कुछ यादें बेहद दर्दनाक होती हैं ,और हमें उन यादों को हमेशा अपने कांधे पर लादे हुए हीं घूमना पड़ता है, क्योंकि हम चाह कर भी उन्हें नहीं भुला पाते हैं ।
ऐसी ही एक कहानी है झारखंड के एक छोटे से गांव के मामूली शिक्षक मंगतराम की।
वह अपने गांव में शिक्षा का प्रचार प्रसार करना चाहता था। लोगों को शिक्षित बनाना चाहता था। मगर कुछ ऐसे भी लोग थे जो नहीं चाहते थे की हर व्यक्ति शिक्षित हो, क्योंकि शिक्षा हमें जानवर और मनुष्य में फर्क करना सिखलाती है, और मंगतराम यही चाहता था कि उसकी बिरादरी के लोग भी पढ़ लिख ले। इसीलिए वह बेमोल शिक्षा बांटता था।
मगर एक दिन कुछ बलवाइयों ने गांव पर हमला कर दिया और उनका सबसे पहला निशाना शिक्षक मंगतराम ही था। लेकिन वह किसी तरह से परिवार सहित निकल भागा।
कंधे पर पड़े हुए फटी पुरानी चादर को वह बार-बार संभालता था इसे वह अपनी जन्मभूमि से बचाकर लाया था। बलवाइयों के अचानक गांव में आ जाने के कारण वह कुछ भी तो नहीं निकाल पाया था। बड़ी कठिनाई से वह अपनी बीमार पत्नी और बच्चों के साथ भाग सका था। यह चादर उसके कांधे पर पड़ी थी इसलिए वह भी आ गया। अब उस चादर पर उंगलियां घुमाते हुए उसे गांव का जीवन याद आने लगा ।
एक एक घटना मानो एक एक तार थी और इन्हीं तारों के सहायता से समय के जुलाहे ने जीवन की चादर बुन डाली थी। इस चादर पर उंगलियां घुमाते हुए मानो उसे अपनी मिट्टी की सुगंध मिलने लगी है, जिसे वह बरसों से सुंघता आया था ।
जैसे किसी ने उसे जन्मभूमि की कोख से जबरदस्ती उखाड़ कर इतनी दूर फेंक दिया हो।
मंगतराम अपनी बीमार पत्नी के समीप झुक कर उसे दिलासा देने लगा, " इतनी चिंता नहीं किया करते सिमरिया। शहर में पहुंचने भर की देर है, एक अच्छे से डॉक्टर से तुम्हारा इलाज कराएंगे। फिर हम स्कूल में पढ़ाने लगेंगे। तुम्हारे लिए फिर से सोने की बालियां खरीद देंगे।"
कोई और समय होता तो वह अपनी पत्नी से उलझ जाता कि भागते समय इतना भी ना हुआ कि अपनी सोने की बालियां ही उठा लेती । लेकिन आज उसकी जुबान भी ना हिल सकी।
इस समय तो यही बीमार पत्नी और यह बच्चे ही उसका सहारा हैं। यह ना होते तो वह जान बचाकर भागता है क्यों ?
चिंता है तो सिर्फ इस बात की कि कहीं मैं अपना यह सहारा भी ना खो दूं । पत्नी को दिलासा देना आसान है लेकिन स्वयं को वह कैसे समझाएं। परदेश में उसे कौन नौकरी देगा?
इंसान ही आज जब इंसानों का दुश्मन बना हुआ है, तब देश क्या और परदेश क्या ? क्या वहां यह बलवाइए नहीं पहुंच सकेंगे ?
जिस गांव में उसका बचपन बीता ....जिन गांव वासियों को उसने अपने ज्ञान की बूंदों से सींचना चाहा उसी गांव से उसकी जड़ें उखाड़ दी गई, और सब तमाशा देखते रहे। सोने की बालियों का क्या है वह तो फिर से बन जाएंगे .......लेकिन जन्मभूमि छोड़ने का गम कैसे जाएगा?
