर राष्ट्रपति तक' भारी बहुमत से/ प्रचण्ड बहुमत का प्रयोग करते आये हैं। इससे यह भी सुस्पष्ट हो जाता है कि उन सभी का बौद्धिक और शैक्षिक स्तर क्या है।
बेशक, इसमें उनका दोष नहीं है; दोष है, उनके अध्यापकों का, उनके माता-पिता और अभिभावकों का, जो उन्हें 'संख्या' और 'मात्रा' में अन्तर कराना सिखा न सके और जो उन्हें 'बहुमत' के शाब्दिक और संवैधानिक अर्थ से अवगत न करा सके।
निष्पत्ति : आँखें खोलिए; कानों को जाग्रत कीजिए तथा यहाँ जो बताया गया है, उसे धारण कीजिए :---
शुद्ध और उपयुक्त प्रयोग है --- 'बहुमत'। ऐसा इसलिए कि 'बहु' (बहुत) का प्रयोग होने के बाद अन्य किसी शब्द की आवश्यकता ही नहीं है। मतपत्रों की गणना की जाती है, न कि किसी तराज़ू के पलड़े पर अथवा किसी 'डिजिटल यान्त्रिक मशीन' पर रखकर मतपत्रों को अथवा मतपेटियों को तोला जाता है। मत का 'मुखमण्डल' होता है क्या? यदि नहीं तो 'प्रचण्डता'-प्रयोग का प्रयोजन? इस कारण मतों की संख्या बतायी जाती है, मात्रा नहीं।
(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १७ जुलाई, २०१९ ई०)