अब तो यह परिवार और उसका ज्ञान ही उसके साथ है।
पंद्रह वर्षों तक वह बिना किसी भेदभाव के बच्चों को पढ़ाता रहा, लेकिन किसी ने आपत्ति नहीं की और आज अचानक उसके जाति धर्म पर लोगों की उंगलियां उठ रही है ।
रात हो चुकी थी । सामने एक छोटा सा मंदिर दिखाई दिया।
कंधे पर पड़ी चादर को उसने मंदिर की सीढ़ियों के पास ही बिछा दिया। पत्नी और बच्चों को उस पर लिटा कर वह मंदिर के अंदर चला गया।
पूजा करने के लिए नहीं ...खाने का बंदोबस्त करने के लिए...
पुजारी को अपनी व्यथा बता कर कुछ खाने को मांगा... लेकिन अस्पृश्य होने की बात सुनते ही पुजारी ने सब को वहां से भगा दिया।
रात काफी हो चली थी चांदनी रात का उजाला छाया था । मगर हवा की हल्की हल्की चुभन सिमरिया के बीमार शरीर में कांटे की तरह चुभ रही थी। अचानक उसे लगा कि वह चल नहीं पा रही है। उसके आंखों के आगे अंधेरा छा रहा है। अपने पति को बताने जा ही रही थी कि उसका पैर लड़खड़ाया और वह हे भगवान !! करते हुए गिर पड़ी।
उस समय उसने यह नहीं सोचा था कि यह शब्द उसकी जिंदगी का आखिरी शब्द बन जाएगा।
सिमरिया की लाश को खेत में रखकर मंगतराम अपने दोनों बच्चों को सीने से चिपकाए वह रात भर वहीं बैठा सुबकता रहा। सुबह अपने उसी चादर में सिमरिया के मृत शरीर को लपेटकर मिट्टी में दफना दिया। लेकिन उसके मन में एक अपराध बोध सा था।
" क्या मेरी सिमरिया को अपने पति के हाथों चिता की अग्नि भी नसीब नहीं होगी ??"
इसीलिए लकड़ी की खोज में चल पड़ा । तीसरे पहर में जाकर वह एक बस्ती में पहुंचा। पास में एक फूटी कौड़ी भी ना थी, लकड़ी कहां से मिलती।
कुछ काम मांगने की कोशिश की लेकिन सब बेकार। यहां तो हर कोई स्वयं एक मजदूर था। गरीबी घर घर से झांक रही थी। उसकी शिक्षण कला भी यहां व्यर्थ थी। जहां लोगों को दो जून की रोटी नसीब नहीं होती है वहां शिक्षा के बारे में कौन सोचेगा? काफी मिन्नतें करने के बाद एक बुढ़ी महिला ने उसे हल चलाने और जानवरों की देखभाल करने के लिए रख लिया। लेकिन वह उसे और बच्चों को दिन भर में सिर्फ दो थाली भोजन ही देती थी। बस और कुछ नहीं....
आज एक महीने बीत गए हैं । वह जल्दी-जल्दी फसल काट रहा था । फसल अच्छी होने पर वह उन तीनों को भरपेट भोजन कर मिलेगा और पत्नी के अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी और पैसे भी देगी वह महिला।
मंगतराम जल्दी जल्दी काम समाप्त करना चाहता था ताकि आज सूरज ढलने से पहले वह अपनी पत्नी का दाह संस्कार कर सके।
यह जिंदगी और मौत भी बड़ी अजीब चीज होती है। जिंदा रहने के लिए हम मौत से भी बदतर जिंदगी गुजारते हैं और यह मौत यदि किसी अपने को चपेट में ले ले तो मौत के उस कारिंदे से हम जिंदगी की गुजारिश करते हैं। क्या मंगत कभी अपनी जन्मभूमि और अपनी पत्नी को भूल पाएगा??
क्या वह उन यादों से निकल पाएगा ,जो बसी हैं सोने की उन बालियों में जिसे शायद उन बलवाइयों ने लूट लिया होगा या जला दिया होगा उसके मंदिर जैसे घर को।
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आरती प्रियदर्शिनी , गोरखपुर